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सर्वप्रथम गुरूदेव की वन्दना करता हूं, क्योंकि गोविन्द से भी गुरू महान है। गुरू को प्रणाम करने के पश्चात् सभी सन्तों को प्रणाम करता हूं। तत्पश्चात् विष्णु परमात्मा को नमन करता हूं, क्योंकि विष्णु को प्रणाम करने से व्याधि शारीरिक रोग-कष्ट मिट जाते है तथा मानसिक बीमारियां भी जिनकी वन्दना करने से नष्ट हो जाती है। जिस विष्णु की कृपा के प्रताप से हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा। अनेक जन्मों के किये हुए पाप कर्म कट जायेंगे और सुख की उत्पति हो जायेगी। परमात्मा की अद्भुत लीला एवं भेद को प्राप्त कर सकेंगे, ऐसे दीन दयाल भगवान विष्णु है, जिनकी उपासना करने से सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। विष्णु की प्राप्ति हेतु प्रथम वन्दना गुरूदेव की करता हूं।
सभी सन्तों को शीश झुकाता हूं तथा अपने गुरू के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण करता हूं, पुनः दण्डवत् प्रणाम करता हूं, जिनकी कृपा से मैं निर्मल शुद्ध बुद्धि को प्राप्त कर सकूंगा। जब मेरी बुद्धि पवित्र हो जायेगी, तो मैं अमावस्या की कथा वर्णन करके सुना पाऊंगा। मैं मयाराम प्रणाम करते हुए कहता हूं। अमावस्या की कथा का कथन कर रहा हूं। अमावस्या का व्रत करने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। अर्जुन ने श्री कृष्ण से पर-उपकारी वार्ता पूछी थी। उसी वार्ता को सुनने से मयाराम जी कहते है कि सुख- चैन उत्पन्न होगा। जो कृष्ण से अर्जुन ने पूछा था और श्री कृष्ण ने बताया था, वही कथा यह अमावस्या की कही जा रही है, जो दुःखों को काटने वाली है।
अर्जुन ने पूछा-हे कृष्ण! जिस प्रकार से कलयुग में दोषों से दूषित न होवें, ऐसा उपाय कोई हमें बतलाइये। कलयुग में अनेक पापी प्रकट होंगे। कलयुग के प्रभाव से संयम, इन्द्रियों का दमन वश में रखना, त्याग भाव, ईश्वर का जप करना, यज्ञ करना इत्यादि सभी नष्ट हो जायेंगे। इनके विपरीत विषयों में चित्त लगाने वाले, कामनाओं की पूर्ति में ही लगे रहना, ऐसे लोग होंगे जो नारी सुख को ही श्रेष्ठ सुख मानेगे और संसार सुख के ही अध्ाीन सांसारी हो जायेंगे। कलयुग में ऐसे ही लोग प्रगट रूप से होंगे, जिनके किसी प्रकार की लज्जा-शर्म नहीं होगी, पशुवत् व्यवहार करेंगे। ये ऐसे लोग परमगति को प्राप्त कैसे करेंगे। हे प्रभु! आपके चरणों की शरण ग्रहण कैसे करेंगे। ऐसा कोई उपाय बतलाइये, जिससे सभी पापों का नाश हो जाये।
श्री भगवान् बोले-हे अर्जुन! जो व्यक्ति भयंकर कलिकाल में अमावस्या का व्रत करे, तो उसके सभी पाप जल जाते हैं। जिस प्रकार से भेड़िया एक होने पर भी अनेकों भेड़ों को डरा देता है, जिस प्रकार से सूखी लकड़ी को अग्नि जला देती है, उसी प्रकार से जो कोई व्यक्ति इस अमावस्या का व्रत करे, तो उसके सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। अमावस्या रूपी अग्नि या भेड़िया सूखा काठ एवं भेड़ रूपी पापों को जला देता है, मार देता है। अमावस्या व्रत की महिमा अत्यधिक है। त्रिभुवन नायक भगवान कृष्ण ने ऐसा ही कहा है । यह व्रत करने से पापों का नाश होता है और हृदय में उज्ज्वल ज्ञान का प्रकाश होता है। हे प्रभु! आप गरीबों के प्रति दया करने वाले दयालु हो, दीनों की रक्षा करने वाले हो, अनेक प्रकार के संशय मिटाने वाले तथा ज्ञान की अभिवृद्धि करने वाले हो, इसलिये मैं आपसे अमावस्या के बारे में जानना चाहता हूं। कृपा करके मेरा संशय भ्रम मिटा दीजिये एवं अमावस्या व्रत का निर्णय कीजिये।
