शब्द नं 96

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सुंण गुणवंता,सुंण बुधवंता
एक बार गोपीचंद,भरथरी और गोरखनाथ समराथल धोरे पर आये और गुरु जंभेश्वर महाराज से सांकेतिक भाषा में पूछा कि वे कौन पुरुष है?उनका ठिकाना क्या है?उनके गुरु कौन हैं? किस उद्देश्य से मानव देह धारण कि है? गुरु महाराज उनके प्रश्नों एवं छिपे व्यंग को जानकर प्रथम तो मन ही मन हँसे और उसके बाद उन्हें यह शब्द कहा:-
सुण गुणवतां सूण बुधवंता मेरी उत्पति आद लुहारूं

हे गुणवान ! हे बुद्धिमान! सुनो मैं सृष्टि का सृजन करने वाला आदि लुहार परमात्मा विष्णु ही हूँ

भाठी अंदर लोह तपीलौ तंतक सोना घड़ै कंसारूं

जैसे लुहार भट्टी में लोहे को तपाता है। उसे गलाकर पानी जैसा तरल बना देता है। उससे मनचाही वस्तुओं का निर्माण करता है या कंसारा जैसे विभिन्न धातुओं को गलाकर सुनहरे बर्तन बनाता है, परंतु वास्तव में वह धातुओं को नहीं बनाता। केवल धातुओं से वस्तुएँ बनाता है।स्वयं साक्षी मात्र होता है। उसी प्रकार हम स्वयं तत्व रूप हैं, हमीं से इस संसार की रचना होती है।

मेरी मनसा अहरण नाद हथौड़ा

मेरी इच्छा अहरण है, अनहद नाद हथौड़ा है,जो चोट पर चोट करता हुआ लोहे तथा सोने को अनेक रुपो में बदल देता हैं।

शशीयर सुर तपीलौं पवन अधारी खालु

चंद्रमा व सूर्य तपने वाली अग्नि है, प्राणवायु के आधार पर शरीर स्थित करता हूं।अर्थात हम अनादि पुरुष हैं।हमने संसार को बनाया हैं।हमें किसी ने नहीं बनाया हम स्वयंभू हैं।यह समस्त संसार शब्द ब्रह्म से सृजित हैं।

जे थे गूरू का सबद मांनीलो लंधिवा भव जल पारूं

हे प्राणियों! यदि तुम हमारे कथन पर विश्वास करो।हमारे बताए मार्ग पर चलो, तो इस संसार में भरे हुए मायाजाल को पार कर बैकुंठधाम को पहुंच सकते हो।

आसन छोड़ सुखासन बैठो

अभी तुम जिस आसन पर बैठकर तपस्या कर रहे हो,इस देह को कष्ट दे रहे हो, इसे छोड़ दो। सहज एवं स्वभाविक आसन पर बैठो ताकि तुम्हें सुख की प्राप्ति हो।

जुग जुग जीवै जम्भ लुहारूं

जो योगी सहज-सिद्ध आसन पर बैठता है वह चंद्रमा एवं सूर्य नाड़ियों को अपने नियंत्रण में रखता हुआ, सुषुम्ना मार्ग से अपने प्राणों को ऊर्ध्वगामी बनाकर, निरंतर अनहद नाद को सुनता हुआ, युगों युगों तक शुन्यमडल कमल दल से बरसते हुए अमृत का पान करता हुआ,अमर होकर जीता है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जम्भवाणी टीका व जाम्भाणी शब्दार्थ

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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