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ओ३म् लोहा लंग लुहारूं, ठाठा घड़ै ठठारूं, उतम कर्म कुम्हारूं।
भावार्थ – धरती एक तत्व रूप से विद्यमान है इसी धरती का अंश लोहा, पीतल, चांदी तथा कंकर पत्थर है इसी धरती रूप लोहे को लेकर लुहार उसे तपाकर के घण की चोट से घड़कर लोहे के अस्त्र शस्त्र औजार बना देता है। लोहा एक था औजार आदि अनेक हो जाते हैं उसी प्रकार से ठठेरा उसे धरती का अंश रूप पीतल लेता है उसे कूट-पीट तपा करके अनेकानेक बर्तन बना देता है तथा कुम्हार भी उसी धरती का अंश मिट्टी लेता है उसे जल के संयोग से तरल करके अनेकानेक घड़े-मटके आदि बना देता है। ये सभी उतम सृष्टि की रचना कर रहे है। जिस प्रकार से लोहा पीतल और मिट्टी ये तीनों मूल रूप से एक ही धरती से प्राप्त हैं तथा लुहार, ठठेरा, कुम्हार ने इसी धरती से उत्पित वस्तुओं का अलग अलग अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, मटका आदि नामकरण कर दिया। उसी प्रकार से इस विस्तृत सृष्टि के मूल रूप में तो एक, अज, अनामय, निर्विकार, ईश , ब्रह्म एक ही है। इसी ब्रह्म की माया देश काल द्वारा इस भिन्न भिन्न नाम रूप से संसार में विस्तार हुआ है तथा जिस तरह से विस्तार हुआ है प्रलय अवस्था में उसी प्रकार से लीन हो जायेगा जैसे घट शस्त्र बर्तन का होता है। ,,
जइयां गुरु न चीन्हों, तइयां सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
जब तक गुरु को नहीं पहचानेगा तब तक इन गूढ़ रहस्य को नहीं जान पायेगा। विना गूढ़ रहस्य जाने मूल रूप परमेश्वर तक नहीं पहुंच सकेगा। केवल स्थूल रूप डाल पतों को पानी देने से कोई लाभ नहीं है अर्थात् कल्पित देवों की खोज सेवा में कुछ भी लाभ नहीं है।
साभार – जंभसागर
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