शुक्लहंस शब्द नं 67

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श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण
दूणपुर गाँव का वासी मोती मेघवाल और उसकी पत्नी दोनों बिश्नोई बन गए। उन्होंने चमार का काम छोड़ दिया। वे साधुओं जैसा जीवन जीने लगे। ग्राम ठाकुर बीदा जोधावत को मोती का वह व्यवहार बहुत बुरा लगा। ठाकुर ने मोती को बुलाकर उसे कैद में डालने का हुक्म दिया तथा कहा कि वह अपने इष्टदेव से मदद लेना चाहे तो उसे चार पहर की छूट दी जाती है ।उस संकट की घड़ी में मोती मेघवाल ने गुरु जंभेश्वर को याद किया। भगत वत्सल भगवान उसी प्रातः काल दुणपुर पहुँच गये और नगर के बाहर शुद्ध वन भूमि पर अपना आसन लगाया।अहंकारी बीदा राठौड़ वहाँ आया तथा जाम्भोजी की परीक्षा लेने हेतु उन से उनके चमत्कारीक कार्य कर दिखाने को कहा तथा अंत में भगवान कृष्ण की तरह एक ही समय में कई हजार शरीर धारण कर भिन्न-भिन्न स्थानों पर दर्शन देने का आग्रह किया। गुरु जंभेश्वर महाराज ने उसकी वह शर्त भी पूरी की और एक ही समय एक हजार गाँवों एवं नगरों में हवन प्रवचन करते हुए दिखाई दिए।बीदे ने उन सैकड़ों गाँवो में पहले से ही अपने ओठी भेज दिए थे।
इस प्रकार विभिन्न आलोकिक क्रियाओं द्वारा बीते को यह विश्वास दिलवाया कि वे पूर्ण ब्रह्म भगवान कृष्ण के अवतार है।उसी सहस्त्र रूप धारण करने एवं बीदे को समझाने के संदर्भ में,बीदे तथा अन्य भक्त जनों के सम्मुख यह शुक्लहंस नामक विशेष शब्द कहा:-
ओ३म्- श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण भुय नागौरी, म्हे ऊंडे नीरे अवतार लीयो।

भावार्थः- संसार के सम्पूर्ण गढ़ों में भगवान विष्णु का धाम बैकुण्ठ लोक सर्वश्रेष्ठ गढ़ है। उसी श्रीगढ़ से आल (हाल) चल करके इस मृत्युलोक में आया हूँ तथा इस मृत्युलोक में भी नागौर की भूमि में स्थित पीपासर में, जो भूमि ग्रामपति लोहट के अधिकार में है तथा उतम भूमि है जहां पर अत्यधिक गहराई में पानी मिलता है, उस उतम जल वाले देश में मैनें अवतार लिया है अर्थात् उस परम धाम को अकस्मात छोड़कर इस भूमि में मुझे आना पड़ा है। आगे यहां पर आने का मुख्य प्रयोजन बतला रहे हैं।

अठगी ठंगण, अदगी दागण, अगजा गंजण, ऊनथ नाथन अनूं नवावन।

जो पुरुष पाखण्ड करके दूसरों को ठगते है किन्तु स्वयं किसी अन्य से नही ठगे जा सकते, ऐसे-2 चतुर लोगों को ठगने के लिए अर्थात् उनकी ठग पाखण्ड विद्या का हरण करने के लिए, जिसने अब तक धर्म का दाग, चिन्ह विशेष धारण नहीं किया है उन्हें धर्म के चिन्ह से चिन्हित करके सद्मार्ग में लाने के लिए, जो दूसरों के तो सच्चे धर्म का भी अपनी बुद्धि चातुर्य से खण्डन कर देते हैं तथा अपने झूठे पाखण्डमय धर्म मार्ग को भी अपने स्वार्थवश सत्य बतलाते हैं। ऐसे लोगों के विश्वास का नाश करने के लिए,उदण्डता से अपनी इच्छा अनुसार विचरण करने वाले लोगों के मर्यादा रूपी नाथ डालने के लिए और अभिमान में जकड़े हुए लोग जो किसी के सामने सिर नहीं झुकाना जानते, नम्रता शीलता नहीं जानते उन्हें झुकाने के लिए, नम्रशील बनाने के लिए में यहां पर मरुभूमि में आया हूँ।

