सुगरा-नुगरा

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अनादि काल से गुरु प्रथा चली आ रही है।परंतु हम बहुत ज्यादा परम्परावादी व अंधविश्वासी बन गये है अतः इस प्रथा का दुरुपयोग भी बहुत होता आया है।विभिन्न सम्प्रदायों में गुरु धारण करने की प्रथा है इसमें जनता को इतना भयभीत किया जाता है कि गुरु धारण किये बिना यह मानव जीवन व्यर्थ है।अतः पाखंडी,धुर्त, दंभी,दुराचारी,भोगी मनुष्य भी स्वार्थ सिद्धि के लिए गुरु गद्दी पर बैठ जाते हैं और लोगो को पतन की और ले जाते हैं।वे खुद तो डूबते ही है औरों को भी डुबोते है।वे लोग को गुप्त मन्त्र देकर कहते हैं किसी को बताना मत।
परंतु श्री गुरु जाम्भोजी ने बिश्नोई पंथ में अपनी सबदवाणी के माध्यम से इस प्रथा का कड़ा विरोध किया है क्योंकि हमारे समाज में धर्म प्रचारकों द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि गुरु धारण किये बिना तो तुम्हारा समस्त भावी जीवन व्यर्थ है अतःवे 10- 12 साल के बच्चे या बच्ची को गुरु धारने का पुरजोर समर्थन करते हैं। इसके बदले में दान दक्षिणा, दातं घसाई, पग फेरा अन्य सुविधाओं की कामना करते हैं कई बार कुछ लोग तो बचपन में किसी कारणवश सुगरा होने से वंचित रह जाते हैं तथा 50 साल की अवस्था में पहुंच जाते हैं फिर भी उन्हें सुगरा करने का प्रयास किया जाता है। परंतु जाम्भाणी दर्शन में यही परंपरा है कि बच्चे के जन्म के 30 दिन बाद उसे पाहल देकर बिश्नोई बना दिया जाता है और उसके गुरु जांभोजी हो जाते हैं भौतिक रूप से तो माता-पिता, शिक्षक, कोई हुनर सिखाने वाले सभी भौतिक रूप से गुरु होते हैं जिन्हें धारण नहीं किया जाता है। यह तो सीखने सिखाने की एक व्यवहारिक सामाजिक प्रक्रिया है। जो सदैव चलती रहती है। बिश्नोई संत कवि केसौ जी गोदारा एक साथी में सुगरा-नुगरा की पहचान के बारे में कहते हैं कि.
आम फले नीचों नीवें, एरण्ड ऊंचो जाय
नुगर-सुगर की पारखा कह केसौ समझाय

इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति नम्र एव शीलवान है सुगरा अर्थात गुणवान है तथा जो हठी,गुणहीन एवं ईश्वर विमुख है वह नुगरा है। इस संबंध में कहा भी गया है..
जे तू चेला देह का देह खेह कि खान
जे तू चेला सबद का सबद ब्रह्मा कर जान

अर्थात किसी के शरीर का चेला नहीं बनना चाहिए सबद (उपदेशों) का ही चेला बनना चाहिए।
श्रीगुरु जांभोजी ने अपनी वाणी में स्वविवेक एवं आत्मज्ञान को ही गुरु माना है। सबदवाणी के अनुसार वे कहते हैं कि.
निज पोह खोज पिराणी मोक्ष एवं मुक्ति के लिए व्यक्ति को आत्मज्ञान होना बहुत आवश्यक है। गुरु जी कहते हैं
ताके ज्ञान ने ज्योति मोख न मुगति
एक अन्य सबद में गुरुजी कहते हैं.
दिल खोजो दरबेश भइलो तईया मुसलमाणों यानी जो व्यक्ति अपने ह्रदय में परमात्मा की खोज करता है वही सच्चा दरवेश(सेवक) है।
श्री गुरुजाम्भो जी ने अपनी सबदवाणी में अनेको बार गुरु सबद का प्रयोग किया है।जिसका सकेंत केवल परमसत्ता विसन की तरफ जाता है।प्रथम सबद में श्री गुरुजाम्भो जी ने स्पष्ठ रूप से कहा है कि संसार बरतण निज कर थरप्या सो गुरु प्रत्यक्ष जाणी अर्थात सृष्टि को बनाने वाले परमसत्ता(विसन)को ही प्रत्यक्ष रूप से गुरु जानना चाहिए।ऐसा परम् गुरु स्वयं संतोषी होता है एवं सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण करने वाला होता है।श्री गुरुजाम्भो जी ने मोक्ष हेतु केवल एक ही मन्त्र दिया है जो विसन का नाम स्मरण है।इस मंत्र को उन्होंने गुप्त नही रखा है बल्कि हर व्यक्ति को सहजता से विसन जप करने का उपदेश दिया है।इस विसन मन्त्र का अर्थ यह नही है कि कोई विशेष वस्त्रधारी गुरु आये तथा व्यक्ति को यह मंत्र देवे।परंतु यदि कोई सहज,शीलवान,संयमी,सबदवाणी के अनुरूप आचरणकर्ता,संतोष धारण करने वाला,लोभ,मोह,माया, अभिमान,क्रोध,काम रहित एवं महिलाओं से सम्मानजनक दूरी बनाकर रखने वाले तथा धन या संपति संग्रह नही करने वाले किसी सहिल्या गुरु से नाम दीक्षा लेने के स्थान पर शिक्षा या ज्ञान लेने में कोई बुराई नही है।यदि हम विचलित या भयभीत होकर किसी कलयुगी कु-गुरु के चक्कर मे पड़ेंगे तो वह हमें नरक में ही धकेलेगा।
कहे सतगुरु भूल मत जाइयो पड़ोला अभै दोजखे
सन्तो की वाणी में आया है-चौथे पद चिन्हे बिना शिष्य करो मत कोय अर्थात जब तक स्वयं गुरु में अपने शिष्य का उद्वार करने का सामर्थ्य नही हो तब तक शिष्य नही बनाने चाहिए।

पंथ का सस्थापक सिर्फ वही गुरु होता है जो पंथ को बनाता है।

समस्त त्रुटियों के लिए क्षमा याचना🙏🙏

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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