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*जा का उंमग्या स माघूं*
एक समय बीकानेर के राव लूणकरण ने युद्ध भूमि में अपनी जीत हार के विषय में प्रश्न पूछा।गुरु जंभेश्वर भगवान ने उसे यह समझाते हुए कि संसार को लड़ाई में जीतने में कुछ प्राप्त नहीं होता। सच्चा वीर वही है,जिसने अपने मन को जीत लिया है। मन को जीतने वाला अमरलोक का स्वामी बनता है। इसी भाव को स्पष्ट करते हुए गुरु महाराज ने राव लूणकरण के प्रति यह शब्द कहा:-
*जांका उमंग्या समाधुं तीहिं पंथ के* *बिरला लागूं बीजा चाकर* *बीरूं रिण शंख धीरुं रण शंख* *धीरुं*
जिस परमतत्व का मार्ग आनन्दमय है जो ब्रह्म आनन्दमय है उस मार्ग पर तो बिरले ही लगते हैं दूसरे लोग या तो संसार में जो सामथर्यवान हैं उनके चाकर हैं अथवा जंगल में ताल में पड़े शंख और घोंघो को बटोर कर संतोष करने वाले हैं (दिखावटी किंतु सारहीन वस्तुओं के संग्रह में संतोष करते हैं)
*कबही रूझंत रायुं पासै भाजत भायों* *ते हतंते जीयौ तातै* *नुगरा झुंझ न कीयों*
कोई श्रेष्ठ पुरुष ही कभी संसार को लुभाने वाली वस्तुओं को त्याग कर इस मार्ग की ओर आकृष्ट होते हैं उसको अपने मन से जूझ कर आपा
अहंकार मारना पड़ता है जो कठिन कार्य है अत:निगुरे लोग यह झुंझ नहीं रचाते हैं इस मार्ग पर नहीं चलते हैं
*ते पुज्या कलि थानूं सेई वसै सेतानूं*
वे तो कलियुग में विभिन्न स्थानों की पूजा करते हैं जहां शैतान बसते है अथवा ऐसे लोगों के मनों में शैतान का वास है
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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*जाम्भाणी शब्दार्थ व जम्बवाणी टिका*
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