शब्द नं 99

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साच सही म्हे कूड न कहिबा
पूर्व प्रसंग में कहे हुए शब्द को सुनकर जमाती लोगों ने कहा कि इस प्रकार की रहस्य भरी योग की बातें वे क्या जाने तथा उन्होंने गुरु जंभेश्वर महाराज से दान देने के विषय में भी जानना चाहा। गुरु महाराज ने दान दाताओं द्वारा सांसारिक बडाई के लिए दिए गये दान को व्यर्थ बताया तथा हरि हित के लिए दिये गये दान का महत्व प्रतिपादित किया एवं यह शब्द कहा:-
साथ सही म्हे कुड़ न कहबा नेड़ा था पण दूर न रहीबा

हे जिज्ञासु जन!मैं सत्य व सही बातें कहता हूं मिथ्या भाषण नहीं करता हूं, परमतत्व रूप में मैं प्रत्येक प्राणी में हूं,उनके ह्रदय में वास करते हैं। प्रत्येक जीव में परमतत्व का वास है।हम घट घट वासी हैं ।

सदा सन्तोषी सत उपकरण म्हे तजिया मान भी मानूं

जिसने सत्य को पहचान लिया। वह नित्य संतोषी रह कर अपना जीवन जीता है।सत्य परम तत्व परमात्मा का गुण है।सत्य ही ईश्वर है और जिसने उसे जान लिया, उसका माया जनित असंतोष खत्म हो गया। हम मान अभिमान की सामान्य मनोवृतियो से मुक्त हैं।
बस कर पवणा बसकर पाणी बसकर हाट पटण दरवाजो दशे दवारे ताला जडिया जो ऐसा उसताजो

हे प्राणी!जिसने प्राणायाम द्वारा अपनी प्राणवायु को वश में करते हुए कुंडलीन जागृत कर सहस्त्रारदल कमल से झरने वाले अमृत जल को अपने नियंत्रण में कर लिया है और अपने इस शरीर रूपी बाजार के इंद्रियों रूपी दसों दरवाजों को अंतर्मुखी बनाकर बंद कर लिया है अर्थात जिसने इंद्रियों के दसों द्वार पर अपने मानसिक संयम का ताला लगा लिया है,वही सच्चा गुरु तथा सच्चा योगी है।

दसे दवारे ताला कुंची भीतर पोल बणाई

जो समस्त इंद्रियों को वशीभूत बनाकर उनके ताला कूँची अपने दसवें द्वार सहस्त्रार में स्थित आत्मा के नियंत्रण में रखता है,वह आत्म तत्व ही सच्चा गुरु है।वह शरीर रूपी नगरी के बाहरी द्वार, इंद्रियों को बंद कर भीतर शून्य मंडल रूपी महल में निवास करता है तथा दसों द्वारों के ताला कूँची का रखवाला मन नित्य जिसके वश में रहकर उसकी सेवा करता है।

जो आराध्यों राव युधिष्ठिर सो आराधो रे भाई

अतः हे संत जनों! जिस परम तत्व परमात्मा की अराधना राजा युधिष्ठिर ने की, तुम भी उसी भगवान विष्णु की आराधना करो। क्योंकि ऐसा आत्मलीन योगी ही सच्चा गुरु होने योग्य है।

जिहिं गुरू के झुरे न झुरबा खिरै न खिरणा

जिसने प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं की साधना द्वारा कुंडलिनी को जागृत करके, ब्रह्मरंध्र से नित्य टपकने वाले अमृत जल का स्वयं पान करना सीख लिया है।उसका सहस्त्रार दल से बहने वाला अमृत जल का झरना,आज्ञा चक्र से नीचे,शरीर में झरकर व्यर्थ नहीं जाता,बल्कि उस अमृत का पान शून्य मंडल का स्वामी वही कर लेता है।

बंक तिरबंके नाल पै नालै नैणे नीर न झुरबा

सामान्य व्यक्ति के ब्रह्मरन्ध्र से झरने वाला वह अमृत,शरीर में आकर नाभि स्थित सूर्य की किरणों एवं मूलाधार स्थित कुंडलिनी शक्ति द्वारा सोख लिया जाता है। परंतु जिस योगी ने ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ीयों को त्रिकुटी आज्ञा चक्र में मिलाकर, नियंत्रित कर लिया है,वहीं मन का राजा है।सहस्त्रार से बहने वाले अमृत का परनाला,उसकी त्रिकुटी से नीचे बह कर व्यर्थ में क्षरित नहीं होता।ऐसा योगी पुरुष निरंतर अमृत का पान करता हुआ,अपने ब्रह्मनंद में लीन रहता है।वह कभी दुखी हो कर अपनी आंखों से आँसू नहीं बहाता।

बिन पुल बंध्या बाणो तज्या अलिंगण तोड़ी माया तन लोचन गुण बाणो

ऐसा सच्चा योगी अपनी साधना द्वारा तन और मन को नियंत्रित कर बिना किसी पुल के ब्रह्मान्ध्र से बहने वाले अमृत-जल का बहना रोक लेता है। जिस योगी ने सांसारिक लालसाओं को त्याग दिया, माया के बंधनों को तोड़ दिया, वह इन शारीरिक नेत्रों के आकर्षण जनित गुणों को भी त्याग देता है।

हालीलो भल पालीलो सिध पालीलो खेड़त सुना राणों

वह सद्गुरु सच्चा योगी, शून्य मंडल रूपी गांव का राजा है,जो अपने मन रूपी चाकर से अपनी आज्ञाओं का भली-भांति पालन करवाता रहता है।अतः ऐसे शून्य मंडल के सिद्ध योगी को आज्ञाओं का पालन करना अन्यों के लिए भी कल्याणकारी है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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