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*जोगी रे.तू जुगत पिछाणी*
एक समय अजमेर के मल्लूखान ने जाम्भोजी से कहा कि उनकी किताब में मांस खाने की मनाही नहीं है।मोहम्मद साहब ने भी माँस खाना वर्जित नहीं माना है। मांस खाने की बात सुन गुरु महाराज ने उपस्थित मंडली के योगियों,काजियों एंव मल्लूखान के प्रति यस शब्द कहा:-
*जोगी रे तूं जुगत पिछांणी काजी रे तूं कलम कुराणी*
हे योगी!तुम योग की विधि और उसका रहस्य समझो।योग का अर्थ है व्यक्ति चेतना को परम चेतना से जोड़ देना।उसमें समाहित कर देना और हे काजी!तुम कुरान के कल में को पहचानो।
*गऊ बिणासो काहे तानी राम रजा क्यूं दीन्हीं दानी कान्ह चराई रंण वे वानी*
तुम बिना समझे, गायों को क्यों मार रहे हो? अरे!अगर गाय यदि वध्य होती तो राम ने उसे क्यों तो बनाया और क्यों ऋषियों को दान में दिया ?और क्यों कृष्ण मुरारी बांसुरी बजाते हुए उन्हें वनों में चलाते?
*निरगुन रूप हमें पतियांनी थल शिर रहा अगोचर वांणी*
हैं योगी! है काजी !परमात्मा के निर्गुण रूप पर हमें पूर्ण विश्वास है। हम उस रूप को पहचानते हैं। वह निर्गुण ब्रह्म,प्राणी मात्र में चेतना रूप में समाहित है। इस समराथल धोरे पर हमारे जिस रूप को तुम देख रहे हो, यह उसी निर्गुण ब्रह्मा का साकार रूप है। जिसका वर्णन करना,वाणी की शक्ति और सीमा से परे है।
ध्याय रे मुंडिया पर दानी
हे योगी!तुम निरंतर उस परम दानी, परमात्मा का ध्यान करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है।
फिटा रे अण होता तांनी अलख लेखों लेसी जांनी
हे काजी! तुम कितने बेशर्म होकर गायों को मारने जैसा अनहोना , अकरणीय कार्य कर रहे हो !तुम इस बात को अच्छी तरह से जान लो कि मरने के बाद अल्लाह तुमसे तुम्हारे एक -एक कार्य का हिसाब पूछेंगे। तुम अभी से शुभ कर्म करना प्रारंभ कर दो, ताकि अंत में तुम्हें पछताना न पड़े।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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*जाम्भाणी शब्दार्थ*
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