कांहि को में खैंकाल कीयों, कांही सुरग मुरादे देसां, कांही दौरे दीयूं।

यहां आ करके मैनें किसी को तो समय-समय पर ही नष्ट कर दिया अर्थात् राम, कृष्ण, नृसिंह आदि रूप में तो दुष्टों को नष्ट ही किया तथा किसी सज्जन ज्ञानी ध्यानी भक्त पुरुष को उसकी इच्छा कर्मानुसार स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति करवाई। यह इस समय भी तथा इससे पूर्व अवतारों में भी और अन्य किसी-किसी को भयंकर नरक भी दिया क्योंकि उन लोगों के कर्म ऐसे ही थे। इसीलिए कर्म करना मानव के आधीन है किन्तु फल देना ईश्वर के अधीन है।

होम करीलो दिन ठावीलो, संहस रचीलो छापर नींबी दूणपूरू। गांव सुंदरीयो छीलै बलदीयो, छन्दे मन्दे बाल दीयो।

हे बीदा! तू अपने आदमियों को दिन निश्चित करके जहां-जहां पर भेजेगा। में वहीं पर ही हजारों रूप धारण करके यज्ञ करता हुआ दिखाई दुंगा। बीदा हजारों जगह तो नहीं भेज सका किन्तु जहां-जहां पर भेजा गया था, वहां-वहां का बतलाते हैं जैसे- छापर, नींबी, द्रोणपुर, सुन्दरियो, चीलो,बलदीयो, छन्दे, मन्दे, बालदियो तथा-

अजम्है होता नागो वाड़े, रैण थम्भै गढ़ गागरणो। कुं कुं कंचन सोरठ मरहठ, तिलंग दीप गढ़ गागरणो।

अजमेर, होता, नागौर, बाड़े, रैण, थम्भोर, गढ़, गागरणो, कुं कुं कश्मीर, कंचन(कच्छ) सौराष्ट्र महाराष्ट्र या मेरठ, तिलंग (तेलंगाना) तेलगु देश, द्वीप रामेश्वरम, गढ़ गागरोन तथा और भी-

गढ़ दिल्ली कंचन अर दूणायर, फिर फिर दुनियां परखै लीयों। थटे भवणिया अरू गुजरात, आछो जाई सवा लाख मालबै। पर्वत मांडू मांही ज्ञान कथूं।

दिल्ली, गढ़, कंचन नगरी और देहरादून आदि स्थानों में यज्ञ किया है। मैनें वहां पर व्यापक भ्रमण किया और लोगों को जांचा, परखा है तथा थट्ठ, थंभणिया गुजरात, आछो जाई, श्यालक, मालवा, पर्वत (मांडू) जैसलमेर इत्यादि स्थानों में जाकर ज्ञान का कथन किया है उन लोगों को चेताया है।

खुरासाण गढ़ लंका भीतर, गूगल खेऊ पैर ठयो। ईडर कोट उजैंणी नगरी, काहिदा सिंधपुरी विश्राम लीयो।

खुरासाण तथा गढ़ लंका में भी जाकर वहां पर हवन किया और हवन समाप्ति पर अंगारों पर गूगल चढ़ाया था, जिससे वहां का वातावरण पवित्र हुआ था। ईडर गढ़ उज्जयिनी नगरी तथा कुछ समय तक समुद्र किनारे बसी हुई जगन्नाथपुरी में भी विश्राम किया है।

कांय रे सायरा गाजै बाजै, घुरे घुर हरे करे इंवाणी आप बलूं। किंहि गुण सायरा मीठा होता, किंहि अवगुण होतो खार खरूं।

