विश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक गुरू जांभोजी एवं उनके शिष्य अलूनाथ जी कविया

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सिद्ध महात्मा अलूनाथ जी कविया के पूर्वज अपने मूल स्थान बिराई को छोड़ सणला में आ बसे थे। वहाँ 1520 मे हेमराज जी के घर अलू जी का जन्म हुआ। इनकी माता के नाम आशाबाई था जो सान्दू शाखा से थी। अलू जी की पत्नी का नाम हंसा बाई था। आमेर नरेश कछवाह पृथ्वीराज के पुत्र रूप सिंह जी ने इन्हें कुचामण के पास जसराणा गाँव दिया था। जसराणा ग्राम में ही 1620 मे अलूजी ने 100 वर्ष की आयु में जीवित समाधि ली थी। वहाँ इनका समाधि मंदिर एवं ओयण छोड़ा हुवा है। इनके वंशज आज सेवापुरा में हैं। चारण भक्त कवियों मे अलूजी बापजी का नाम बड़ी श्रद्धा एवं आदर से लिया जाता है।
एक दोहा प्रसिद्ध है,

ईश,अलू ,करमाणंद, आणंद सूरदास पुनि संता।
माँडण ,जीवा केशव,माधव नरहर दास अनंता।।

अलूजी ने गुरु जाम्भोजी को अपना गुरु माना था। अलूजी ने अपने छप्पयों में गुरु जाम्भोजी की अभ्यर्थना विष्णु एवं कृष्ण के साक्षात अवतार रूप में की है और उन्हें अपना सतगुरु माना है।

।।छप्पय।।
जिण वासिग नाथियो, जिण कंसासुर मारै।
जिण गोकळ राखियो, अनड़ आंगळी उधारै।।
जिणि पूतना प्रहारि, लीया थण खीर उपाड़ै।
कागासर छेदियो, चंदगिरि नांवै चाड़ै।।
एतळा प्रवाड़ा पूरिया, अवर प्रवाड़ा प्रभ सहै।
अवतार देख जंभ ‘अलू’, कन्ह तणो अवतार कहै।।1।।

जिस दैवी शक्ति ने यमुना को विषाक्त बनाने वाले महा विषधर कालिये को वश में किया,प्रजा-पीड़क नराधम कंस जैसे राजा का संहार किया,जिसने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को धारण कर इन्द्र के प्रकोप से ब्रज को बचाया। जिसने शिशु रुप में दूध पीते हुए मायाविनी पूतना के विष-लेपन किये हुए स्तनों को उखाड़ कर प्राण हर लिये,जिसने छद्मवेशी उत्पीड़क बकासुर का वध किया-ऐसे अनेक दिव्य कर्मों के करने से संसार में भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति अक्षय बनी हुई है। भगवान के इतने अदभुत चमत्कार तो हो चुके हैं,और आगे भी चमत्कार होंगे वे केवल उसके ऐश्वर्य से ही सम्भव हैं। कवि अलूजी कहते है कि:-जम्भदेवजी के दर्शन कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे भगवान श्री विष्णु व भगवान श्रीकृष्ण भगवान के अवतार ही है।

 

तुं हीं सांम सधीर, धरा अम्बर जिण धरियो।
तरे नाम गजराज, ध्रुव पहळाद उधरियो।
परिखत अमरीख, परं भगतां परपाळै।
संखासर संधार, वेद तैं ब्रह्मा वाळै।
सुरं परमोधण तारण संतां, वरण तूझ अवरण वरूं।
उबारियो ‘अलू’ आयो सरण, जैओ देव जांभेसरू।।2।।

हे सदगुरु देव! इस पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले तुम ही साक्षात भगवान हो,जिसके नाम-स्मरण मात्र से गजेन्द्र का मोक्ष हो गये और ध्रुव एवं प्रहलाद जैसे परम भक्तों की रक्षा की। तुमने शंखासुर दैत्य का,जो पृथ्वी लोक को वेदों के ज्ञान से वंचित रखने की कामना से चारों वेदों को चुरा कर समुन्द्रतल में चला गया था,पीछा कर उसका वध किया और ब्रह्मा के वेदों को पुनः पृथ्वी पर लौट लाये। अस्तु, एक बार तुम्है आराध्य मानने के बाद अब किसी अन्य देव की उपासना करना सम्भव नहीं रहा। अलूनाथ कहता है गुरुदेव जम्भेश्वरजी!तुमने मेरे प्राणों की रक्षा की है,अब मैं तुम्हारी शरणापन्न हुआ हूँ! तुम्हारी जय हो।

कलम जका ताहरी, अवर कुण कलम’ज वाळै।
प्राण मा प्राण पैदा करे, नमो पोखे प्रतिपाळै।
तूं ही दाता तूं ही देव, तूं ही आतसां अधारै।
तुं ही जोख्यो तूं ही जीव, तूं ही तारे तूं मारै।
त्रिगुण पंच तत अनादि सहित, कीया मनसा धारि करि।
मो भोग भलो ‘अलू’ भणें, सतगुरु प्रगट मिलायो संभरि।।3।।

एक बार तुम्हारी कलम ने किसी के भाग्यांक में जो लिख दिया तो किसी अन्य की क्या सामर्थ्य हैं कि उसमें तनिक भी फेरबदल कर सके? तुम ही संसार के प्राणों का संचार करने वाले हो,जीव मात्र का पालन पोषण करने वाले हो।
तुम ही संसार के सारे प्राणियों की आवश्यकता की पूर्ति करने वाले हो।और प्राण रूप अग्नि के आधार हो।तुम ही आनन्द स्वरूप और जीवात्मा हो,सृष्टी के सृजनहार और संहार कर्ता हो। तुम ही सत,रज,तम आदि तीन गुण हो।आकाश, वायु, तेज, जल, धरती पंच तत्व हो। कवि अलूजी चारण कहते है कि-मेरा कैसा सौभाग्य है कि आज मुझै ‘संभराथळ धोरे’ पर सदगुरु जम्भेश्वरजी के रूप में साक्षत विष्णु के दर्शन हो रहै है।

