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*अलख अलख तूं अलख न लखणा*
पूर्वोत्तर प्रसंगानुसार! जब उस आगंतुक साधु ने गुरु जंभेश्वर महाराज से शब्द सुना तो उसे जाम्भोजी के विषय में ज्ञान हुआ तथा उसने उस ग्रामीण महिला के प्रति कुछ कटु शब्द कहे,तब गुरु महाराज ने उसे कड़वे शब्द न बोलने के लिए तथा ब्रह्म की एकता एवं अद्वेतता के संबंध में यह शब्द कहा:-
*अलख अलख तू अलख न लखना मेरा अनन्त इलोलूं।*
हे भक्त! तुम बड़े भोले हो। अलख,अलख है,उसे कोई कैसे लख सकता है। वह परमपिता परमात्मा निरंजन है, अलख है, उसके रूप और उसकी इच्छा को कोई सामान्यतः कैसे जान सकता है?तुम्हारी भावनाएँ एवं लालसाएँ अनंत है, जब तक तुम्हारे ह्रदय के सागर में कामनाओं की हिलोरे उठती रहती है, मन शांत होकर एकाग्र नहीं बन जाता, तब तक तुम्हारी कोई भी साधना सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकती।
*कौन सी तेरी करणी पुजै, कौन से तिहिं रूप सतूलुं।*
जब तक किसी में अहम भाव, अपना- पराया मौजूद है,उसकी पृथकता मिट नहीं सकती।वह परमात्मा के समान नहीं बन सकता ऐसा कोई नहीं है कि वह भी रहे और परमात्मा भी रहे तथा वह परमात्मा के समान बन जाए। जीव ब्रह्म में लीन हो कर ब्रह्म स्वरूप तो बन सकता है,परंतु ब्रह्म के समान नहीं बन सकता। जैसे ही जीव को ज्ञान होता है, उसका अहम् भाव गिर जाता है। तब दो नहीं, केवल एक ब्रह्म ही शेष रहता है।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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*जाम्भाणी शब्दार्थ*
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