सबद-30 (कूंचीवाला) ओ३म् आयो हंकारो जीवड़ो बुलायो, कह जीवड़ा के करण कमायो। थर हर कंपै जीवड़ो डोलै, उत माई पीव न कोई बोलै।

ओ३म् आयो हंकारो जीवड़ो बुलायो, कह जीवड़ा के करण कमायो। थर हर कंपै जीवड़ो डोलै, उत माई पीव न कोई बोलै। भावार्थ-मृत्युकाल रूपी हंकारो जब आता है तो इस जीव को शरीर से बाहर बुला लेता है। आगे स्वर्ग या नरक रूपी न्यायालय में पेश किया जाता है, वहां पर न्यायाधीश यमराज या धर्मराज उसे पूछते हैं कि जीवड़ा तूं सच्ची बात बतला दे कि संसार में रहकर तुमने क्या कर्म किये? वैसे तो कर्मों की सूचि पहले ही उनके…

Read Moreसबद-30 (कूंचीवाला) ओ३म् आयो हंकारो जीवड़ो बुलायो, कह जीवड़ा के करण कमायो। थर हर कंपै जीवड़ो डोलै, उत माई पीव न कोई बोलै।

सबद-31 ओ३म् भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं का भल बुद्धि पावै। जामण मरण भव काल जु चूकै, तो आवागवण न आवै। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेल्हत डालूं।

ओ३म् भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं का भल बुद्धि पावै। जामण मरण भव काल जु चूकै, तो आवागवण न आवै। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेल्हत डालूं। भावार्थ- -हे प्राणी!इन कल्पित भूत , प्रेत, देवी,देवता को छोड़कर भगवान विष्णु की ही सेवा तथा समर्पण करो। जिस प्रकार से सुवृक्ष के मूल में पानी देने से डालियां, पते,फल,फूल सभी प्रफुलित प्रसन्न हो जाते है। उसी प्रकार सभी के मूल रूप परमात्मा विष्णु का जप, स्मरण करने से अन्य…

Read Moreसबद-31 ओ३म् भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं का भल बुद्धि पावै। जामण मरण भव काल जु चूकै, तो आवागवण न आवै। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेल्हत डालूं।

सबद-32 ओ३म् कोड़ गऊ जे तीरथ दानों, पंच लाख तुरंगम दानों। कण कंचन पाट पटंबर दानों, गज गेंवर हस्ती अति बल दानों।

ओ३म् कोड़ गऊ जे तीरथ दानों, पंच लाख तुरंगम दानों। कण कंचन पाट पटंबर दानों, गज गेंवर हस्ती अति बल दानों। भावार्थ- यदि कोई तीर्थों में जाकर करोड़ों गउवों का दान कर दे तथा किसी अधिकारी अनधिकारी को पांच लाख से भी अधिक घोड़ों का दान कर दे या अन्नादि खाद्य वस्तु, स्वर्ण ,अलंकार सामान्य ऊनी वस्त्र एवं कीमती रेशमी वस्त्रों का भी दान कर दे और सामान्य हाथी तथा हौंदा आदि से सुसज्जित करके भी अत्यधिक दान कर दे…

Read Moreसबद-32 ओ३म् कोड़ गऊ जे तीरथ दानों, पंच लाख तुरंगम दानों। कण कंचन पाट पटंबर दानों, गज गेंवर हस्ती अति बल दानों।

सबद-33 ओ३म् कवण न हुवा कवण न होयसी, किण न सह्या दुख भारूं।

ओ३म् कवण न हुवा कवण न होयसी, किण न सह्या दुख भारूं। भावार्थ- कौन इस संसार में नहीं हुआ तथा कौन फिर आगे नहीं होंगे अर्थात् बड़े बड़े धुरन्धर राजा, तपस्वी, योगी, कर्मठ इस संसार में हो चुके हैं और भी भविष्य में भी होने वाले है। इनमें से किसने भारी दुख सहन नहीं किया अर्थात् ये सभी लोग दुख में ही पल कर बड़े हुए है तथा जीवन को तपाकर कंचनमय बनाया है। दुखों को सहन करके भी कीर्ति…

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सबद-34 ओ३म् फुंरण फुंहारे कृष्णी माया, घण बरसंता सरवर नीरे। तिरी तिरन्तै तीर, जे तिस मरै तो मरियो।

ओ३म् फुंरण फुंहारे कृष्णी माया, घण बरसंता सरवर नीरे। तिरी तिरन्तै तीर, जे तिस मरै तो मरियो।  भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया फुंहारों के रूप में वर्षा को कहीं अधिक तो कहीं कम बरसाती है। जिससे तालाब नदी नाले भर जाते हैं। इन भरे हुए तालाबों में कुछ लोग स्नान करते हैं। उनमें तैरू तो स्नान करके पार भी निकल जाते हैं और जिसे तैरना नहीं आता है वह डूब जाता है तथा कुछ ऐसे लोग भी…

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सबद-35 : ओ३म् बल बल भणत व्यासूं, नाना अगम न आसूं, नाना उदक उदासूं। 

