शब्द नं 116

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आयसां मृगछाला पावोडी कायं फिरावो
एक समय बहुत से नाथ योगी मृगीनाथ के नेतृत्व में गुरू जंभेश्वर महाराज के पास समराथल पर उनकी परीक्षा करने आये।मृगीनाथ ने अपने तंत्र- बल के आधार पर मृग छाला और पावोड़ी को ऊपर आकाश में हवा में नचाना आरंभ किया और अभिमान में भरकर कहा कि उसके सम्मान कोई और सिद्धि पुरूष एवं चमत्कारी नहीं है। उसने चुनौती के स्वर में जांभोजी महाराज से कहाकि यदि उनमें कोई शक्ति या चमत्कार हो तो वे सब के सम्मुख दिखलावें।मृगीनाथ की अहंकार भरी वाणी सुन गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-
आयसां मृगशाला पावोड़ी कांय फिरावो मतूंत आयसां उगतो भाण थमाऊं

हे आगंतुक! तुम एक जमात के महंत होकर यह मृग छाला और इस पावोडी को हवा में क्या नचा रहे हो?इस प्रकार के चमत्कार दिखाना क्या तुम्हें शोभा देता है? चमत्कार दिखाना कोई बड़ी बात नहीं है। हम यदि चाहें तो उगते हुए सूरज को उदय होने से रोक सकते हैं। परंतु ऐसा करना हमारी मर्यादा के विरुद्ध है। ऐसे चमत्कार दिखाना न तो योग का उद्देश्य है और न ही किसी योगी को ऐसा पाखंड शोभा देता है।

दोनों परबत मेर उजागर मतूंत अधबिच आन भिडा़ऊ

यदि हम चाहें तो सूमेरु और उदयगिरी दोनों पहाड़ों को इस धरती के बीचो-बीच लाकर आपस में भिडा सकते हैं।

तीन भूवन की राही रूक्मण मतूंत थल सिर आण बसाऊं

हम यदि चाहें तो तीनों की रानी रुक्मणी को इस मरुस्थल में लाकर बसा सकते हैं तुम हमारी शक्ति को क्या जानो।

नवसै नदी नवासी नाला मतूंत थल सिर आण बहाऊं

हम यदि चाहें तो नव सौ नदियों और नवासी नालों को इसी समराथल धोरे पर लाकर बहा सकते हैं।

सीत बहोड़ी लंका तोड़ी ऐसो कियो संगरामूं जा बाणै म्हे रावण मारयो मतुंत आयसा गढ़ हथनापुर सै आण दिखाऊं

त्रेतायुग में हमने राजा रावण से ऐसा युद्ध किया कि, उसकी सोनवी नगरी लंका को तोड़ कर तहस-नहस कर दिया और सीता को वापस ले आये। उस युद्ध में जिन बाणों से हमने रावण को मारा था,यदि हम चाहें तो उन्हीं बाणों को हस्तिनापुर के किले से लाकर यहाँ तुम्हें दिखा सकते हैं।

जो तूं सोने की मिरगी कर चलावै मतुंतो घण पाहण बरसाऊं

हे आगंतुक योगी! यदि तुम सोने की हिरनी बनाकर उसे चलाने की बात करते हो तो यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है।हम यदि चाहे तो बादलों से पानी की जगह पत्थरों की बरसात करवा सकते हैं।

मृग शाला पावोड़ी कांय फिरावो मतूंतो उगतो भाण थमाऊं

अतः हे योगी!तूम इस मृग -छाला पावोडी को हवा में क्या नचा रहे हो।हम यदि चाहे तो उगते हुए सूरज को उदय होने से रोक सकते हैं।परंतु हम इस प्रकार के खेल तमाशे या चमत्कार नहीं दिखाते। हम पाखंड नहीं रचते। लोगों को मुक्ति की राह दिखाते हैं।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ

Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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