अमर रहेगी युगपुरुष की गाथा (Part 1)

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डॉ. सुरेन्द्र कुमार बिश्नोई दयानन्द महाविद्यालय, हिसार (हरियाणा) मो. : 9812108255

पंद्रहवीं शताब्दी में तत्कालीन जोधपुर परगने के गांव मांझवास (वर्तमान राजस्थान के नागौर जिले में स्थित) में कुंभाराम मांझूगोत्रीय जाट रहते थे। उनके पुत्र रेड़ाराम जी थे जो एक कर्मठ किसान होने के साथ-साथ एक उच्च कोटि के भावुक भक्त थे। वे हर समय कुछ सीखने एवं ग्रहण करने यानि अपनाने को उत्सुक रहते थे। साधु-संतों और महापुरुषों के प्रति उनके हृदय में अतीव श्रद्धाभाव था। मध्यकालीन भारत में आए पतन से वे दुखी थे तथा किसी समाज-सुधार आंदोलन का अंग बनना उन्हें अभीष्ट था। सन् 1485 में जब संभराथल धीरे पर गुरु जांभोजी ने बिश्नोई पंथ का प्रवर्तन किया तो रेड़ाराम मांझू उन अग्रिम पंक्ति के लोगों में से थे जो पाहल ग्रहण कर बिश्नोई बने थे। गुरु जांभोजी का अधिकाधिक सान्निध्य प्राप्त करने के लिए रेड़ारामजी मांझवास छोड़कर संभराथल धीरे के निकट स्थित हिमटसर गांव में बस गए।

गुरु जांभोजी के परम भक्त रेड़ाराम के सात पुत्रों में से एक भलाराम हुए। भलाराम भी पिता के समान गुरु जांभोजी जी के अनन्य भक्त और साधु-संतों व अतिथियों के सेवक थे। भलाराम जी ने अपनी युवावस्था में ही हिमटसर छोड़कर वर्तमान जोधपुर जिले की फलौदी तहसील के मुंजासर गांव को अपना निवास स्थान बना लिया। बिश्नोई धर्म के प्रतिपालक भलारामजी की दसवीं पीढ़ी में लाखाराम हुए। लाखाराम भी अपने पूर्वजों की भांति गुरु जांभो जी के श्रद्धालु भक्त व29 धर्मनियमों के कट्टर प्रतिपालक थे।

18वीं और 19वीं शताब्दी में वर्तमान हरियाणा और पंजाब की उपजाऊ भूमि ने मारवाड़ के लोगों को स्थानांतरति होने के लिए प्रेरित किया था, फलस्वरूप बहुत से परिवार मारवाड़ से आकर इस भूमि को अपने पसीने से सींचने लगे। लाखाराम भी उन कर्मठ और साहसी लोगों में से एक थे जो अपना भाग्य आजमाने वर्तमान हरियाणा और पंजाब की भूमि पर आये थे। लाखाराम ने सन् 1808 में मुंजासर छोड़कर सपरिवार वर्तमान हरियाणा के फतेहाबाद जिले के बालनवाली गांव को अपनी कर्मस्थली बनाया था।

लाखाराम के पुत्र भूराराम और भूराराम के पुत्र श्योराम हुए। भूराराम और उनके पुत्र श्योराम ने भी अपने पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति और भगवद्भक्ति में श्री वृद्धि की तथा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए। श्योराम को तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई- चोखाराम,बगड़ावत और खेराज। चोखाराम और बगड़ावत का युवावस्था में ही निधन हो गया था।

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में वर्तमान हिसार, फतेहाबाद, सिरसा के अनेक किसान अपना भाग्य आजमाने तत्कालीन बहावलपुर, रियासत (वर्तमान पाकिस्तान में) में स्थानांतरित हुए, जहां सादगी सहित अनेक नहरें बहती थी। उसी समय श्योराम के परिवार का भी स्थान परिवर्तन का योग बना था। इसी योग के फलस्वरूप श्योराम व उनके पुत्र खेराज जी सादगी नदी के किनारे बसे कोड़ांवाली गांव में जा बसे। वर्तमान में यह गांव भारत-पाक सीमा से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर है। राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित पाल मुकुंद गांव से तो यह सामने ही दिखता है। श्योरामजी कोड़ांवाली गाँव में ही सन् 1925 में परलोक सिधार गये।

श्योराम के पुत्र खेराज का विवाह वर्तमान हिसार जिले में स्थित लीलस गांव के श्री हरसुख खिचड़ की सुपुत्री कुंदना देवी से हुआ था। हरसुख जी का परिवार अत्यन्त ही धार्मिक था, जिसका प्रभाव कुदना देवी पर भी पड़ा था। जब ससुराल भी धार्मिक भावना वाला मिला तो सोने पर सुहागा हो गया। 6 अक्टूबर, 1930 का दिन केवल खेराज के परिवार के लिए ही नहीं बल्कि पूरी सृष्टि के लिए बहुत बड़ी खुशी का दिन था। इसी दिन खेराज एवं कुदना देवी को एक भाग्यशाली एवं तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। प्रथम पुत्र होने के कारण घर में खुशियां छा गई।

आगे चलकर यही पुत्र इस दुनियां में चौधरी भजनलाल के नाम से विख्यात हुआ तथा मानवता का प्रतीक बना।

