शब्द नंबर 28 मच्छी मच्छ फिरै जल भीतर

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मच्छी मच्छ फिरै जल भीतर

शेख मनोहर ने जाम्भोजी से पूछा कि -आप मुरीद,पीर,गुरु और देव इनमें से क्या है?क्या आत्मा को जीव कहना अनुचित है? शेख की जिज्ञासा जान गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-
ओउम मच्छी मच्छ फ़िरै जल भीतर तिहि का मांघ न जोयबा

हे शेख!मछलियाँ मगरमच्छ पानी में तैरते रहते हैं,परंतु उनके विचरण करने का कोई तय रास्ता नहीं होता। वे सब कहीं इधर-उधर घूमते रहते हैं।

परमतत्व है ऐसा आछे उरबार न ताछै पारू

इसी प्रकार परम तत्व सर्वत्र व्याप्त है। उसका कोई आर-पार नहीं है।जो कोई साधक ह्रदय द्वार से अंदर प्रवेश करता है,वही उसका पार पा सकता है।

ओवड़ छेवड़ कोई न थियो तिहि का अंत लहिबा कैसा

उस परम तत्व का कोई ओर- छोर नहीं है,वह सीमान हैं।उसे कोई सीमा में कैसे बाँध सकता है? उसका पार कोई नहीं पा सकता।

ऐसा लो भल ऐसा लो भल कहो न गहीरु

अपने-अपने अनुभव के आधार पर कोई कहता है कि वह ऐसा है, कोई कहता है ऐसा नहीं,वैसा है। परंतु वास्तव में उस गहन परम तत्व का न कोई रूप है न ही उसका कोई आकार प्रकार है ।

परमतत्व के रूप न रेखा लीक न लेहू खोज न खेहू

जब उसकी कोई रूप-रेखा ही नहीं।तब उसके चरण चिन्ह और मार्ग की धूल की बात करना ही व्यर्थ है।वह रंग-रूप,आकार प्रकार से रहित अति सूक्ष्म हैं।

वरण विवरजत भावे खोजो बावन वीरू

यदि कोई उस परमेश्वर को बावन वीर-बैतालो की शक्ति लगाकर भी ढूँढे,तो भी नहीं पा सकता।

मीन का पथ मीन ही जाणे नीर सुरगम रहियूं

जिस प्रकार मछली का मार्ग मछली ही जान सकती है।वह जिस तरह बड़े आराम से पानी की अतल गहरी गुफाओं में विचरण करती है, उसी प्रकार परम तत्व को कोई तत्वदर्शी ही जान सकता है ।

सीध का पथ कोई साधु जाणत बीजा बरतण बहियों

सिद्धि का मार्ग तो कोई बिरला साधना में लीन, साधक ही जान सकता हैं।अन्य लोग तो लौकिक व्यवहार में लगे,केवल उसकी बातें भर कर सकते हैं।परम तत्व कहने- सुनने का नहीं,अनुभूति एंव अनुभव का विषय है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ

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Sanjeev Moga
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