शब्द 42 ओ३म् आयासां काहे काजै खेह भकरूडो ।

ओ३म् आयासां काहे काजै खेह भकरूडो । सेवो भूत मसांणी ।।
घडै ऊंधै बरसत बहु मेहा । तिहिंमा कृष्ण चरित बिन पडयो न पडसी पाणी ।।
भावार्थ:- हे आयस योगी! इस शरीर पर राख की विभूति किस लिए लगाई है। इसमें तो यह तेजोमय काया धूमिल हुई है जैसा परमात्मा ने रूप रंग दिया है उसे तूने क्यों छिपाया है और श्मशानों में बैठकर भूत-प्रेतों की सेवा करते हो तो इस खेह से शरीर भकरूडो करने से क्या लाभ है। यह अंतःकरण जो ज्ञान को ग्रहण करके भरने वाला था, इसको तो उल्टा कर रखा है अब बताओ ज्ञान यहां कहां ठहरेगा? जिस प्रकार से उल्टे घड़े में पानी नहीं भरता चाहे कितनी भी वर्षा हो। किंतु कृष्ण की दिव्य लीला ज्ञान तथा असीम कृपा हो तो तुम्हारे उल्टे हृदय में ज्ञान ठहर सकता है अन्यथा नहीं इसलिए इन बाह्य दिखावे को छोड़कर कृष्ण की अपार महिमा कृपा प्राप्ति का वेतन करो।
योगी जगम नाथ दिगम्बर । सन्यासी ब्राह्मण ब्रम्हचारी ।।
मन हठ पढिया पंडित । काजी मुल्लां खेलै आपद वारी ।।
हे आयस! इस समय तुम अकेले ही भटके हुए नहीं हो, तुम्हारे अलावा अन्य भी जैसे योगी, जंगम यानी चलता-फिरता सन्यासी समाज, नंगे रहने वाले दिगंबरी, सन्यासी, मठ धारी एवं परिव्राजक, ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य व्रत धारी, अपने आप ही मन हठ पढ़े हुए मनहटी किंतु पढ़े लिखे पंडित तथा काजी मूल्ला ये सभी मन मुखी होकर अपने अभिमान में रचे हुए इसी प्रकार का खेल खेल रहे हैं। इनके लिए तो यह खेल ही है इसमें रस ले रहे हैं किंतु दुनिया को तो तबाह कर रहे हैं। इनका यह पाखंडवाद कब तक चलेगा।
निश्चै कायो बायों होयसै । जे गुरू बिन खेल पसारी ।। ४२ ।।
निश्चित ही यह भेद खुलेगा और दूध का दूध और पानी का पानी यह निर्णय हो जाएगा। यदि गुरु के बिना मन मुखी होकर ये लोग इस प्रकार का पाखंड करेंगे, लोगों को ठगने का खेल खेलते रहेंगे तो यह काया सदा ही स्थिर रहने वाली नहीं है। आगे पहुंचने पर अपने कर्म अनुसार निश्चित ही फल भोगना पड़ेगा।
“दोहा”
जोगी कहै देवजी। हमारा जोग अपार।।
जोग निधी हमने लई। यांका सुणों विचार।।
फिर लोहा पागल कहने लगा कि हे देवजी! हमारा अपार योग हैं हम ऐसे वैसे नाम मात्र के योगी नहीं है। इस मेरी मंडली में तो मुझे तो सिद्धि प्राप्त हो चुकी है। अन्य लोग भी प्राप्त करने मैं तत्पर हैं।

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Mahendra Kumar Bishnoi

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Sanjeev Moga
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