19577032 1359171104204184 6016417322945327990 o

सबद-38 ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं।

ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं। भावार्थ- अरे गोंसाई! जैसा तुम्हारा यह पंचभौतिक पिण्ड अर्थात् शरीर है वैसा ही अन्य सभी जीवों का शरीर है। कोई ठुमरा, माला तिलक से शरीर में परिवर्तन आने वाला नहीं है। हे निरघृण! तूने इस पार्थिव दुर्गन्धमय शरीर को ही संवारा इसी को ही महता दी है तथा इसमें रहने वाले जीव को खण्डित कर दिया है। इसकी अवहेलना कर दी है। इसलिये तेरा जीवन खण्डित होकर…

Read Moreसबद-38 ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं।
69648528 642046616282790 7077355880395571200 n

सबद-39 ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं।

ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं। भावार्थ- यदि तुम्हें भवसागर से पार होना है तो सर्वप्रथम तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि उतम संगति करना। उतम पुरूष के साथ वार्तालाप करना ही अच्छा संग है और यदि कोई रंग ही अपने उपर चढ़ाना है तो वह भी उतम ही ग्रहण करना अर्थात् यदि अपने जीवन को शुद्ध संस्कृत करना है तो अच्छे संस्कारों को ही धारण करना। संसार से पार लांघना है तो फिर…

Read Moreसबद-39 ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं।
69648528 642046616282790 7077355880395571200 n

सबद-40 ओ३म् सप्त पताले तिहूं त्रिलोके, चवदा भवने गगन गहीरे। बाहर भीतर सर्व निरंतर, जहां चीन्हों तहां सोई।

“दोहा” लोहा पांगल वाद कर आवही गुरु दरबार। प्रश्न ही लोहा झड़ै, बोलेसी गुरु आचार। प्रश्न एक ऐसे करी, काहां रहो हो सिद्ध। तुम तो भूखे साध हो, हमरै है नव निध।  लोहा पांगल नाथ पंथ का प्रसिद्ध साध्धु था। वह वाद-विवाद करने के लिये तथा जम्भदेवजी का आचार विचार देखने के लिये सम्भराथल पर आया और विचार किया कि यदि सच्चे गुरु परमात्मा है तो उनके वचनों से यह मेरा लोहे का कच्छ झड़ जायेगा। उसे यह वरदान था…

Read Moreसबद-40 ओ३म् सप्त पताले तिहूं त्रिलोके, चवदा भवने गगन गहीरे। बाहर भीतर सर्व निरंतर, जहां चीन्हों तहां सोई।
69648528 642046616282790 7077355880395571200 n

सबद-41 ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी

ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी। भावार्थ- हे राजेन्द्र, हे योगीन्द्र, हे शेखेन्द्र, हे सूफीन्द्र, हे काफिरेन्द्र, , हे चिश्ती आप लोग सभी ध्यानपूर्वक सुनों! आप लोग अपने को सिद्ध, साधु, धर्माध्धिकारी कहते हो।अपने शिष्यों को पार उतारने के लिए प्रतिज्ञा करते हो किंतु झूठी काया उपजत विणसत, जां जां नुगरे थिती न जांणी।  यह तुम्हारी झूठी मिथ्या काया बार बार पैदा होती है और विनाश को भी प्राप्त होती…

Read Moreसबद-41 ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी
FB IMG

श्री गुरुजाम्भो जी द्वारा दिये ज्ञानोपदेश की कुछ उक्तियो पर आओ विचार विमर्श करे।

सादर निवण प्रणाम🙏 श्री गुरुजाम्भो जी द्वारा दिये ज्ञानोपदेश की कुछ उक्तियो पर आओ विचार विमर्श करे। “ज्ञानी कै हिरदै परमोद आवत अज्ञानी लागत डांसू” ज्ञान की बात सुनकर जो धारण करता है वह गुणवान व्यक्ति है व सुगरा है जो व्यक्ति ज्ञान की बात सुनकर भी अपने जीवन मे धारण नही करता है वह गुणहीन व्यक्ति है, निगुरा व्यक्ति है उनको ये ज्ञान की बाते बिच्छू के डंक समान चूबती है। “खोज पिराणी ऐसा बिनाणी नुगरा खोजत नाही” हे…

Read Moreश्री गुरुजाम्भो जी द्वारा दिये ज्ञानोपदेश की कुछ उक्तियो पर आओ विचार विमर्श करे।
Khejri

शब्द 42 ओ३म् आयासां काहे काजै खेह भकरूडो ।

ओ३म् आयासां काहे काजै खेह भकरूडो । सेवो भूत मसांणी ।। घडै ऊंधै बरसत बहु मेहा । तिहिंमा कृष्ण चरित बिन पडयो न पडसी पाणी ।। भावार्थ:- हे आयस योगी! इस शरीर पर राख की विभूति किस लिए लगाई है। इसमें तो यह तेजोमय काया धूमिल हुई है जैसा परमात्मा ने रूप रंग दिया है उसे तूने क्यों छिपाया है और श्मशानों में बैठकर भूत-प्रेतों की सेवा करते हो तो इस खेह से शरीर भकरूडो करने से क्या लाभ है।…

