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ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं।
भावार्थ- यदि तुम्हें भवसागर से पार होना है तो सर्वप्रथम तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि उतम संगति करना। उतम पुरूष के साथ वार्तालाप करना ही अच्छा संग है और यदि कोई रंग ही अपने उपर चढ़ाना है तो वह भी उतम ही ग्रहण करना अर्थात् यदि अपने जीवन को शुद्ध संस्कृत करना है तो अच्छे संस्कारों को ही धारण करना। संसार से पार लांघना है तो फिर वापिस मृत्यु-जन्म के चक्कर में न आना पड़े। ऐसा उत्तम लोक ही प्राप्त करना। जो भी शुभ कार्य करना हो तो पूर्णता से करना। अधूरा किया हुआ कर्तव्य बीच में ही लटका देता है।
उतम ढ़ंग सूं ढ़ंगूं, उतम जंग सूं जंगूं, तातै सहज सुलीलूं। सहज सुं पंथूं, मरतक मोक्ष दवारूं।
जीवन जीने का ढ़ंग भी यदि उत्तम शालीनता से हो तो वही जीना है। यदि तुम्हें युद्ध ही करना है अर्थात् मन इन्द्रिय बलवान शत्रु है इन्हें जीतना ही उत्तम जंग है इससे तुम्हारे जीवन में सहज ही सुलीला का अवतरण होगा, यानि तुम्हारा जीवन आनन्दमय हो जायेगा। यही सहज सुमार्ग है। इसी मार्ग पर चलने से मृत्यु काल में मोक्ष की प्राप्ति होगी।
साभार – जंभसागर
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