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*काया कोट पवन कुटवाली*
एक समय की बात है, एक वेद पाठी-योगी गुरु जंभेश्वर के पास समराथल आया। उसने जब गुरु महाराज के क्रिया- कलाप देखे,तब वह यह जानकर बड़ा प्रभावित हुआ कि बिना वेद शास्त्र पढ़े,कोई कैसे ऐसी विवेक पूर्ण बातें बतला सकता है। उस योगी ने जब जांभोजी से इन बातों का रहस्य जानना चाहा, तब गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-
*काया कोट पवंण कुट वाली कुकरम* *कुलफ बणायौ*
हे जिज्ञासु जोगी! यह मानव शरीर एक गढ है। पंच प्राण वायु इसके किलेदार, पहरेदारी करने वाले रक्षक है। इस जीव द्वारा किए हुए बुरे कर्मों का इस पर ताला जड़ा हुआ है।
*माया जाल भरम का संकल बहु जग* *रहियौ छायौं*
सांसारिक माया मोह रूपी भ्रम की सांकल से यह बंधा हुआ है। यह जीव इस मोह के भ्रम जाल में बंधा हुआ, युगों-युगों से भटक रहा है। यह आत्मा,जो सदा ही मुक्त है, मोह के जाल में फंसकर इसने अपने आप को भुला दिया हैं। यह भ्रम और अज्ञानता का आवरण समस्त संसार में छाया हुआ है।
*पढ़ वेद कुराण कुमाया जालूं दंत कथा* *जूग छायौ*
बिना समझे वेद-शास्त्रों एवं कुरान को पढ़ कर तो लोग और ज्यादा माया के जाल में फंस गए हैं। बिना समझे शास्त्रों का ज्ञान भी भार स्वरूप बन जाता है।यह संसार अनेक प्रकार के दंत कथाओं से भरा पड़ा है।इन दंत कथाओं को पढने- सुनने से कुछ होने वाला नहीं है।
*सिध साधक को एक मतो जिन जीवत* *मुगत दिठायौ*
अपनी साधना द्वारा आत्म-ज्ञान की सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध बने योगी तथा आत्मा-परमात्मा के मिलने की साधना करने वाले साधक, इन दोनों का यह पक्का विश्वास है कि जीव इस मानव शरीर में रहते हुए ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
*जुंगा जुंगा को जोगी आयो सतगुरू* *सीध बतायौ*
हमारी बात छोड़ो,हम तो युगों युगों के योगी है।हमें वेद शास्त्र पढ़ने एवं साधना करने की आवश्यकता नहीं है। हम यहाँ इस मरू प्रदेश में लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाने के लिए आये हैं।
*सहज सिनानी केवल ग्यांनी ब्रह्मग्यांनी* *सुकरत अहल्यौ न जाई*
हम सहज रूप में स्नानी है,पवित्र है। हम केवल्य ज्ञानवस्था को प्राप्त स्वयं सिद्ध योगी हैं। हम ब्रह्मज्ञानी है तथा सब को यह ज्ञान देते हैं कि इस मानव शरीर द्वारा किए हुए शुभ कर्मों का फल प्राणी को अवश्य प्राप्त होता है। किए हुए अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते।
*क्युं क्यूं भणंता क्यूं क्यूं सूणता समझ* *बिना कुछ सिधि न* *पाई*
हे योगी!तू क्यों बार-बार कहता और क्यों ही बार बार सुनता है तथा पढ़ता है।केवल पढ़ने,सुनने, कहने से कुछ भी नहीं होगा,यदि सफलता चाहता है तो जैसा पढता है,कहता है,सुनता है वैसा ही समझ उसको जीवन में धारण करके वैसा ही जीवन बनायेगा, तभी सिद्धि मिलेंगी।बिना समझे केवल बार-बार वेद शास्त्रों के पठन एवं श्रवण से कोई सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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*जाम्भाणी शब्दार्थ*
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