शब्द – 19 ओ३म् रूप अरूप रमूं पिण्डे ब्रह्मण्डे, घट घट अघट रहायो।

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ओ३म् रूप अरूप रमूं पिण्डे ब्रह्मण्डे, घट घट अघट रहायो।

भावार्थ- रूपवान अरूपवान प्रत्येक शरीर तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मैं ब्रह्म रूप से रमण करता हूं। दृष्ट रूप कण कण मे तथा अदृष्ट रूप कण कण में मैं सर्वत्र तिल में तेल, फूल में सुगन्ध्धी की तरह हर जगह प्रत्येक समय में समाया हुआ हूं। इसलिये सर्व व्यापकत्व परमात्मा स्वतः ही सिद्ध होता है।

अनन्त जुगां में अमर भणीजूं, ना मेरे पिता न मायो।
मैं देश तथा काल से भी परे हूं, अनन्त युग बीत जाने पर भी मैं अमर ही रहता हूं ऐसा शास्त्र वेद आदि भी कहते हैं। मेरे माता-पिता भी कोई नहीं है। यदि मेरा जन्म होता तो मृत्यु भी धुव्र थी इसलिए जन्म-मरण रहित अजन्मा आदि-अनादि का योगी हूं।

ना मेरे माया न छाया, रूप न रेखा, बाहर भीतर अगम अलेखा। लेखा एक निरंजन लेसी, जहां चीन्हों तहां पायो।
न ही मुझ पर अन्य लोगों की भांति माया का प्रभाव है और न ही माया की छाया से मैं आवृत ही हुआ हूं, न ही मेरे कोई रूप ही है और न ही किसी प्रकार की आकृति ही है। मैं बाहर-भीतर , गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों में सदा एक रस ही रहता हूं। वह चेतन ज्योति की सत्ता अलेखनीय होते हुए भी अनुभवगम्य अवश्य ही होती है। माया रहित होकर उसका पार पाया जा सकता है, जाना जा सकता है। इसको जानने के लिये कहीं भी देश घर छोड़कर जाने की आवश्यकता नहीं है। जहां पर भी आप प्रेम पूर्वक एकाग्र मन से ध्ध्यान करोगे, वहीं पर प्राप्त हो जायेगा। ,,

अड़सठ तीर्थ हिरदा भीतर, कोई कोई गुरु मुख बिरला न्हायो।
यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहता है कि अड़सठ तीर्थों में जाने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है तो यह बात पूर्णतया सत्य नहीं कही जा सकती।यदि आप लोग सहज रूप से ही प्राप्त परम तत्व की हृदय में खोज करोगे तो अड़सठ तीर्थ हृदय के भीतर ही है। भीतर वाले तीर्थों की अवहेलना करके बाह्य तीर्थों में भटकोगे तो कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। सर्व साध्धारण जन के लिये तो बाह्य गंगादि अवश्य ही है। किन्तु भीतर के परमानन्द दायक तीर्थों में स्नान तो कोई-कोई गुरुमुखी सुगरा विरला ही करता है। अन्दर के तीर्थों का स्नान तो सर्वश्रेष्ठ है और बाह्य तीर्थों का स्नान मध्ध्यम श्रेणी का है और जो दोनों से वंचित है वह तो कनिष्ठ श्रेणी का ही कहा जायेगा।
साभार – जंभसागर

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Sanjeev Moga
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