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" ‘दोहा‘‘ सुणते ही जोगी गया, सतगुरु के सुण वाच। दुभद्या मन की सब गई, आयो तन में साच। प्रसंग-22 दोहा तब ही जमाती बोल उठे, समझावो गुरु ज्ञान। ज्ञान पाय गुरु आप से, सुखी भये कति जान। भूत भावी यह काल की, हम नहीं जाणै सार। लक्ष्मण पांगल की सुणी, जानन चहि कछु पार।
लोहा पांगल और लक्ष्मण नाथ को सबद श्रवण करवा रहे थे तभी अन्य साधु भक्तों की जमात ने भी ध्यान पूर्वक वार्तालाप को श्रवण किया। जब योगी लोग चले गये तब सभी जमाती लोग एक स्वर से बोल उठे कि हे देव! हमने अभी अभी लोहा पांगल तथा लक्ष्मण नाथ को दिया हुआ उपदेश श्रवण किया है तथा ज्ञान को प्राप्त करके खुशी से भर चुके हैं किन्तु यह नहीं जान सके कि इनसे अतिरिक्त अन्य तीनों कालों में आपसे इसी प्रकार से ज्ञान वार्ता श्रवण करके कितने लोग कब-कब आनन्दित हुए है। अन्य लोगों के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं, ऐसी दिव्य वार्ता श्रवण से हमें आनन्द मिलता है इसलिये कृपा करके आप हमें बतलाइये, तब जम्भेश्वर जी ने सबद उच्चारण किया।
ओ३म् गुरु हीरा बिणजै, लेहम लेहूं, गुरु नै दोष न देणा।
भावार्थ- जो सतगुरु होगा वह तो हीरों का व्यापार करेगा इसलिये मैने भी यही किया है अर्थात् उतम ज्ञान ही लोगों को दिया है जिससे जीवन में युक्ति सिखलाई है। जीवन की कला में प्रवीण करके अन्त में युक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। यदि कोई लेना चाहता है तो ले सकता है। यहां पर किसी से कोई भेदभाव नहीं है और इसी प्रकार घर में आयी हुई गंगा में स्नान नहीं किया तो फिर गुरु को दोष नहीं देना।
पवणा पाणी, जमी मेहूं, भार अठारै परबत रेहूं। सूरज जोति परै परेरै, एति गुरु के शरणै।
यह दृष्ट-अदृष्ट,पवन, पानी, धरती, वर्षा, अठारह भार वनस्पति, पर्वत श्रेणियां, सूर्य तथा सूर्य की ज्योति जहां तक पहुंचती है वहां तक तथा उससे भी आगे तक पहुंचती है वहां तक तथा उससे भी आगे तक जहां तक शून्य है वहां तक सभी कुछ गुरु ईश्वर परमात्मा के ही शरण में है उत्पति, स्थिति और प्रलय गुरु के ही अधीन है।
केती पवली अरू जल बिम्बा,नवसै नदी निवासी नाला, सायर एति जरणां।
तथा जिस प्रकार से कई छोटे तथा बड़े तालाबों का जल, झरनों का जल एवं अनेकों प्रकार की नयी तथा पुरानी नदियों का जल, जिनमें नालों का जल समाहित हो जाता है। यह सभी प्रकार का जल अन्त में नदी द्वार से जाकर समुद्र में ही मिल जाता है और समुद्र उसे अपने अन्दर स्थान दे देता है। उसी प्रकार से ही पर्वत, पवन, पानी, आदि सभी उसी परम तत्त्व रूप गुरु में ही समाहित हो जाते है। उसी से ही उत्पत्ति तथा स्थिति भी होती है।
कोड़ निनाणवै राजा भोगी, गुरु के आखर कारण जोगी। माया राणी राज तजीलो, गुरु भेंटीलो जोग सझीलो, पिण्डा देख न झुरणां।
सृष्टि प्रारम्भ से लेकर अब तक निनाणवे करोड़ राजा जो भोग विलास में लिप्त थे। वे सभी सचेत होकर गुरु की शरण में आये। सतगुरु ने उन्हें सदुपदेश दिया जिससे उन्होंने मोह माया , रानी, राज आदि सभी कुछ छोड़कर योग की साधना की। तपस्या काल में अनेकों कष्ट उठाये। शरीर को सूखा दिया किन्तु उस थके हुऐ शरीर को तथा कष्ट को देखकर परवाह नहीं की। वे लोग भोग की पराकाष्ठा से योग की पराकाष्ठा तक पहुंच गये।
कर कृषाणी बेफांयत संठो, जो जो जीव पिण्डै नीसरणा। आदै पहलूं घड़ी अढ़ाई, स्वर्गे पहुंता हिरणी हिरणा। सुरां पुनां तेतीसां मेलों, जे जीवन्तां मरणों।
