
सबद-14 : ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं, शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई। मेरा शब्द खोजो, ज्यूं शब्दे शब्द समाई।
दोहा‘‘ फेर जाट यों बोलियो, जाम्भेजी सूं भेव। वेद तंणां भेद बताय द्यो, ज्यों मिटै सर्व ही खेद। तेहरवां शब्द श्रवण करके फिर वह जाट कहने लगा कि हे देव! वेदों के बारे में मैने बहुत ही महिमा सुनी है। इसका भेद आप मुझे बतला दीजिये। जिससे मेरा संशय निवृत हो सके। श्री देवजी ने उसके प्रति यह दूसरा शब्द सुनाया- √√ सबद-14 √√ ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं, शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई। मेरा शब्द खोजो, ज्यूं…

सबद-15 ओ३म् सुरमां लेणां झीणा शब्दूं, म्हे भूल न भाख्या थूलूं।
‘‘दोहा‘‘ जाट कहै सुण देवजी, सत्य कहो छौ बात। झूठ कपट की वासना, दूर करो निज तात। इन उपर्युक्त दोनों सबदों को श्रवण करके वह जाट काफी नम्र हुआ और कहने लगा- हे तात! आपने जो कुछ भी कहा सो तो सत्य है किन्तु मेरे अन्दर अब भी झूठ कपट की वासना विद्यमान है। आप कृपा करके दूर कर दो। √√ सबद-15 √√ ओ३म् सुरमां लेणां झीणा शब्दूं, म्हे भूल न भाख्या थूलूं। भावार्थ- हे जाट! तूं इन मेरे वचनों…

सबद-16 : ओ३म् लोहे हूंता कंचन घड़ियो, घड़ियो ठाम सु ठाऊं। जाटा हूंता पात करीलूं, यह कृष्ण चरित परिवाणों।
ओ३म् लोहे हूंता कंचन घड़ियो, घड़ियो ठाम सु ठाऊं। जाटा हूंता पात करीलूं, यह कृष्ण चरित परिवाणों। भावार्थ- प्रारम्भिक अवस्था में सोना भी लोहा जैसा ही विकार सहित होता है। खानों से निकालकर उसे अग्नि के संयोग से तपाकर विकार रहित करके सोना बनाया जाता है तथा उस पवित्र स्वर्ण से अच्छे से अच्छा गहना आभूषण बनाया जाता है जिसे युवक युवतियां पहनकर आनन्दित होते है। उसी प्रकार से इस मरूदेशीय जाट भी लोहे जैसे ही थे किन्तु अब मेरी…

सबद-17 : ओ३म् मोरै सहजे सुन्दर लोतर बाणी, ऐसो भयो मन ज्ञानी।
‘दोहा‘‘ जाट परच पाऐ लग्यो, हृदय आई शांत। सतगुरु साहब एक है, गई हृदय की भ्रान्त। प्रसंग दोहा विश्नोईयां ने आयके, इक बूझण लागो जाट। जाम्भोजी के अस्त्री है, ओके म्हासूं घाट। विश्नोई यूं बोलियां, नहीं लुगाई कोई। निराहारी निराकार है, पुरू पुरूष परमात्म सोई। झगड़त झगड़त उठ चल्या, जम्भ तंणै दरबार। जायरूं पूछै देव ने, इसका कहो विचार। जम्भेश्वर इण विधि कह्यो, थे जु लुगाई जान। विश्नोई ऐसे कह्यो, दीठी सुणी न कान। सबद सुणायों देवजी, ऐसे कह्यो विचार।…

सबद-18 ओ३म् जां कुछ जां कुछ जां कुछू न जांणी,नां कुछ नां कुछ तां कुछ जांणी।
ओ३म् जां कुछ जां कुछ जां कुछू न जांणी,नां कुछ नां कुछ तां कुछ जांणी। भावार्थ- जो व्यक्ति कुछ जानने का दावा करता है अपने ही मुख से अपनी ही महिमा का बखान करता है। वह कुछ भी नहीं जानता, , अन्दर से बिल्कुल खोखला है और इसके विपरीत कोई व्यक्ति कहता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता वह कुछ जानता है। अहंकार शून्यता ही व्यक्ति को ज्ञान का अधिकारी बनाता है। इस दुनिया में अपार ज्ञान राशि है…

शब्द – 19 ओ३म् रूप अरूप रमूं पिण्डे ब्रह्मण्डे, घट घट अघट रहायो।
ओ३म् रूप अरूप रमूं पिण्डे ब्रह्मण्डे, घट घट अघट रहायो। भावार्थ- रूपवान अरूपवान प्रत्येक शरीर तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मैं ब्रह्म रूप से रमण करता हूं। दृष्ट रूप कण कण मे तथा अदृष्ट रूप कण कण में मैं सर्वत्र तिल में तेल, फूल में सुगन्ध्धी की तरह हर जगह प्रत्येक समय में समाया हुआ हूं। इसलिये सर्व व्यापकत्व परमात्मा स्वतः ही सिद्ध होता है। अनन्त जुगां में अमर भणीजूं, ना मेरे पिता न मायो। मैं देश तथा काल से भी…

