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: शब्द २ ::
ओउम मोरे छायान माया लोह न मांसु । रक्तुं न धातुं । मोरे माई न बापुं । रोही न रांपु । को न कलापुं । दुख; न सरापुं । लोंई अलोई । तयुंह त्रुलाइ । ऐसा न कोई । जपां भी सोई।
जिहीं जपे आवागवण न होई । मोरी आद न जाणत । महियल धुं वा बखाणत । उरखडा- कले तॄसुलुं । आद अनाद तो हम रचीलो, हमे सिरजीलो सैकोण । म्हे जोगी कै भोगी कै अल्प अहारी । ज्ञानी कै ध्यानी, कै निज कर्म धारी । सौषी कै पोषी । कैजल बिंबधारी, दया धर्म थापले निज बाला ब्रह्मचारी ।। २।।
भावार्थ: प्राय सभी सांसारिक जीव माया की छाया में ही रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं| इसलिए उनको सत्य-असत्य का विवेक नहीं हो पाता|किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं -हे उधरण !मेरे इस शुद्ध रूप में ना तो माया हैं और न ही माया की अज्ञान रूपी छाया हैं,अर्थात अन्य लोगों की तरह मैं मायाच्छादित नहीं हूं|इस शुद्ध स्वरूप चैतन्य आत्मा में पंच भौतिक शरीर की भांति लोहा, मांस, रक्त और धातु नहीं हैं| इस निर्गुण निराकार सच्चिदानंद आत्मा के न तो कोई माता हैं और न ही पिता हैं | यहाँ पर अयात्मा ब्रह्म के अनुसार आत्मा-परमात्मा दोनों का अभेद प्रतिपादन किया गया हैं |
मैं स्वयं अपने आप में ही स्थित हूं अर्थात अपने जीवन यापन के लिए किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता मुझे नहीं हैं |वन्य जीवन की भांति अव्यवस्थाओं से भरा हुआ मेरा जीवन नहीं हैं | दुर्गुणों से दुर होकर शुद्ध सात्विक हो चुका हूं इसलिए किसी भी प्रकार का क्रोध ,मोह आदि मेरे यहाँ नहीं हैं तथा जब क्रोध ही नहीं हैं तो दुख भी नहीं हैं और दुख न होने से मैं किसी को शाप भी नहीं दे सकता| किन्तु आशीर्वाद दे सकता हूं|
उधरण ने पूछा हे देव! जब आप स्वयं ही ब्रह्म स्वरूप हैं तो जप तप किसका करते हैं ? गुरु जम्भेश्वर जी ने कहा- यह बात तुम्हारी ठीक हैं किन्तु जड़, चेतन मय तीनों लोकों में कहीं भी उस चेतन शक्ति से खाली नहीं हैं ,वह सर्वत्र व्याप्त हैं ,उसी व्यापक स्वरूप परमात्मा का भजन हो रहा हैं |
परमेश्वर का भजन करने से जन्म-मृत्यु का चक्र छूट जाता हैं क्योंकि जैसी उपासना करता हैं ,वह उपासक भी वैसा ही हो जाता हैं| अमरत्व की साधना करने वाला अमर पद प्राप्त कर लेता हैं
हे उधरण !मेरे शुद्ध स्वरूप परमात्मा की आदि कोई ऩहीं जानता क्योंकि जब वह आदि स्वरूप में स्थित था तब तो सृष्टि की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी, तब इस सृष्टि का मानव परमात्मा के प्रथम स्वरूप को कैसे जान सकेगा ?किन्तु अनुमान के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता हैं ,जैसे पर्वत पर धुआं देख कर अग्नि का अनुमान लगाते हैं | उसी प्रकार कार्य रूप जगत को देख कर कारण स्वरूप परमात्मा का अनुमान मात्र ही होता हैं | उसे प्रत्यक्ष कदापि नहीं कर सकते हैं |
हे उधरण !दैहिक, दैविक और भौतिक ये तीन प्रकार के ताप जो सदा सुल की तरह ऊपर ऊठे हुए चुभते रहते हैं ,इनको ढकने का प्रयत्न कर ,यहीं इस समय कर्तव्य हैं | व्यर्थ के वाद विवाद में पड़ कर समय बर्बाद मत कर|
यह वर्तमान था, इससे पूर्व सृष्टि की रचना तो परमात्मा स्वरूप मैंने ही की हैं ,तब प्रश्न उठता हैं कि परमात्मा की रचना करने वाला भी तो कोई होगा? यदि यहाँ पर कार्य कारण भाव की कल्पना करने हैं तो अनावस्था दोष आता हैं इसलिए जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हमारी सृजना करने वाला कोई भी नहीं हैं ,यदि होता तो उसका भी कर्ता कोई और होगा तथा उसका भी कोई और होगा, यही अनावस्था दोष हैं |
हमारे जैसे अवतारी पुरुष योगी हैं या भोगी अथवा थोडा आहार करने वाले हैं ,या हम ज्ञानी हैं अथवा ध्यान करने वाले ध्यानी या स्वकीय कर्तव्य कर्म का पालन करने वाले हैं|
हम आप किसी का शोषण करने वाले हैं या जल में प्रतिबिम्ब रूप हैं या स्वयं सूर्य सदृश बिम्ब रूप हैं | हे उधरण ! मैं क्या हूँ इसकी चिंता तुम छोड़ो | परमात्मा अवतार धारण किस रूप में करते हैं इसका कोई निश्चय नहीं हैं उपयुर्कत बताएं हुए गुणों में वह किसी भी रूप में हो सकता हैं | किन्तु यहाँ पर तुम मुझे दया धर्म की स्थापना करने वाले बाल ब्रह्रचारी रूप में ही समझो|
साभार : जम्भसागर
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