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ओ३म् बल बल भणत व्यासूं, नाना अगम न आसूं, नाना उदक उदासूं।
भावार्थ- वेद में जो बात कही है वह सभी कुछ व्यवहार से सत्य सिद्ध नहीं होते हुए भी उस समय जब कथन हुआ था तब तो सत्य ही थी तथा वे मेरे शब्द इस समय देश काल परिस्थिति के अनुसार कलयुगी जीवों के लिये कथन किये जा रहे हैं। इसलिये इस समय तुम्हारे लिये वेद ही है। वैसे तो व्यास लोग गद्दी पर बैठकर बार बार वेद का कथन करते हैं वे लोग अन्तिम प्रमाण वेद को ही स्वीकार करते हैं। कहते हुए भी कथनानुसार जीवन को नहीं बनाते। बात तो वेद की, त्याग, तपस्या की करते हैं। किन्तु आशा तो संसार की ही रहती है। फिर उस कथन से क्या लाभ। स्वयं व्यास ही नाना प्रकार की उदक प्रतिज्ञा को तोड़ देते हैं फिर सामान्य जनों की क्या दशा होगी। गुरुदेवजी कहते हैं कि मेरा ऐसा विचार नहीं है, कथनी और करनी एक ही है। अतः मेरा कथन वेद ही है। इसलिये मेरे यहां सदा ही आनन्द रहता है और व्यासों के यहां तो सदा उदासीनता ही छायी रहती है।
बल बल भई निरासूं, गल में पड़ी परासूं, जां जां गुरु न चीन्हों। तइया सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
कथनी और करनी में अन्तर होने से उन्हें बार बार मानव शरीर मिलने का भी निराश-विफल होगा पड़ता है। इस जीवन की बाजी को हारना पड़ता है और उनके गले में बार बार यमदूतों की फांसी पड़ती है जब तक गुरु की शरण ग्रहण करके उनके सत वाक्य ग्रहण करके कथनी-करणी में एकता स्थापित नहीं करेगा तब तक वह मूल को पानी नहीं दे रहा है। डालियों पतों को ही पानी पिला रहा है तथा कुछ कुछ लोग तो स्थूल बातें बोल कर ही अपना कार्य कर लेते है। वे तो वेद, शास्त्र सतगुरु की वाणी जानते भी नहीं है। फिर भी अपने को व्यास या पण्डित कहते हैं।
साभार – जंभसागर
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