शब्द नं 111

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खरड़ ओढीजै तूंबा जीमीजै
एक बार चित्तौड़ की झाली रानी गुरु जंभेश्वर महाराज के दर्शनार्थ,चित्तौड़ से समराथल, खींदासर,जैसलां,झीझाले, भीयासर आदि प्रमुख साथरियों में होती हुई जाम्भोलाव तालाब पर पहुँची। वहाँ गुरु जंभेश्वर महाराज उस समय विराजमान थे।झाली रानी ने गुरु महाराज के दर्शन किये तथा वह आठ दिनों तक अनेक धार्मिक अनुष्ठान किए।जब जाम्भोलाव तालाब से वापिस चितौड़ जाने को प्रस्थान करने लगी,तब रानी ने गुरु महाराज से प्रश्न किया कि आप ने रामावतार में अयोध्या में जो सुख भोगा था, उसे तो मैं जानती हूँ।परंतु आप यहां इस मरू प्रदेश में किस प्रकार का सुख पा रहे हैं?कृपया हमें बतलावें।झाली रानी की जिज्ञासा जान गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-
खरड़ ओढ़ीजै तूंबा जीमीजै सुरहै दुहीजै

भाखले जैसा मोटा कपड़ा जो भी मिल जाय पहन लेना चाहिये खाने को जो भी प्राप्त हो जाए उसे प्रसन्नतापूर्वक खाना चाहिये घर में रूखा सुखा खारा कडुआ जो भी मिले अथवा गाय दुही जाए दुध दही घी आदि मिले एक समान समझकर भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए

किरत खेत की सींव मैं लीजै पीजै ऊंडा नीरूं

अपने खेत की ही कमाई लेनी चाहिए और स्वच्छ पानी पानी चाहिए खान-पान और वस्त्रों में अत्यन्त ही सादगी स्वच्छता तथा संतोषी वृत्ति रखनी चाहिये और हक की कमाई खानी चाहिए

सुर नर देवा बंदी खानै तित उतरिया तीरूं

सुर नर और देव सभी बन्धन में है (समयानुसार इनको भी आवागमन के चक्कर में आना पड़ता है फिर सांसारिक मनुष्यों की तो सामर्थ्य ही क्या है ? अतः में इस संसार के बंधन में पड़े हुए लोगों के उद्धारार्थ यहां आया हूँ

भोलम भालम टोलम टालम ज्यूं जाणों त्युं आणों

भूले भटके भोले भोले लोगों की टोलीयों की टोलियां जैसे बिना किसी प्राप्ति के इस संसार में आती है और जाती है निरन्तर आवागमन के चक्र में फँसे ही रहते है

म्हे वाचा दई पहराजा सूँ सुचेलो गुरू जालै कोड तेतीसूं वाड़े दीन्ही तिनकी जात पिछाणों

सतयुग में भक्त प्रहलाद ने मुझसे तेतीस कोटि जीवों के उद्धार का वचन लिया था उस वचन को पूरा करने हेतु मुझे यहां आना पड़ा है मैं उनको भली-भांति पहचानता हूं अथवा में उनके आवागमन को भली-भांति जानता हूं यदि दिया हुआ यह वचन पूरा नहीं होता है तो गुरु और शिष्य दोनों के लिए लज्जा की बात है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ व जम्भवाणी टीका

Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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