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ओ३म् कवण न हुवा कवण न होयसी, किण न सह्या दुख भारूं।
भावार्थ- कौन इस संसार में नहीं हुआ तथा कौन फिर आगे नहीं होंगे अर्थात् बड़े बड़े धुरन्धर राजा, तपस्वी, योगी, कर्मठ इस संसार में हो चुके हैं और भी भविष्य में भी होने वाले है। इनमें से किसने भारी दुख सहन नहीं किया अर्थात् ये सभी लोग दुख में ही पल कर बड़े हुए है तथा जीवन को तपाकर कंचनमय बनाया है। दुखों को सहन करके भी कीर्ति की ध्वजाएं फहराई है।
कवण न गइयां कवण न जासी, कवण रह्या संसारूं। अनेक अनेक चलंता दीठा, कलि का माणस कौन विचारूं।
इस संसार में स्थिर कौन रहा है और कौन आगे भविष्य में रहने का विचार कर रहा है? यह पंच भौतिक शरीर प्राप्त करके कौन अजर-अमर रहा है? अनेकानेक इस संसार से जाते हुए मैने देखा है। यह मैने तुझे सृष्टि के आदि से लेकर अब तक की कथा सुनाई है। जब उन युगों की भी यही दशा थी तो इस कलयुग के मानव का तो विचार ही क्या हो सकता है। यह तो वैसे ही अल्पायु, शक्तिहीन तथा ना समझ है।
जो चित होता सो चित नाही, भल खोटा संसारूं। किसकी माई किसका भाई, किसका पख परवारूं।
यह संसार परिवर्तनशील है क्योंकि जो विचार बुद्धि पहले थे वे अब नहीं रहे। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि यही सिद्धान्त है। स्थिरता तो कैसे हो सकती है क्योंकि यह संसार तो अच्छी प्रकार से खोटा-मिथ्या है। इस संसार में लोग सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करते हैं किन्तु बीच में ही टूट जाते हैं। वास्तव में तो न किसी के माता है , न ही पिता, भाई, कुटुम्ब परिवार है। यह जीव तो अकेला ही आया था और अकेला ही जायेगा। बीच में थोड़े दिनों का सम्बन्ध सत्य कैसे हो सकता है।
भूली दुनिया मर मर जावै, न चीन्हों करतारूं। विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, बल बल बारम्बारूं।
ये भूल में भटकी हुई दुनिया मृत्यु को प्राप्त करके दिनों दिन चली जा रही है। समाप्त होते हुए लोग देखते हैं फिर भी स्वयं जीने की आशा करते हैं। कर्ता सर्वेश्वर स्वामी को नहीं पहचानते। इस जीवन रहस्य को जानने तथा जन्म मृत्यु से छूटने के लिये पूरा बल लगाकर बारम्बार अबाध गति से हे प्राणी! तूं विष्णु परमात्मा का जप स्मरण कर, वही तेरे पापों को काटेगा और तुझे संसार के चक्र से बाहर निकालेगा।
कसणी कसबा भूल न बहबा, भाग परापति सारूं। गीता नाद कविता नाऊं, रंग फटारस टारूं।
यदि तुझे जीवन में कुछ प्राप्ति करनी है तो सदा सचेत होकर परिश्रम करते हुए हर समस्या कठिनाइयों से झूझने के लिये कमर कसकर तैयार रहो। जरा सी भी भूल या असावधानी सम्पूर्ण शुभ कर्मों को डूबो देगी। तुम्हें कर्मानुसार फल अवश्य ही मिलेगा। इसलिये निष्काम भाव से शुभ कर्मों में तपस्या में लगे रहो। भगवान कृष्ण के मुख से निकली हुई गीता अनहद नाद बाणी है। यह कोई किसी कवि द्वारा कल्पित कविता नहीं है। इस गीता ने ही तो रूके हुऐ महाभारत को पुनः प्रारम्भ करवा दिया था। अर्जुन के मोह की निवृत्ति गीता ज्ञान द्वारा ही हुई थी। यह गीता ही निष्काम कर्म का उपदेश देती है। इसलिये तुम्हारे अन्दर बैठे हुए मोह, भ्रम जनित अज्ञानता की औषध्धि यह गीता ही है और यही मैं आपको सुना रहा हूं।
फोकट प्राणी भरमें भूला, भल जे यो चीन्हों करतारूं। जामण मरण बिगोवो चूकै, रतन काया ले पार पहुंचे। तो आवागवण निवारूं।
दिन रात आलस्य में पड़े रहने वाले बिना किसी परिश्रम साधना के ही परम तत्व या सांसारिक भोग पदार्थ प्राप्ति की आशा करते हो। वे लोग भ्रम में है तथा भूल में पड़कर व्यर्थ का अभिमान करते है। ऐसे लोगों को सुख शांति की आशा छोड़ देनी चाहिये। अच्छा होता यदि वो आलस्य, भ्रम को छोड़कर शुभ कर्म करते हुए परमात्मा स्वामी दृष्टा का एकाग्र मन से स्मरण करते तो जन्म मरण की धारा टूट जाती और इस रतन सदृश काया से किये हुए शुभ कर्म और पुण्य कमाई को लेकर संसार सागर से पार पहुंच जाते तो उनका बार-बार जन्मना और मरना मिट जाता। यही एक उपाय है। इस संसार में रहकर अजर अमर होने का और कोई उपाय नहीं है।
साभार – जंभसागर
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