

सबद-47 ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं।
ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं। मन मृग राखले कर कृषाणी, यूं म्हे भया उदासूं। भावार्थ- वस्त्र से बनी हुई भार स्वरूप कंथा रखना योगी के लिये अत्यावश्यक नियम- कर्म नहीं है तथा गले में गूंटो हाथ में सीगी रखना तथा बजाना कोई नित्य नैमितिक कर्म नहीं है तथा क्योंकि यह तुम्हारा पंचभौतिक शरीर ही कंथा गुदड़ी है जो आत्मा के उपर आवरण रूप से स्वतः ही विद्यमान है तथा तुम्हारा यह चंचल मन जब स्थिर हो…