
ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं। मन मृग राखले कर कृषाणी, यूं म्हे भया उदासूं।
भावार्थ- वस्त्र से बनी हुई भार स्वरूप कंथा रखना योगी के लिये अत्यावश्यक नियम- कर्म नहीं है तथा गले में गूंटो हाथ में सीगी रखना तथा बजाना कोई नित्य नैमितिक कर्म नहीं है तथा क्योंकि यह तुम्हारा पंचभौतिक शरीर ही कंथा गुदड़ी है जो आत्मा के उपर आवरण रूप से स्वतः ही विद्यमान है तथा तुम्हारा यह चंचल मन जब स्थिर हो जायेगा तो हृदयस्थ गूंटा ही होगा। मन की एकाग्रता को ही गूंटो मान लेना और तुम्हारा श्वांस प्रश्वांस ही सीगी है। जो सदा ही बजती रहती है। तुमने केवल बाह्य प्रतीकों को ही सत्य मान रखा है। असलियत से दूर हट गये है इस प्रकार से इस मन रूपी चंचल मृग से स्वकीय साध्धना रूपी खेती की रक्षा करना तभी तुम्हारा योग रूपी फल पककर सामने आयेगा। इसलिये मैने तो इन आन्तरिक योग के चिह्नों को धारण कर लिया है जिससे बाह्य चिह्नों से उदासीन हो चुका हूं
हम ही जोगी हम ही जती, हम ही सती, हम ही राखबा चीतूं। पंच पटण नव थानक साधले, आद नाथ के भक्तूं।
जो बाह्य चिह्नों से उदासीन होकर केवल आन्तरिक चिह्नों को धारण करेगा वही सच्चा योगी होगा। वही पूर्ण यती होगा और वही सती तथा समाधिस्थ होकर ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाला होगा। हे योगी! मैने तो यह सभी कुछ धारण कर लिया है। इसलिये मैं अपने को योगी, यति , सति तथा सिद्ध पुरूष कह सकता हूं। किन्तु हे अनादि नाथ के भक्त! तुम्हारे में अभी ये लक्षण नहीं आये है। यदि तुम्हें भी सच्चा योगी बनना है तो सर्वप्रथम तो पांच प्राणों की गति अवरोध कर क्योंकि ये पांच ही शरीर को जीने की शक्ति देते हैं। ये जब निकल जाते हैं तो यह शरीर मृत हो जाता है इसलिये ये पट यानि श्रेष्ठ है। जब प्राणों की गति में प्राणायाम द्वारा अवरोध्ध होगा तब इनसे जुड़े हुऐ मन, बुद्धि, चित, अहंकार स्वतः ही शांत हो जायेंगे तथा इन चतुर्विध्ध अन्तःकरण से जुड़ी हुई पांच ज्ञानेन्द्रियां भी साधित हो जायेगी। इसलिये पांच पटण एवं नव थानकों की साधना करनी होगी।