Read Moreशब्द 42 ओ३म् आयासां काहे काजै खेह भकरूडो ।
=jambhoji

शब्द 43 ज्यूँ राज गए राजिन्द्र झूरै

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 लोहा पांगल ने पूर्वोत्तर शब्द सुनने के पश्चात जाम्भोजी से कहा कि हमारा जोग अपार है।हमने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त कर ली है।आप हमारी सिद्धि पर कुछ अपना मत प्रकट करें।योगी के कथन को जान गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:- ज्यूँ राज गये राजिंदर झूरे खोज गये न खोजी हे योगी!जैसे राज्य छीन जाने पर राजा व्यथित होकर रोता है,और चोरों के पदचिन्ह खो जाने पर उनके पीछे-पीछे चलने वाला खोजी दुखी होता है । लांछ मुई…

Read Moreशब्द 43 ज्यूँ राज गए राजिन्द्र झूरै
Guruji

सबद-44 ओ३म् खरतर झोली खरतर कंथा, कांध सहै दुख भारूं।

ओ३म् खरतर झोली खरतर कंथा, कांध सहै दुख भारूं। जोग तणी थे खबर नहीं पाई, कांय तज्या घर बारूं भिक्षा मांगने की झोली और ओढ़ने की गूदड़ी ये खरतर ही होनी चाहिये अर्थात् यदि तुम्हें भिक्षा के लिये झोली रखना है तो ऐसी शुद्ध पवित्र रखो जिसमें सत्य रूपी भिक्षा ग्रहण की जा सके। ऐसी उतम भिक्षा ही तुम्हें आनन्द देने वाली होगी और यदि ओढ़ने के लिये गूदड़ी कन्धे पर रखनी है तो प्रकृति पर विजय करके अपने को…

Read Moreसबद-44 ओ३म् खरतर झोली खरतर कंथा, कांध सहै दुख भारूं।
Vishnuji

सबद-45 ओ३म् दोय मन दोय दिल सिवी न कंथा, दोय मन दोय दिल पुली न पंथा

ओ३म् दोय मन दोय दिल सिवी न कंथा, दोय मन दोय दिल पुली न पंथा। दोय मन दोय दिल कही न कथा, दोय मन दोय दिल सुणी न कथा। संकल्प विकल्पात्मक मनः, मन का स्वभाव, संकल्प तथा विकल्प करना है। जब तक मन एक विषय पर स्थिर नहीं होगा तब तक कोई भी कार्य ठीक से नहीं हो सकेगा तथा इसके साथ साथ दिल अर्थात् हृदय में जब तक कोई बात स्वीकार नहीं होगी तब तक वह कभी भी कुशलता…

Read Moreसबद-45 ओ३म् दोय मन दोय दिल सिवी न कंथा, दोय मन दोय दिल पुली न पंथा
Screen Shot 2017 12 12 at 7.19.38 AM

सबद-46 ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो।

ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो। जिहिं जोगी की सेवा कीजै, तूठों भव जल पार लंघावै। भावार्थ- जिस योगी के मन मुद्रा है , शरीर ही गुदड़ी है और धूणी धूकाना रूप अग्नि को शरीर में स्थिर कर लिया है अर्थात् नाथ लोग कानों में मुद्रा डालते है जो गोल होती है यदि किसी का मन भी बाह्य विषयों से निवृत्त होकर केवल ब्रह्माकार हो जाये अर्थात् ब्रह्म के बाहर भीतर लय के…

Read Moreसबद-46 ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो।
Lord Shiva

सबद-47 ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं।

ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं। मन मृग राखले कर कृषाणी, यूं म्हे भया उदासूं। भावार्थ- वस्त्र से बनी हुई भार स्वरूप कंथा रखना योगी के लिये अत्यावश्यक नियम- कर्म नहीं है तथा गले में गूंटो हाथ में सीगी रखना तथा बजाना कोई नित्य नैमितिक कर्म नहीं है तथा क्योंकि यह तुम्हारा पंचभौतिक शरीर ही कंथा गुदड़ी है जो आत्मा के उपर आवरण रूप से स्वतः ही विद्यमान है तथा तुम्हारा यह चंचल मन जब स्थिर हो…

Read Moreसबद-47 ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं।
Jambhguru new

सबद-48 ओ३म् लक्ष्मण लक्ष्मण न कर आयसां, म्हारे साधां पड़ै बिराऊं

प्रसंग-21 दोहा' नाथ एक विश्नोई भयो, करै भण्डारै सेव। टोघड़ी सोधण टीले गयो, जोगी भुक्त करैव। जोगी आया भुक्त ले, विश्नोई लेवे नांहि। जोगी इण विध बोलियो, हमारी भुक्त में औगुण काहि। घर छोड़या तै नाथ का, हम सूं कीवी भ्रान्त। गेडी ले जोगी उठयो, स्याह मूंढ़े की कांत। और जोगी झालियो, छिमा करो तुम वीर। इसकै मारै क्या हुवै, बुझेंगे गुरु पीर। जोगी सब भेला हुवा, चाल्या जम्भ द्वार। दवागर उन मेल्हियो, आय र करो जुहार। पग चालो तुम…

Read Moreसबद-48 ओ३म् लक्ष्मण लक्ष्मण न कर आयसां, म्हारे साधां पड़ै बिराऊं