सबद-20 : ओ३म् जां जां दया न माया, तां तां बिकरम काया।
ओ३म् जां जां दया न माया, तां तां बिकरम काया। भावार्थ- जिस जिस व्यक्ति में दया भाव तथा प्रेम भाव नहीं है, उस व्यक्ति के शरीर द्वारा कभी भी शुभ कर्म तो नहीं हो सकते। सदा ही मानवता के विरूद्ध कर्म ही होंगे। इसलिये दया तथा प्रेम भाव ही शुभ कर्मों का मूल है। जां जां आव न वैसूं, तां तां सुरग न जैसूं। जहां जहां पर आये हुऐ अतिथि को आदर – सत्कार नहीं है अर्थात् ‘‘आओ, , बैठो,…

सबद-21 ओ३म् जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, ते सरवर कित नीरूं।
देव दवारै चारणी, चल कै आयी एक। बाललो चाड़यो गले को, लीयो नहीं अलेख। देव कहै सुण चारणी, मेरे पहरै कोय। बेटा बहु मेरे न कछु, बाललो पहरै सोय। चारणी कहै सुण देवजी, ऊंठ दरावों मोय। घणी दूर मैं नाव को, प्रगट करस्यो तोहि। बाजा खूब बजाय के, कहूं तुम्हारो जस। मो दीने बड़पण मिले, नित मिले अजस। किति एक दूर प्रगट करे, कही समझावो भेव। आठ कोठड़ी मैं फिरूं, सब जाणै गुरु देव। गुरु जाम्भोजी के पास सम्भराथल पर…

सबद-22 : ओ३म् लो लो रे राजिंदर रायों, बाजै बाव सुवायो। आभै अमी झुरायो, कालर करसण कियो, नैपै कछू न कीयो।
“प्रसंग-दोहा” वरसंग आय अरज करी, सतगुरु सुणियें बात। तब ईश्वर कृपा करी, पीढ़ी उधरे सात। म्हारै एक पुत्र भयो, झाली बाण कुबाण। माटी का मृघा रचै, तानै मारै ताण। बरसिंग की नारी कहै, देव कहो कुण जीव। अपराध छिमा सतगुरु करो, कहो सत कहैं पीव। धाड़ेती गऊ ले चले, इक थोरी चढ़ियो बार। रूतस में प्रभू मैं भई, दृष्ट पड़यों किरतार। तब सतगुरु प्रसन्न भये, दुभध्या तजे न दोय। सत बात तुमने कही, सहजै मुक्ति होय। जांगलू धाम निवासी बरसिंग…

सबद-23 ओ३म् साल्हिया हुवा मरण भय भागा, गाफिल मरणै घणा डरै
‘प्रसंग-8 दोहा’ विष्णु भक्त गुंणावती, रहे जूं तेली जात। विश्नोई धर्म आचरै, जम्भेश्वर किया पात। एक मृघा और तेल पे, आठ सै एक हजार। खड़े सकल वानै चढ़ै, वह्या करारी धार। थलसिर हरखे देवजी, साथरियां बूझे बात। भाग खुलै किस जीव के, कहिये दीना नाथ। गुणावती नगरी निवासी तेली जाति के कुछ व्यक्ति थे। वे तिलों से तेल निकालने का कार्य करने वाले तथा भगवान विष्णु के उपासक थे। उन्हें सुजीव समझकर श्री देवजी ने पाहल देकर पवित्र किया और…

सबद-24 ओ३म् आसण बैसण कूड़ कपटण, कोई कोई चीन्हत वोजूं वाटे। वोजूं वाटै जे नर भया, काची काया छोड़ कैलाशै गया।
: प्रसंग-9 दोहा : विश्नोवण एक आय कह्यो, आयस तणों विचार। ढ़ोसी की पहाड़ी हिलावै, ताका कहो आचार। सम्भराथल पर एक बिश्नोई स्त्री ने आकर जम्भदेवजी से कहा-कि यहां ढ़ोसी नाम की पहाड़ी पर एक योगी बैठा हुआ है। वह कभी कभी ऐसा लगता है कि पहाड़ी को हिला देता है इसमें सच्चाई या झूठ का कुछ पता नहीं है और यह भी मालूम नहीं है कि उसमें सिद्धि है या पाखण्ड? इसका निराकरण कीजिये। इस शंका के निवारणार्थ यह…

शब्द -25 ओ३म् राज न भूलीलो राजेन्द्र, दुनी न बंधै मेरूं। पवणा झोलै बिखर जैला, धुंवर तणा जै लोरूं।
ओ३म् राज न भूलीलो राजेन्द्र, दुनी न बंधै मेरूं। पवणा झोलै बिखर जैला, धुंवर तणा जै लोरूं। भावार्थ- हे राजेन्द्र!इस राज्य की चकाचौंध में अपने को मत भूल। अपने स्वरूप की विस्मृति तुझे बहुत ही धोखा देगी तथा दुनिया मेरी है इस प्रकार से दुनिया में मेरपने में बंधना नहीं है। यदि इस समय तुम स्वयं बंधन में आ गये तो फिर छूटने का कोई उपाय नहीं है। यह संसार तो जिसे तुम अपना कहते हो यह धुएं के थोथे…