जब जम्भेश्वर जी जगन्नाथपुरी में समुद्र किनारे पर विराजमान थे। उसी समय ही वहां पर लोेगों में एक महामारी फैल गयी, जिसको वहां की स्थानीय भाषा में गूँडिचा कहते है। इधर शीतला चेचक कहते हैं, वह फैल चुकी थी। लोग आ करके जम्भदेवजी से प्रार्थना करने लगे। तब उन लोगों को अभिमंत्रित जल पाहल पिलाया, जिससे उनकी बीमारी मिट गयी। उसी महान घटना की यादगार में मन्दिर बनाने की प्रार्थना उन लोगों ने गुरुदेव से कही, तब उन्हें मंदिर बनाने की आज्ञा तो दी परंतु उसके अन्दर कोई मूर्ति रखने की मनाही कर दी। अब भी जगन्नाथपुरी में वह मंदिर ज्यों का त्यों विद्यमान है। जब जगन्नाथजी की सवारी निकलती है तो सात दिन तक वहीं पर विश्राम करती है तथा वहीं पर ही प्रसिद्ध जगन्नाथजी के मंदिर से उतर पश्चिम दिशा में एक किलोमीटर दूर जम्भेश्वर महादेव का मंदिर भी बना हुआ है और वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव पूजनीय है तथा उत्सव समय आषाढ़ महीने में सवारी भी निकलती है। यह मैनें अपनी आंखों से देखा है किन्तु पूर्ण जानकारी नहीं कर सका। यहां पर मैनें प्रसंगवश पाठकों की जानकारी के लिए लिख दिया है। अब बीदे से कह रहे हैं कि हे बीदा! मैनें उस जगन्नाथपुरी के समुद्र को देखा है तथा उसकी महान ऊंची-ऊंची लहरों को भी देखा है। वे लहरें दूर से अत्यधिक भयावनी लगती है स्नानार्थी को डरा देती है। किन्तु जब हिम्मत करके अन्दर पंहुच जाता है तो वे लहरें कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि उस समय मैनें समुद्र से पूछा था कि हे सायर! तू क्यूं गर्जना करके यह व्यर्थ की ध्वनि कर रहा है। इस घुरघुराने से तो तेरा अभिमान ही बढ़ेगा किन्तु बल घटेगा। जब तू बलहीन हो जायेगा तो फिर क्या कर सकेगा तथा यह भी बता कि पहले तो तेरे में कौनसा गुण था जिस कारण तू मीठा था और फिर कौनसा अवगुण हो गया जिससे तू खारा नमकीन हो गया। जब तेरे में अभिमान नहीं था तब तो तू मधुर अमृतमय था और जब अभिमान आ गया तो कड़वा हो गया। मानव के लिए भी यही नियम लागू होता है।

जद वासग नेतो मेर मथाणी, समंद बिरोल्यो ढोय उरूं। रेणायर डोहण पांणी पोहण, असुरां बेधी करण छलूं।

देव-दानवों ने जब मिलकर समुद्र मंथन द्वारा अमृत प्राप्ति का प्रयत्न किया था उस समय वासुकी नाग की तो रस्सी बनाई थी। सुमेरु पर्वत की मथाणी (झेरणी) बनायी थी तथा देव-दानवों ने मिलकर मंथन प्रारम्भ किया तो वह मथाणी वजनदार होने से देव दानव नहीं संभाल सके तो नीचे धरती पर आकर टिक गयी थी तो दोनों पक्षों ने ही जाकर भगवान विष्णु से पुकार की थी। उस समय विष्णु ने कछुए का रूप धारण करके सुमेरु मथाणी को ऊपर उठाया था। फिर मंथन कार्य चलने लगा तब समुद्र से अनेकानेक दिव्य रत्न निकलने लगे किन्तु उन असुरों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण से अनेक रत्न तो देवताओं को प्राप्त हो चुके थे। चैदहवां रत्न अमृत निकला जिसके लिए देव दानव आपस में बंटवारा नहीं कर सके। उसके लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत देवताओं को पिलाकर अमर करना चाहते थे किन्तु राहु दैत्य भी पी चुका था वह भी अमर हो चुका था। भेद खुलने पर देवताओं ने सिर काट डाला, एक के दो हो गये। राहु और केतु ये भी अमर हैं, सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर ग्रसित करते हैं। जब समुद्र से अमृत निकाल लिया गया तो पीछे कड़वा ही शेष रह गया है। इसीलिए हे बीदा! वह इतना महान अमृतमय समुद्र भी अभिमान करने से अमृत खो बैठा और दयनीय दशा को प्राप्त हो गया, उसके सामने तेरी क्या औकात है। तेरा भी यह अभिमान करना व्यर्थ है और भी ध्यानपूर्वक श्रवण कर।

