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थार धरा में नाम सवाई ,
परमगुरु जम्भेश्वर का |
‘विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी,
जाप धरा औ अम्बर का ||
विकट काल जिसमें सत्ता ने,
नैतिकता ठुकराई थी |
चारों और अधमता नाचे,
और नीचता छाई थी ||
सिंहासन के लिए कलह था,
चारों ओर तबाही थी ||
दो पाटों के बीच मनुजता,
पिसती राई राई थी|
भूख, अकाल दहकती दुनिया,
घड़ी काल की आई थी ||
काम नहीं था कुछ करने को,
नहीं खेत में दाना था|
भूख तबाही थी चारों दिस,
और मौत का गाना था ||
केवल गर्जन करते बादल,
उमड़ घुमड़ लहराते थे|
मानव के दुष्कर्म देखकर,
बिन बरसे ही जाते थे ||
भूख, गरीबी मर पिसते उस,
मेहनतकश की ख़ैर नहीं |
जो किसान अन्न का दाता,
कभी किसी से बैर नहीं ||
उसकी खड़ी फसल लुटती थी,
चारों ओर कलह भारी |
मारकाट और लूटपाट से,
सभी दुखी थे नर-नारी ||
ऐसे में इक ज्योति प्रकाशी,
पाखंडों को दूर किया |
सच्चा ज्ञान,ध्यान बतलाया|
नुगरों को बेनूर किया ||
पीपासर की उस ज्योति का,
माँ हंसा ने किया उछाव |
लोहटजी परमार पिटा के,
पूरे हुए मनस के भाव||
प्रथम सबद था जाम्भोजी का,
हे पुरोहित ! गुरु को पहचानो |
सहज,शील,नाद अरु बिंदु ,
गुरु के आभूषण ही जानो ||
एक रखे ‘करनी-कथनी’ को,
बन कर जग जितेन्द्रिय रहे |
ब्रह्म और आतम को जाने,
जग उसको ‘गुरु’ नाम कहे ||
गुरु ज्ञान ही इस जगती में ,
सभी रसों अरु सुख का मूल |
खुरसाणी पत्थर सम काटे,
मोह माया गुरु जग की धुल|
मशक पानी की यह काया तो,
शूल निकाले सतगुरु ही |
काया के कच्चे ‘करवे’ की ,
पहचान करावे सतगुरु ही ||
परम गुरु की उस वाणी का,
जिसने जान लिया था सार |
उनके परचे पर मेड़तिये,
‘दूदे’ काठ गही तलवार ||
‘बैरीसाल’ नगाड़ा अद्भुत,
गुरुवर ने ‘जोधा’ को दीन्हा |
और तपस्या तीरथ धोरा .
समराथल पावन गुरु कीन्हा ||
उनका जीवन परम-प्रेरणा ,
सब जग में मुद-मंगलकारी |
आत्मज्ञान’ रु गुरु कृपा से,
जगती बने ‘स्वर्ग की क्यारी’||
कवि व राजस्थानी साहित्यकार डा. आईदान सिह जी भाटी
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