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हालिलो-भल पालिलो
पूर्व शब्द के प्रसंगानुसार जब श्री जंभेश्वर महाराज ने सतगुरु की शरण में जाने और आत्म साक्षात्कार करने संबंधी शब्द कहा तब उसी वैरागी साधु ने गुरु महाराज से प्रार्थना की कि वे उसे कोई योग साधना बतलावें, जिससे उसका अन्तःकरण शुद्ध बने, धर्म की प्राप्ति हो और साथ ही धन की भी प्राप्ति, क्योंकि धन के बिना इस संसार में कोई सुखी नहीं हो सकता।उस साधु द्वारा योग,धर्म एवं धन तीनों एक साथ प्राप्त करने की इच्छा जान, गुरु महाराज ने बतलाया कि दुविधा में न तो जीवन की युक्ति मिलेगी और न मुक्ति। तब वह साधू क्रोधित हो, वापिस चला गया। वहाँ से फिर सारी मंडली समराथल पर आई। उस जमात के सम्मुख गुरु महाराज ने यह जीवित को युक्ति और मरने पर मुक्ति देने वाला शब्द कहां:-
हालीलो भल पालीलो सिध पालीलो खेड़त सुना राणों
हे जिज्ञासुजन!तुम एक अच्छे जागरूक किसान की भाँति अपने जीवन रूपी खेत में शुभ कर्म रूप बीजों की बुवाई करो। एक चतुर कृषक की तरह इंद्रियों के विषय रूपी कीट-पतंगों एवं पशु पक्षियों से उन शुभ कर्मों की खेती सावधानी से रखवाली करते रहो। तुम जानते हो कि बिना स्वामी और रखवाले के खेत की फसल की क्या दुर्गति होती है।
चन्द सुर दोय बैल रचीलो गंग जमन दोय रासी
हे भक्त जनों!तुम योग साधना के बारे में जानना चाहते हो तो सुनो! योग साधना एक तरह से खेती करने के समान है, जिसमें सहस्त्रार-दल कमल में रहने वाला चंद्रमा और मूलाधार चक्र में स्थित सूर्य ये दो बैल है।गंगा-जमना तथा इंडा-पिंगला रूपी दो नाडियाँ,उन चन्द-सूर रूपी बैलों की दो रस्सियाँ है।
सत संतोष दोय बीज बीजालो खेड़ी खड़ी अकासी
इस प्रकार चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी द्वारा मूलाधार स्थित सूर्य और सहस्त्रार स्थित चन्द्रमा रूपी दो बैलो को जोत कर अपने इस शरीर रूपी खेत में सत्य और संतोष रूपी दो प्रकार के बीज बोकर इस खेती को सिद्ध करो। इस प्रकार तुम जो सद्गुणों की खेती करो तो तुम्हारी वह फसल धरती और आकाश के बीच लहलहायेगी अर्थात मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक तक सातों चक्रों में से होते हुए तुम्हें अमृत फल की प्राप्ति होगी।
चेतन रावल पहरे बैठा मिरगा खेती चर नहीं जाई
इस योग साधना रूपी खेती को कहीं इंद्रियों का लालसा रूपी मृग खा कर उजाड़ न दें,बरबाद न कर दें,इसके लिए अपनी चेतना के स्वामी विवेक (मन) को रखवाली करनी होगी।साधना और प्राप्त सीद्धियों की चेतना एवं विवेक द्वारा निरंतर रक्षा करते रहना दोनों आवश्यक है।
गुरू प्रसाद केवल ज्ञाने ब्रह्म ज्ञाने सहज सिनाने यह घर ऋध सिद्ध पाई
योग साधना का कार्य केवल श्रम साध्य नहीं है योग में सफलता कृपा साध्य है।सद्गुरु की कृपा होने पर ही केवल्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। गुरु कृपा से ही ब्रह्म ज्ञान होता है तथा सच्चा गुरु और उनकी दया से साधक इस शरीर में सहज रूप में संयमशील जीवन जीते हुए रिद्धि-सिद्धि प्राप्त कर सकता है।युक्ति-मुक्ति दोनों पा सकता है।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ
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