विसन विसन तूं भण रे प्राणी इस जीवन के हावै
रत्ना राहड नाम का व्यक्ति गाँव जाँगलू का रहने वाला था। उसने अपना जीवन अतिथियों एवं साधु संतों की सेवा में लगा रखा था। एक बार वह गुरु जंभेश्वर के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने यह जिज्ञासा प्रकट की कि वह ज्ञान,दान एवं भक्ति में किसका अधिकारी है ?उसे क्या करना चाहिए ताकि वह बैकुंठ धाम को पा सके।रत्ने की जिज्ञासा जान गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-

विसन विसन तू भण रे प्राणी इण जीवण के हावैं
छिण छिण आव घटंती जावै मरण दिनो दिन नेड़ौ आवै

हे प्राणी!जब तक तुम्हारा यह जीवन है, तुम निरंतर विष्णु नाम का जप करते रहो।तुम इस सच्चाई को समझो कि क्षण- क्षण, पल -पल तुम्हारी आयु घटती जा रही है।दिनों दिन तुम्हारी मौत तुम्हारे पास और पास आ रही है। तुम ज्यों-ज्यों एक-एक साँस लेते हो,तुम्हारी उम्र साँस-साँस के साथ कम होती जा रही है। तुम निरंतर मौत के नजदीक जा रहे हो।

पालटियौ घट कांय न चेत्यो लगन लिख्यौ घाती रोल भनावै
तुम्हारा यह शरीर पहले बालक था फिर जवान बना और उसके बाद वृद्ध हो गया।तुम इस शरीर गढ़ के अंदर बैठे हुए इस परिवर्तन के साक्षी होते हुए भी क्यों नहीं होश में आये? क्यों अचेत बने रहे? इस शरीर के परिवर्तन से तुम्हें जान लेना चाहिए था कि जीवन नाशवान है। इस शरीर में बैठा,यह चंचल मन बड़ा चालाक है। इस मन ने तुम्हें भ्रम में रखा। तुम काल की सच्चाई को नहीं समझ सके।

गूरू मूख मूरख चढ़ै न पोहण गींवर मन मूख भार उठावै

हे प्राणी!तुम गुरु के बताये हुए ज्ञान रूपी जहाज पर न चढकर अपने मन के कहने में आकर मन मुखी होकर इस संसार में दुःखों का अज्ञानता का भार ढोते रहे।

ज्यूं ज्यूं लाज दूनिं की लाजै त्यूं त्यूं दात्यो दाबै

ज्यों-ज्यों तुम दुनियादारी की लाज निभाते रहे, त्यों-त्यो तुम्हारे उत्तर्दायित्व बढते रहे और तुम उन झूठे दायित्वों से दबते गये।

भलियो होय सो भली बूध आवै बूरियो बूरी कूमावै।।

इस संसार में भले और बुरे की पहचान ज्ञान और कर्म से होती है। जिसमें अच्छी समझ है, वह भला है और जो बुरे कर्म करता है, वही बुरा है।मन और संसार की चालाकी को समझौ तथा भले बनो।

बूरो जूण चौरासी भूंवसी भलो आवागमन न आवै

बूरा व्यक्ति चौरासी लाख योनियों में भटकता है पर भला आदमी आवागमन से मुक्त हो जाता है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जाम्भाणी शब्दार्थ


Discover more from Bishnoi

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
Articles: 1748

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *