

“दोहा”
लोहा पांगल वाद कर आवही गुरु दरबार। प्रश्न ही लोहा झड़ै, बोलेसी गुरु आचार। प्रश्न एक ऐसे करी, काहां रहो हो सिद्ध। तुम तो भूखे साध हो, हमरै है नव निध।
लोहा पांगल नाथ पंथ का प्रसिद्ध साध्धु था। वह वाद-विवाद करने के लिये तथा जम्भदेवजी का आचार विचार देखने के लिये सम्भराथल पर आया और विचार किया कि यदि सच्चे गुरु परमात्मा है तो उनके वचनों से यह मेरा लोहे का कच्छ झड़ जायेगा। उसे यह वरदान था कि लोहे का कच्छ तुम्हारा तभी छूटेगा जब किसी महापुरूष से साक्षात्कार एवं वार्तालाप होगी। अपने इस लोहे से जकड़े शरीर के अंग को मुक्त करवाकर दुख से छूटने एवं वाद विवाद करने की इच्छा से प्रश्न किया कि आप सिद्ध पुरूष मालूम पड़ते हो किन्तु आपका निवास स्थान कहां पर है। जाम्भोजी ने अपना स्थान इस प्रकार से बतलाया-
√√ सबद-40 √√
ओ३म् सप्त पताले तिहूं त्रिलोके, चवदा भवने गगन गहीरे। बाहर भीतर सर्व निरंतर, जहां चीन्हों तहां सोई।
भावार्थ- मैं कहां रहता हूं, यह सुनो! अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल , महातल इन सातों पातालों में तथा भूः, भुवः, स्वः मह जन तप सत्यम् इन उपर के सात लोकों में और स्वर्ग मृत्यु ब्रह्म लोक इनमें भी नित्य निरंतर विद्यमान रहता हूं और निराकार आकाश जल परिपूर्ण समुद्र में भी मेरा निवास है। बाह्य दृष्ट अदृष्ट संसार तथा भीतर के अन्तःकरण में भी मैं सभी समय में लगातार ही रहता हूं। जहां पर भी याद करोगे, खोजोगे वहीं पर ही मैं सदा ही प्राप्त हूं।
सतगुरु मिलियों सतपंथ बतायो, भ्रान्त चुकाई, अवर न बुझबा कोई।
अब तुम्हें सतगुरु मिल चुका है और भ्रान्ति मिटा दी है। इसलिये अब किसी अन्य से पूछने की आवश्यकता नहीं है। इस शब्द को श्रवण करके लोहा पांगल विचार मग्न हो गया। थोड़ी देर के लिये शांत चित ही बैठा रहा। इसी बीच में एक अन्य प्रसंग चल पड़ा
साभार – जंभसागर
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