हे मानव! यदि साधना रूपी खेती करनी है तो हिम्मत धैर्य रखकर के बहुत समय तक लगातार कर तभी यह फलदायक होगी। खेती तथा योग साधना, जप, तप , साधना दोनों ही समय और धैर्य परिश्रम की मांग करते हैं तथा यह साधना निरंतर तब तक करते रहो जब तक शरीर से प्राण न निकल जाये अर्थात् अन्तिम समय तक। एक शिकारी ने वन में हिरणी को पकड़ लिया था। उस हिरणी ने शिकारी को वचन देकर अपने बच्चों को बहन को सौंपने के लिये पहुंची तथा वापिस अपने बच्चो तथा बहन तथा बहन के पति सहित आकर शिकारी के सामने उपस्थित हो गई थी। उसने वचन देकर निभाया था। सत्य का पालन करने से अढ़ाई घड़ी में ही वो छः जनों का पूरा परिवार स्वर्ग का अधिकारी बन गया था और शरीर त्याग करके तेतीस करोड़ देवताओं से जाकर भेंट किया था। उन्होंने अपने वचनों का पालन प्राण देकर भी किया था। इसके फलस्वरूप कहावत है कि अब भी आकाश में नक्षत्रों के रूप में विचरण कर रहे हैं।
के के जीव कुजीव, कुधात कलोतर बाणी। बादीलो हंकारीलो, वै भार घणां ले मरणो।
इस लोक में सभी तरह के जीव है। कुछ सज्जन तो कुछ कुजीव। दुर्जन भी यहीं रहते है। वे लोग शरीर के अंग प्रत्यंग से कुधात है। उनकी बनावट भी ऐसी ही है। जिससे वे लोग शुद्ध वाणी भी बोलना नहीं जानते। जब कभी भी बोलते हैं, तो कलहकारी बाणी ही बोलेंगे। बात बात पर व्यर्थ का विवाद उठायेंगे तथा अहंकार का ही पोषण करने वाले कार्यों का ही बढ़ावा देगे। ऐसे लोग अत्यधिक भार लेकर ही इस धरती से जायेंगे, पापों के बोझ तले दबे हुए रहेंगे तथा दबे हुए ही चले जायेंगे।
मिनखा रै तैं सूतै सोयो, खूलै खोयो, जड़ पाहन संसार विगोयो। निरफल खोड़ भरांति भूला, आस किसी जा मरणों।
रे मानव! तूं गहरी निंद्रा में सोता रहा, युवावस्था में तेने खुलकर शक्ति का नाश किया। उस शक्ति को तूं परमात्मा में लगाता तो अच्छा था किन्तु तुमने अधिकतर ऊर्जा का तो विषय भोगों में नष्ट किया तथा कुछ अवशिष्ट शक्ति को परमात्मा के नाम पर या तो पत्थर की मूर्तियों पर मथा पटका या फिर पेड़ पौधों पर विश्वास करके अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया। जैसे खेती रहित उजाड़ वन में कोई धान फल फूल खोजता फिरे किन्तु वहां फल कहां से मिलेगा। उसी प्रकार से इस संसार के विषयों में तूं सुख रूपी फल खोजता रहा वहां सुख कहां था। तब यह बतलाओ फिर किस आशा से मृत्यु को प्राप्त कर रहे हो। आगे कौनसा सुख मिलने वाला है। जब यहीं पर ही कुछ नहीं मिला तो आगे के लिये आशा करना व्यर्थ ही है।
वेसाही अंध पड़यो गल बंध, लियो गलबंध गुरु बरजंतै। हैलै श्याम सुन्दर के टोटै, पारस दुस्तर तरणों।
हे अन्ध! तेरी गर्दन में वैसे ही बिना प्रयोजन के यह मोह माया रूपी फांसी पड़ गई है तूने देखा नहीं था। यदि देखता तो क्यों पड़ती तथा सद्गुरु ने जब गले में फांसी पड़ रही थी तो बताया भी था। सचेत भी किया था। किन्तु तुमने परवाह नहीं की अब क्या होगा। श्याम सुन्दर श्री कृष्ण ने श्री गीता में उद्घोषणा की थी किन्तु तुमने उनकी नहीं सुनी तो अब घाटा तुम्हारा ही पड़ेगा। इस महान घाटे को लेकर तो पार उतरना अति कठिन है।
निश्चै छेह पड़ेलो पालो, गोवलवास जु करणों। गोवलवास कमाय ले जिवड़ा, सो सुरगा पुर लहणा।
इस मानव देह के रहते हुए यदि नहीं चेतेगा तो निश्चय ही परमात्मा से दूर हो जायेगा फिर कभी मिलन भी दुर्लभ हो जायेगा। गोवलवास अर्थात् घर से दूर अन्यत्र जगह पर कुछ दिनों के लिये निवास करना ऐसी स्थिति आ जायेगी। परिस्थितिवश वापिस घर आना मुश्किल हो जायेगा। इसलिये यही अच्छा रहेगा कि मानव जीवन में रहते हुए इस संसार को ही गोवलवास समझना। इसको अपना सच्चा घर समझकर मोह मत बढ़ाना। यहां पर तो कुछ दिनों का मेहमान ही मानना तो निश्चित ही अपने घर स्वर्ग से ऊपर परमात्मा के धाम में पहुंच सकेगा।
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