दहशिर ने जद वाचा दीन्ही, तद म्हे मेल्ही अनंत छलूं। दह शिर का दश मस्तक छेद्या, ताणु बाणु लडू कलूं।

लंकापति रावण ने प्रथम कठोर तपस्या की थी और शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिया। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि उस समय वरदान देने वाला मैं ही था तथा रावण राज्य विशालता ऐश्वर्य को प्राप्त हो चुका था। तब मैं ही राम रूप में सीता सहित वन में आ गया था। मैनें ही रावण को छलने के लिए सीता को भेजा था। रावण जबरदस्ती नहीं ले गया था। रावण को मारने के लिए सीता को निमित बनाया था, वैसे रावण को कैसे मार पाते और फिर मैनें सीता को छुड़ाने के बहाने से अपने द्वारा वरदान स्वरूप दिये हुए दस सिरों को उन तीखे बाणों द्वारा काट डाला तथा रावण सहित पूरे परिवार को तहस नहस कर डाला था।

सोखा बाणू एक बखाणू, जाका बहु परमाणूं निश्चय राखी तास बलूं।

जब रावण को मारने के लिए लंका पर चढ़ाई की थी, उस समय भी बीच में समुद्र आ गया था। तीन दिन तक प्रतीक्षा करने पर भी वह दुष्ट नहीं माना तो फिर धनुष पर बाण संधान कर लिया था और उसे शुष्क करने का विचार पक्का हो चुका था। उस समय भी समुद्र अपनी हठता भूलकर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित हुआ था। इसका बहुत प्रमाण है। यदि तुझे विश्वास नहीं है तो शास्त्र उठाकर देख ले। उस समय समुद्र तथा रावण ने अपना बल निश्चित ही तोल करके देखा था तथा उस अभिमान के बल पर ही गर्व किया करते थे किन्तु उन दोनों का ही गर्व चूर-चूर कर डाला था। हे बीदा! जब रावण और समुद्र का अभिमान भी स्थिर नहीं रह सका। अहंकार के कारण दोनों को ही लज्जित होना पड़ा तो तेरी कितनी सी ताकत है, किसके बल पर तूं अभिमान करता है।

राय विष्णु से बाद न कीजै, कांय बधारो दैत्य कुलूं। म्हे पण म्हेई थेपण थेई, सा पुरुषा की लच्छ कुलूं।

हे बीदा! तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष देवाधिदेव विष्णु विराजमान है, व्यर्थ का वाद-विवाद नहीं करो। ऐसा करके देत्य कुल को क्यों बढ़ाता है। तुम्हारे देखा-देखी और कितने मानव से दानव हो जायेंगे। फिर तू जानता है कि दानवों की क्या गति हुई है और क्या हो रही है। हम तो अपनी जगह पर हम ही है, तू हमारी बराबरी नहीं कर सकता और तू अपनी जगह पर तो तू ही है, हम लोगों को तू अपने जैसा नहीं बना सकता। उन महापुरुषों के लक्षण तो बहुत ही ऊंचे थे, जिसका तू नाम लेता है वे तेेरे सदृश अधम नहीं थे।

गाजै गुड़के से क्यूं वीहै, जेझल जाकी संहस फणूं। मेरे माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैंण न लोक जणों।