भजनलाल बचपन में एक बार अत्यन्त बीमार हुए तो माता कुंदना देवी बहुत चिंतित हुई। एक संत पुरुष ने अभिमंत्रित गुड़ दिया जिससे भजनलाल फिर से हृष्ट-पुष्ट हो गये। उसी महापुरुष से जब कुंदना देवी ने भजनलाल का भविष्य पूछा तो उसने एक यंत्र माता कुंदना देवी के सामने रखते हुए उसके किसी कोने पर उंगली रखने के लिए कहा। माता कुदना देवी ने किसी कोने पर उंगली रखने की अपेक्षा यंत्र के मध्य स्थान पर ऊंगली टिकाई। उस संत पुरुष ने भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन बहुत बड़ा राजा बनेगा। माता कुदना का मुख कमल खिल उठा। खेराज एवं कुंदना देवी दम्पत्ति को एक और पुत्र मनफूल सिंह तथा एक पुत्री भागां देवी की भी प्राप्ति हुई। खेराज जी एक कृषक होते हुए भी शिक्षा के प्रति जागरूक थे। इसलिए समय आने पर उन्होंने अपने सुपुत्र भजनलाल को कोड़ांवाली के स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया। पांचवी तक की पढ़ाई कोड़ांवाली से पूर्ण करने के बाद भजनलाल ने पड़ोस के गांव से आगे की पढ़ाई की। भजनलाल एक कुशाग्र बुद्धि वाले विद्यार्थी थे और उनकी स्मरण शक्ति का लोहा सभी विद्याथों व अध्यापक मानते थे।

सन् 1947 का अगस्त महीना सब हिन्दुस्तानियों के लिए विशेष स्थान रखता है। इसी महीने में आजादी की खुशी के साथ-साथ विभाजन का दुखद अभिशाप भी मिला था। विभाजन रूपी विषैले सर्प का दंश कोड़ांवाली को भी लगा, जिसका विष फैलता हुए खेराज के परिवार तक भी पहुंच गया। फलस्वरूप खेराज जी अपने हरे-भरे खेत, अन्न से भरे खलिहान और दुधारू पशुओं को छोड़कर वर्तमान भारत की ओर आ गये। कुछेक स्थानों पर अल्प निवास करने के बाद खेराज जी ने वर्तमान फतेहाबाद जिले के मोहम्मदपुर रोही को अपना निवासस्थान बनाया।

युवावस्था की दहलीज पर पांव रखते ही भजनलाल का सामना विभाजन प्रदत्त संघर्ष से हुआ। सादगी नहर की विपरीत लहरों में तैरने वाले युवा भजनलाल ने अब तक समय की विपरीत लहरों में भी तैरना सीख लिया था। विभाजन की विषम परिस्थितियों से उनके हृदय में विषाद या घबराहट नहीं बल्कि साहस व दृढ़ता उत्पन्न हुई। मोहम्मदपुर आकर भी खेराज जी ने अपना परम्परागत कृषि का व्यवसाय अपनाया परन्तु युवा भजनलाल का मन कृषि की अपेक्षा व्यापार की ओर अधिक झुकने लगा। उन्हें तो अपना दायरा बढ़ाकर इस धरती पर परोपकार की एक इबारत लिखनी थी जो केवल घर और खेती तक सीमित रहकर नहीं लिखी जा सकती थी। 1949 में युवा भजनलाल माता-पिता की आज्ञा से व्यापार के क्षेत्र में कुद पड़े और अपनी कर्मस्थली बनाया आदमपुर को। कपड़े के व्यापार से उन्होंने अपना कार्य शुरू किया। अपने मृदुल व्यवहार, ईमानदारी और कर्मठता से उनकी ख्याति शीघ्र ही फैलने लगी। लग्नशील, महत्वाकांक्षी एवं दूरदर्शी भजनलाल ने शीघ्र ही अपने व्यापार को बढ़ावा दिया और घी के निर्यात का कार्य भी शुरू कर दिया।

यह युवा भजनलाल की कर्मठता व ईमानदारी ही थी कि उत्तरी भारत में आदमपुर की पहचान देसी घी वाले आदमपुर से होने लगी। इन्हीं संघर्ष के दिनों में आदमपुर में पोकरमल के रूप में युवा भजनलाल को एक मित्र की प्राप्ति हुई। दोनों मिलकर एक और एक ग्यारह हो गये। आदमपुर में ही चौधरी पोकरमल भजनलालके नाम से 1954 ई. में आढ़त का काम शुरू किया। यह भजनलाल की प्रबंधन कुशलता ही थी कि साठ का दशक शुरू होते-होते तो वे अपने व्यवसाय में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे।

श्री भजनलाल का विवाहवर्तमान फतेहाबाद जिले के लालवास गांव के श्री बृजलाल जी ज्याणी की सुपुत्री जसमां देवी से हुआ। भगवान की भक्ति, घंटों-घंटों तपस्या और भजन कीर्तन तो मानो जसमां देवी को जन्म घुट्टी के रूप में ही मिले हैं। विवाह के बाद तो भजनलाल के घर में धर्म और अर्थ साथ-साथ दिन दुगने और रात चौगुने बढ़ने लगे। हर सफल व्यक्ति की सफलता में उसकी अद्धांगिनी का पूरा-पूरा सहयोग रहता है। यह बात चौधरी भजनलाल जी की सफलताओं में अक्षरश: सही साबित होती है। जीवनभर चौधरी भजनलालजी के सफलता की ओर बढ़ते चरणों को जसमां देवी का सहारा मिलता रहा। श्री भजनलाल व श्रीमती जसमां देवी को रोशनी देवी के रूप में एक सुपुत्री वचन्द्रमोहन और कुलदीप के रूप में दो सुपुत्रों की प्राप्ति हुई।

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Sanjeev Moga
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