सबद-34 ओ३म् फुंरण फुंहारे कृष्णी माया, घण बरसंता सरवर नीरे। तिरी तिरन्तै तीर, जे तिस मरै तो मरियो।

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ओ३म् फुंरण फुंहारे कृष्णी माया, घण बरसंता सरवर नीरे। तिरी तिरन्तै तीर, जे तिस मरै तो मरियो। 

भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया फुंहारों के रूप में वर्षा को कहीं अधिक तो कहीं कम बरसाती है। जिससे तालाब नदी नाले भर जाते हैं। इन भरे हुए तालाबों में कुछ लोग स्नान करते हैं। उनमें तैरू तो स्नान करके पार भी निकल जाते हैं और जिसे तैरना नहीं आता है वह डूब जाता है तथा कुछ ऐसे लोग भी हैं जो डर के मारे पानी के नजदीक ही नहीं जाते, प्यासे ही रह जाते हैं।इस प्रकार से तीन तरह के लोग इस माया मय संसार में रहते हैं।उसी प्रकार से ही भगवान कृष्ण की माया ने यह जगत जाल फैलाया है, कहीं अधिक तो कहीं कम। किन्तु फुहारों की तरह ही एक एक बूंद से यह जगत पूर्ण हुआ है तथा जीवन निर्वाह के लिये भी परमात्मा ने धन धान्य भोग्य वस्तुओं से जगत पूर्ण किया है। इसी धन के मोह में कुछ लोग तो जो अज्ञानी है तैरना नहीं जानते वे तो डूब जाते हैं। धन को ही सभी कुछ समझकर ही मर मिटते है तथा कुछ लोग जो तैरना जानते हैं वे भोगों को प्राप्त करके, भोग करके फिर त्याग करके, ज्ञान से तिर जाते हैं। वे लोग तिरना जानते हैं। अन्य वे लोग जो तीसरी श्रेणी में आते हैं जिनको न तो भोग प्राप्त हो पाता है और न ही छोड़ सकते। भोग्य वस्तु की प्राप्ति की वासना सदैव बनी रहती है। वे न तो पार ही हो सकते और न ही अपने जीवन को सुखमय बना सकते। प्यासे ही रह जाते हैं। संसार में सभी कुछ होते हुए भी वंचित रह जाते हैं।

अन्नों धन्नों दूधूं दहीयूं, घीयूं मेऊ टेऊ जे लाभंता। भूख मरै तो जीवन ही बिन सरियो। खेत मुक्तले कृष्णों अर्थो, जे कंध हरे तो हरियो।
यदि आपको भरपूर अन्न,धन, दूध, दही,मेवा आदि सुलभ है तो इनका अवश्यमेव उपभोग करो। आनन्द करो। यदि ये मिलने पर भी इनको छोड़कर अखाद्य मदिरा, मांस, तम्बाकू आदि का सेवन करते हो और दूध आदि से वंचित रहकर भूखे मरते हो तो इस जीवन से क्या लाभ ले रहे हो। यह जीवन समाप्त हो रहा है, तो हो जाने दो तथा ये खाद्य पदार्थ पवित्र वस्तु की प्राप्ति के लिये शरीर को कष्ट भी उठाना पड़े तो भी कोई चिन्ता नहीं। शरीर मिला भी तो इसलिये ही है तथा परिश्रम भी स्वकीय खेती में परमात्मा के समर्पण भाव से करोगे तो तुम्हें जरा भी शारीरिक मानसिक कष्ट नहीं होगा।

विष्णु जपन्ता जीभ जु थाकै, तो जीभडियां बिन सरीयूं। हरि हरि करता हरकत आवै, तो ना पछतावो करियो।
विष्णु विष्णु का जप करते हुए यदि जीभ थक जाती है तो थकने दीजिये। फिर भी जप तो बिना जीभ के मानसिक ही प्रारम्भ रखिये। अजपा जाप तो विना जिह्वा के भी करते रहिये। यदि हरि हरि विष्णु विष्णु का नाम जप स्मरण करते हुए भी कोई कष्ट विपति आवे तो पछतावा नहीं करना क्योंकि पूर्व जन्मों के कर्म का फल इसी प्रकार से भोगने से ही निवृत्त होगा। इसी प्रकार से यदि कर्म कटते हैं तो कट जाने दीजिये फिर पछतावा किस बात का करना।

भीखी लो भिखीयारी लो, जे आदि परम तत लाधों। जांकै बाद विराम विरांसो सांसो, तानै कौण कहसी साल्हिया साधों।
साधना करते करते जब परम तत्व की प्राप्ति हो जाये तथा द्वेतभाव की निवृत्ति हो जाये। सर्वत्र एक परमात्मा की ही अखण्ड ज्योति का ही दर्शन होने लगे तब चाहे उदर पूर्ति के लिये भिक्षुक बनकर के भिक्षा भी मांग सकते हो। परम तत्व की प्राप्ति के विना तो हाथों से कमाई करके खाना ही अच्छा है। जिस साधक की व्यर्थ का वाद विवाद करने की चेष्टा है| निरंतर साधना का अभाव है। अशान्त तथा मृत्यु का संशय है उसे साल्हिया सज्जन शुद्ध सात्विक साधु कौन कहेगा?यदि कोई कहेगा तो कहने वाला भी अज्ञानी ही होगा, समझदार तो गुणों रहित जन को कभी गुणी नहीं कहेगा।
साभार – जंभसागर

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Sanjeev Moga
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