तुम्हारे इस प्रकार के झूठे गर्जन तर्जन से कौन डरता है तथा डरने का कोई कारण भी तो नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास कुछ शक्ति तो है नहीं, केवल बोलना ही जानता है जिसके पास शेषनाग के हजारों फणों की फुत्कार के सदृश शक्ति की ज्वाला है वह तेरे इस मामूली क्रोध की ज्वाला से भयभीत कभी नहीं होता। कोई सामान्य गृहस्थजन हो सकता है, तेरे से कुछ भयभीत हो जाये क्योंकि उसका अपना परिवार घर है, उनको तू कदाचित उजाड़ भी सकता है किन्तु जिसके माता, पिता, बहन, भाई, सखा सम्बन्धी कोई नहीं है उसका तू क्या बिगाड़ लेगा।

बैकुण्ठे बिश्वास बिलम्बण, पार गिरांये मात खिणूं। विष्णु विष्णु तू भण रे प्राणी, विष्णु भणंता अनंत गुणूं।

हम तो बैकुण्ठलोक के निवासी हैं ऐसा तू विश्वास कर तथा उस अमरलोक प्राप्ति का प्रयत्न कर। जिससे तेरा सदा के लिए जन्म-मरण छूट जायेगा। इस अवसर को प्राप्त करके भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाना कुछ शुभ कमाई कर लेना। हे प्राणी! विष्णु के पास परमधाम में पंहुचने के लिए तू उसी परमात्मा विष्णु का स्मरण कर, उसका स्मरण भजन करने में अनंत फलों की प्राप्ति होगी। विष्णु के भजन से परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति ही अनन्त फल है।

सहंसे नावें, सहंसे ठावें, सहंसे गावें, गाजे बाजे, हीरे नीरे। गगन गहीरे, चवदा भवणे, तिहूं तृलोके, जम्बू द्वीपे, सप्त पताले।

विषलृ व्यांपके धातु से विष्णु शब्द की व्युत्पति होती है अर्थात् विवेष्टि व्याप्नोति इति विष्णु जो सर्वत्र कण-कण में सता रूप से व्यापक हो वही विष्णु है। ऐसे विष्णु का स्मरण करने का अर्थ हुआ कि सर्वत्र सता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेना है। उसी सत्ता को गुरुदेव जी सर्वत्र बताते हुए कहते हैं कि उस विष्णु रूप सता के हजारों अनगिनत नाम है। हजारों अनन्त स्थान है तथा उसी प्रकार से उतने ही गांव है और भी सता व्यापक होती हुई गर्जना, बाद्यों, हीरे, जल, गगन गम्भीर समुद्र तथा चैदह भुवनों में, तीनों लोकों में तथा इस जम्बूद्वीप में और सातों पातालों में ही उसकी ही सता विद्यमान है।

अई अमाणो, तत समाणो, गुरु फुर्माणो, बहु परमाणो। अइयां उइयां निरजत सिरजत।

इस पंचभौतिक जड़मय संसार में वह ज्योतिरूप तत्व समाया हुआ है। उस परम तत्व की ज्योति से ही यह सचेतन होता है यह गुरु परमात्मा का ही कथन है। इसीलिए सत्य है इसमें बहुत ही शास्त्र,वेद, आप्त पुरुष प्रमाण है। यह जड़ चेतनमय संसार उसी परमतत्व रूप परमात्मा की ही सृजनकला का कमाल है और उसकी ही जब वापिस समेटने की इच्छा होगी तो यह वापिस लय को भी प्राप्त हो जायेगा, यह भी उसी की ही करामात है।

नान्ही मोटी जीया जूंणी, एति सास फुरंतै सारूं। कृष्णी माया घन बरषंता, म्हे अगिणि गिणूं फूहारूं।

इस विश्व में कुछ छोटी तथा कुछ बड़ी जीवों की जातियां है। छोटी जाति की उत्पति स्थिति तथा मृत्यु काल अत्यल्प होता है और बड़ी जाति जैसे मानवादिक का समय अधिक होता है। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि में अपनी माया द्वारा इनका सृजन करता हूँ। किन्तु उत्पति में समय तो एक श्वंास को बाहर निकलना और अन्दर जाने का ही लगता है अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच का फैसला तो एक श्ंवास का ही होता है यदि श्वांस आ गया तो जीवन है, नहीं आया तो मृत्यु। जिस प्रकार से कृष्ण परमात्मा की माया बादलों द्वारा जल बरसाती है किन्तु अनगिनत बूंदे भी गिन गिन करके डाली जाती है अर्थात् जहां जितना बरसाना है वहां उतना ही बरसेगा न तो कम ही और न ही ज्यादा। उसी प्रकार से सृष्टि की छोटी-मोटी जीया जूंणी भी पानी की बूंदों की तरह अनगिनत होते हुए भी परमात्मा के द्वारा गिनी जा सकती है। परमात्मा की दृष्टि से बाह्य कुछ भी नहीं है।