ओ३म् बल बल भणत व्यासूं, नाना अगम न आसूं, नाना उदक उदासूं।  भावार्थ- वेद में जो बात कही है वह सभी कुछ व्यवहार से सत्य सिद्ध नहीं होते हुए भी उस समय जब कथन हुआ था तब तो सत्य ही थी तथा वे मेरे शब्द इस समय देश काल परिस्थिति के अनुसार कलयुगी जीवों के लिये कथन किये जा रहे हैं। इसलिये इस समय तुम्हारे लिये वेद ही है। वैसे तो व्यास लोग गद्दी पर बैठकर बार बार वेद का…

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सबद-36 : ओ३म् काजी कथै कुराणों, न चीन्हों फरमांणों, काफर थूल भयाणों।

ओ३म् काजी कथै कुराणों, न चीन्हों फरमांणों, काफर थूल भयाणों।  भावार्थ- काजी लोग तो केवल कुरान का पाठ करना तथा कहना ही जानते हैं पर उपदेश कुशल ही होते हैं। जो पर उपदेश देने में रस लेगा वह उसे धारण नहीं कर सकेगा और जब तक यथार्थ कथन को स्वयं स्वीकार करके वैसा जीवन यापन नहीं करेगा तब तक वह कथा वाचक स्वयं नास्तिक-काफिर है तथा स्थूल व्यर्थ का बकवादी नास्तिक है उनका जन्म मृत्यु संसार भय निवृत्त नहीं हुआ…

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सबद-37 ओ३म् लोहा लंग लुहारूं, ठाठा घड़ै ठठारूं, उतम कर्म कुम्हारूं।

ओ३म् लोहा लंग लुहारूं, ठाठा घड़ै ठठारूं, उतम कर्म कुम्हारूं। भावार्थ – धरती एक तत्व रूप से विद्यमान है इसी धरती का अंश लोहा, पीतल, चांदी तथा कंकर पत्थर है इसी धरती रूप लोहे को लेकर लुहार उसे तपाकर के घण की चोट से घड़कर लोहे के अस्त्र शस्त्र औजार बना देता है। लोहा एक था औजार आदि अनेक हो जाते हैं उसी प्रकार से ठठेरा उसे धरती का अंश रूप पीतल लेता है उसे कूट-पीट तपा करके अनेकानेक बर्तन…

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सबद-38 ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं।

ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं। भावार्थ- अरे गोंसाई! जैसा तुम्हारा यह पंचभौतिक पिण्ड अर्थात् शरीर है वैसा ही अन्य सभी जीवों का शरीर है। कोई ठुमरा, माला तिलक से शरीर में परिवर्तन आने वाला नहीं है। हे निरघृण! तूने इस पार्थिव दुर्गन्धमय शरीर को ही संवारा इसी को ही महता दी है तथा इसमें रहने वाले जीव को खण्डित कर दिया है। इसकी अवहेलना कर दी है। इसलिये तेरा जीवन खण्डित होकर…

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सबद-39 ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं।

ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं। भावार्थ- यदि तुम्हें भवसागर से पार होना है तो सर्वप्रथम तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि उतम संगति करना। उतम पुरूष के साथ वार्तालाप करना ही अच्छा संग है और यदि कोई रंग ही अपने उपर चढ़ाना है तो वह भी उतम ही ग्रहण करना अर्थात् यदि अपने जीवन को शुद्ध संस्कृत करना है तो अच्छे संस्कारों को ही धारण करना। संसार से पार लांघना है तो फिर…

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सबद-40 ओ३म् सप्त पताले तिहूं त्रिलोके, चवदा भवने गगन गहीरे। बाहर भीतर सर्व निरंतर, जहां चीन्हों तहां सोई।

“दोहा” लोहा पांगल वाद कर आवही गुरु दरबार। प्रश्न ही लोहा झड़ै, बोलेसी गुरु आचार। प्रश्न एक ऐसे करी, काहां रहो हो सिद्ध। तुम तो भूखे साध हो, हमरै है नव निध।  लोहा पांगल नाथ पंथ का प्रसिद्ध साध्धु था। वह वाद-विवाद करने के लिये तथा जम्भदेवजी का आचार विचार देखने के लिये सम्भराथल पर आया और विचार किया कि यदि सच्चे गुरु परमात्मा है तो उनके वचनों से यह मेरा लोहे का कच्छ झड़ जायेगा। उसे यह वरदान था…

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सबद-41 ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी

ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी। भावार्थ- हे राजेन्द्र, हे योगीन्द्र, हे शेखेन्द्र, हे सूफीन्द्र, हे काफिरेन्द्र, , हे चिश्ती आप लोग सभी ध्यानपूर्वक सुनों! आप लोग अपने को सिद्ध, साधु, धर्माध्धिकारी कहते हो।अपने शिष्यों को पार उतारने के लिए प्रतिज्ञा करते हो किंतु झूठी काया उपजत विणसत, जां जां नुगरे थिती न जांणी।  यह तुम्हारी झूठी मिथ्या काया बार बार पैदा होती है और विनाश को भी प्राप्त होती…

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Bishnoi

Protectors of nature, guardians of life

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