कहां मको कहां सेख, सूर सिसिहर कहां संकर।
एक रोम अंतरो, बसे ब्रह्मंड नीरंतिर।
चरण पांण निज बांण, भांति अद्भूत दिखावंत।
संख च्रक सूं जुगति, गदा वारंत विरचावंत।
पचास कोस सायर पवड़, सरंणि चंद रसण्य धरणि।
एक अलख जंप ‘अलू’, श्री बारह तो पाए सरंणि।।4।।

कहां मक्का शरीफ़ का पावन स्थल और कहां इस्लाम धर्मावलंबी शेख़ और पीर? कहां सूर्य,चंद्रमा और महेश्वर शंकर।उस अंनन्त ब्रह्म के एक-एक रोम में कोटी-कोटी ब्रह्माण्ड निरंतर निवास करते है।उनके चरण कमलों की शोभा अद्भुत है।उनके पाणि पल्लवों में शंख चक्र,गदा और पद्भ धारण किये हुए हैं। कवि अलूनाथजी कहते है-वह एक निराकार ब्रह्म के नाम की जयकार करता है।श्री जम्भेश्वर गुरु बारह कोटि जीवों को अपनी शरण में लेकर उद्धार करने अवतरित हुए हैं।

वैद जोग वैराग, खोज दीठा नर निंगम।
सन्यासी दरवेस, सेख सोफी नर जंगम।
विथा वियापि मोहि, आज आसा धरि आयो।
पांणी अंन अहार, पेटि सुख परचौ पायो।
पांचवो वेद सांभळि सबद, च्यार वेद हूंता चलू।
केलळी जंभ सावळ कहण, आज सांच पायो ‘अलू’।।5।।
(प्रस्तुत छप्पय में कवि की असह्य उदर-शूल की व्याधि का निवारण श्री जाम्भोजी के दर्शन और स्पर्श से होने का संकेत है)
अपनी शारीरिक व्याधि के निवारण हेतु मैंने बड़े-बड़े वैद्यों,योगियों,वैरागियों और वेद के विद्वानों की तलाश की।संयासियों,उच्च कोटी के फकीरों,पीरों,सूफी महात्माओं आदि के पास गया लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ।आज जब उदर की पीड़ा अत्यधिक बढ गयी तो मैं बड़ी आशा के साथ यहां (संभराथळ धोरे) आया और आते ही ऐसा चमत्कार हुआ कि पेट व्याधि एकदम मिट गयी और आराम मिल गया। संसार में अब तक चार वेद प्रसिद्ध हैं लेकिन जम्भदेव द्धारा रचित ‘सबद’ को सुनकर ऐसा लगा मानो ज्ञान का भण्डार यह पांचवां वेद ही है। कवि अलूनाथ कहता है – आज परम ज्ञानी जम्भेश्वर के दर्शन कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे मैंने साक्षात् सत्य के दर्शन किये हों।

अगनी कोट आतस्य, कोट हेमाजळ सीतळ।
कोट कोट बिरमांड, रोम रोम आरबळ।
कोट सूर आदीत, कोट ससियर सुधाकर।
कोट पवन अति चपल, कोट वसै धाराहर।
कंदरफ कोटि लक्खन मही, छिमा कोट धारत वई।
गंभीर कोटि समन्दर हरी, सायर आरति हूवई।।6।।

मति गिनांन सुमंति, कुंमति नहीं आवै कांई।
सुरति गिनांन सु होय, परखि जा घटि उपजाई।
अवध्य गिनांनि सो होय, आरबळ दीय सुं गाई।
मंन पर जोजवी गिनांन, जोजन लग दीय बताई।
केवळ गिन्यांन सारां सिरै, जौंण जांण सकल।
पांचवौ न्यांन न ऊपजै, सकळां सीरि सोई अकल।।7।।

दई दरस ओळख्यो, पुरष पावक पुरष प्राणी।
पुरष दरस अधकंप, पुरष धरि अवर जाणी।
परसै पुरष रवि चंद, पुरष निज नखत निरंतरि।
पुरष परमल पोहप, पुरष अंजण अंतरि।
अठारा भार बनासपती, पात पात पेख्यो छई।
घटि घटी रूप अरूप, रूप सोई पुरष ‘अलू’ दरस दई।।8।।

कह करता गति कुण सुरपति परखै।
अलख कुण ओळखै, दई कुण परगट देखै।
घट्ट घट्ट अवघट्ट, नेक नहिं होय न्यारो।
फळै ही पाळी हेत, प्रमणता प्रेम जिंहिं प्यारो।
पेखतां पार पायो नहीं, पार बिरम पिंजर रहै।
पवन पराक्रम परम हंस, कहि करता गति कुण लहै।।9।।

सिव सेस सुखम सहित, जुगत अलि मन्दिर जाणे।
शबद अनाहद सुणै, प्रीत सूं हंस पिछाणे।
जिसी मनसा जपै, पोहमि तैसा फळ पावै।
साच सील संतोष, सहज सायोज समावे।
नव दूण वयण ब्रांह्मण, सहत साख वेद स्मृति सही।
अहनिस्स वीनवै ‘अलू’, प्रभु आरति निरखत तहीं।।10।।

पुस्तक:- सिद्ध अलूनाथ कविया
संपादक:-फतहसिंह “मानव”
प्रकाशक:-साहित्य अकादमी नयी दिल्ली
प्रेषक:-उदाराम खिलेरी “अध्यापक”

 

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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