कुण जाणै म्हे देव कुदेवों, कुण जाणै म्हे अलख अभेवों। कुण जाणै म्हे सुरनर देवों, कुण जाणै म्हारा पहला भेवों।

बीदे द्वारा जब वस्त्रविहीन करके यह देखने का प्रयत्न किया गया कि ये स्त्री है या पुरुष। तब इस प्रसंग का इस प्रकार निर्णय करते हुए कहा कि कौन जानता है कि मैं देव हूं या कुदेव हूं। कौन जानता है कि मैं अलख हूं या लखने योग्य हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं देवाधिदेव विष्णु हूं या सामान्य देवता हूं तुम्हारे पास मेरा आदि व अन्त को जानने का भी क्या उपाय है।

कुण जाणै म्हे ग्यानी के ध्यानी, कुण जाणै म्हे केवल ज्ञानी। कुण जाणै म्हे ब्रह्मज्ञानी, कुण जाणै म्हे ब्रह्माचारी।

बुद्धि द्वारा अगम्य को बुद्धि द्वारा कैसे जाना सकता है। इसीलिए मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी हूँ इस बात को तुम नहीं जान सकते। मैं केवल ज्ञानी हूं या अज्ञानी हूं, यह तुम किस प्रकार से जान पाओगे। मैं ब्रह्मज्ञानी हूं या ब्रह्मचारी हूं यह भी तुम्हारी समझ से बाहर की बात है। ध्यान रखना इन विषयों को केवल जाना नहीं जाता तदनुसार जीवन बनाया जाता है। न ही केवल बुद्धि द्वारा जान लेने से रस ही आ पायेगा।

कुण जाणै म्हे अल्प अहारी, कुण जाणै म्हे पुरुष के नारी। कुण जाणै म्हें वाद विवादी, कुण जाणै म्हे लुब्ध सुवादी।

कौन जानने का दावा करता है और बता सकता है कि मैं कम भोजन करने वाला हूं या निराहारी हूं या अधिक भोजन करने वाला हूं।मैं पुरुष हूं या नारी, यह भी तुम कैसे जान सकते हो। कौन जानता है कि मैं वाद विवादी हूं या लोभी हूं या सत्य मितभाषी हूं या बकवादी हूं।

कुण जाणै म्हे जोगी के भोगी, कुण जाणै म्हे आप संयोगी। कुण जाणै म्हे भावत भोगी, कुण जाणै म्हे लील पती।

कौन जानता है मैं योगी हूं या भोगी हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं दुनियां से सम्बन्ध रखने वाला हूं या निर्लेप हूं। कौन जान सकता है कि मैं जितना चाहता हूं उतना ही मुझे भोग्य वस्तु प्राप्त है या नहीं। यह भी सांसारिक सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकते कि मैं इस संसार का स्वामी हूँ।

कुण जाणै म्हे सूम के दाता, कुण जाणै म्हे सती कुसती। आपही सूमर आप ही दाता, आप कुसती आपै सती।

कौन जानता है कि मैं सूम कंजूस हूं या महान दानी हूं तथा यह भी कौन जान सकता है कि मैं सती हूं या कुसती हूं। मैं क्या हूं इस विचार को छोड़ो और मैं जो कहता हूं इस पर विचार करोगे तो सभी समस्यायें स्वतः ही सुलझ जायेंगी और यदि बिना कुछ धारण किये केवल बौद्धिक अभ्यास ही करते रहोगे तो कुछ भी नहीं समझ पाओगे। इसीलिए गुरुदेव कहते हैं कि मैं ही सभी कुछ हूं और सभी कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं हूं। मैं ही सूम और मैं ही दाता हूं और मैं ही सती रूप में तथा कुसती भी मैं ही हूं। जैसा जो देखता है में उसके लिए तो वैसा ही हूं। चाहे वो मुझे जिस रूप में देखे, वह तो उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है।

नव दाणूं निरवंश गुमाया, कैरव किया फती फती।

मैनें समय समय पर अनेकों अवतार धारण करके धर्म की स्थापना की है तथा राक्षसों का विनाश किया है, उनमें नौ राक्षस अति बलशाली थे। वे कुम्भकरण, रावण, कंस, केशी, चण्डरू, मधु, कीचक हिरणाक्ष तथा हिरण्यकश्यपू। इनके लिए विशेष अवतार धारण करने पड़े तथा कौरव समूह जो साथ में जुड़कर उपद्रव किया करते थे। उनको भी बिखेर दिया। मृत्यु के मुख में पंहुचा दिया। यह तो कृष्ण का राजनैतिक योद्धा का रूप था।

राम रूप कर राक्षस हड़िया, बाण कै आगै बनचर जुड़िया। तद म्हें राखी कमल पती, दया रूप महें आप बखाणां। संहार रूप म्हें आप हती।

राम रूप धारण करके मैनें अनेकानेक राक्षसों का विनाश किया और लंका में जाकर रावण को मारने के लिए बाण खींचा था। तब भी हनुमान सुग्रीव सहित वानर सेना मेरे आगे आकर सेना रूप में जुड़ गयी थी तथा उस भयंकर संग्राम में भी कमल फूल सदृश कोमल स्वभाव वाले विभीषण एवं कमला सीता की उन राक्षसों से रक्षा की थी। वे मदमस्त हाथी सदृश उन कोमल कमल कलियों को कुचलना चाहते थे। मेरे दोनों ही रूप प्रसिद्ध है, जब में दया करता हूं तो परम दयालु हो जाता हूं और राक्षसों से जब युद्ध करता हूं तो महाभयंकर हत्यारा हो जाता हूं।

सोलै संहस नवरंग गोपी, भोलम भालम टोलम टालम। छोलम छालम, सहजै राखीलो,म्हे कन्हड़ बालो आप जती।

भोमासुर ने सोलह हजार कन्याओं को जेल में डाल दिया था और यह प्रण कर रखा था कि जब बीस हजार हो जायेगी तब इनसे विवाह करूंगा। वे कन्याऐं ही थी, गोप-बालाएं भोली भाली थी तथा सभी साथ में रहकर मेलमिलाप वाली थी। अब तो उनके खेलने-कूदने, शारीरिक, मानसिक विकास का समय था। किन्तु दुष्ट भोमासुर ने उन्हें कैदी जीवन जीने के लिए मजबूर किया था। मैनें भोमासुर को मार करके उन्हें सहज में ही मुक्त करवा दी थी तथा उन्हें शरण भी दी। वे गोपियां मुझे पति परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। फिर भी में कृष्ण रूप में यति बाल ब्रह्मचारी ही था। इतनी पत्नियां होते हुए भी बाल ब्रह्मचारी होना यह ईश्वरीय करामात ही है।

छोलबीया म्हें तपी तपेश्वर, छोलब किया फती फती। राखण मतां तो पड़दे राखां, ज्यूं दाहै पांन वणासपती।

इन गोपियों के साथ रमण करने वाला मैं स्वयं तपस्वियों का भी तपस्वी हूं। वहीं गोपी ग्वालबालों का प्रिय मैं जब उनके साथ खेल खेला करता था तब तो मण्डली जुड़ी थी किन्तु मैं जब वृन्दावन छोड़कर चला गया तो पुनः उस मण्डली को छिन्न-भिन्न कर दिया। यही जोड़तोड़ करने वाला मैं यदि रक्षा करना चाहूं तो भंयकर अग्नि में से एक सूखे पते की भी रक्षा कर सकता हूं और यदि मैं न चाहूं तो रक्षा के सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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