हे अर्जुन! सुनों, तुम्है एक इतिहास बतलाता हूं।उस इतिहास के सुनने से तुम्हारा संशय मिट जायेगा।एक सोमदत नाम का ब्राह्मण काशी में गंगा तट पर रहता था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र सुख देने वाला था। पुत्र तथा पुत्र की माता एवं एक कुंवारी कन्या थी। ये सभी चारों जने गंगा में स्नान करते तथा अच्छी प्रकार से भगवान की पूजा करते थे। नित्यप्रति नियम से गीता-गायत्री का पाठ करते तथा संध्या स्नानादि आवश्यक कर्म करते थे। खेतों में जब धान इकट्ठा हो जाता तो पीछे बिखरे हुए अन्न को एकत्रित करके उसी कणवृति से अपना निर्वाह करते थे तथा स्वधर्म का पालन करते थे। सोमदत विप्र अपने परिवार सहित काशी में रहता था। भोजन वस्त्र आदि का निर्वाह प्रबंध स्वयं भगवान विष्णु ही कर रहे थे। उनके घर पर एक यति आया। सोमदत ने उठकर चरणों में अपना शीश झुका करके यति को प्रणाम किया। मुनि जी के चरणों को धोया तथा आसन पर बैठाया। बहुत प्रकार से आदर-सम्मान किया। जब वृद्ध ब्राह्मणी ने आ करके यति के चरणों में नमन किया, तब यति ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि ‘‘सौभाग्यवती भव‘‘ यानि तेरा सुहाग बना रहै ब्राह्मण की कुंवारी कन्या ने जब यति को नमन किया तब यति ने कहा कि ‘चिरंजीव भव‘ यानि बेटी तेरी उमर बढ़े। इस प्रकार के मुनि के आशीर्वाद को वृद्ध ब्राह्मणी ने सुना, तब शंका पैदा हो गई। हे अन्तरयामी ! हे त्रिकालदर्शी ! ये अद्भुत विचित्र वचन कैसे कहै हे स्वामी! आप तो सभी कुछ जानते है। अब मैने आपको प्रणाम किया तो आपने यह कहा कि सदा सुहागन रहो, तुम्हारा सुहाग बना रहै जब मेरी कंुवारी कन्या ने आपको प्रणाम किया, तब आपने दूसरा अनिष्ट वचन चिरंजीव होने का क्यों कहा? हे यति! हम तो अज्ञानी लोग है, आपके कहने का अभिप्राय प्रयोजन नहीं समझ सके है। इस प्रश्न का उत्तर आप हमें दीजिये और हमारे संशय को अतिशीघ्र मिटा दीजिये। आप दोनों लोग चित लगाकर सुने, इसका कारण मैं आपको सुनाता हूं। तुम्हारी पुत्री जब विवाह के समय में अग्नि की परिक्रमा करेगी, उसी समय इसका पति मर जायेगा। जब तीन फेरे परिक्रमा पूरी हो जायेगी और चैथी परिक्रमा प्रारम्भ करेगा तो इसका पति मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। मेरा वचन ध्यानपूर्वक सुन लीजिये तथा हृदय में विश्वास धारण करें। जब चैथा फेरा फिरेगा तो इस कन्या के पति को काल ग्रस लेगा। इसलिये मैने चिरंजीव होने का आशीर्वाद दिया। जब यह विधवा हो जायेगी, तो मैं इसे सौभाग्यवती होने का आशीष कैसे देता। ऐसे यति के वचनों को सुनकर अत्यधिक दुःखी हो गये, मानों भयंकर ठण्ड ने कमल के वन को नष्ट कर दिया हो। दम्पति वृद्ध ब्राह्मण एवं ब्राह्मणी के दुःख उत्पन्न हो गया और व्याकुल होकर वचन कहने लगे। जिससे हमारे ऊपर आने वाला विघ्न टल जाये और सुख चैन हो जाये, ऐसा कोई उपाय बतलाइये। जिस किसी भी प्रकार से विघ्न का नाश हो जावे, वही उपाय आप हमें बतला दीजिये। यति ने कहा-तुम दोनों को मैं एक उपाय बता रहा हूं, उस कार्य के करने से तुम्हारे दुख का नाश हो जायेगा। एक गुजर कदली वन में रहता है। उसके घर में वैभव धन- दौलत का कोई पार नहीं है। उसके घर में गाय, भैंस आदि दुधारू पशु बहुत है तथा अन्न के कोठे सदैव ही भरे रहते है, जिनका कोई पार नहीं है। अनेक नौकर-चाकर, दास-दासियां है, जिनकी कोई गिनती नहीं है। उस गुजर की धर्मपत्नी सुलक्षणा है, जिसका नाम भागवती है। जैसा नाम है वैसा गुण भी है। वह गुजरी प्रत्येक अमावस्या का व्रत विधि विधान से करती है। इस प्रकार से बारह अमावस्या का व्रत चित लगाकर करती है। ब्रह्मवेता ब्राह्मणों को गऊ दान देती है। सभी दूध-दही अमावस्या को दान कर देती है। पराया अन्न ग्रहण नहीं करती है। कोई भी सुभ्यागत ब्राह्मण, साधु, यति आ जाता है तो उसे उत्तम मनपसन्द भोजन करवाती है। इस प्रकार से बारह अमावस्या का व्रत इस प्रकार से करती है तथा दान-पुण्य भलीभांति करती है। यदि वह गुजरी इस स्थान पर आ जाये तो इस बहन के पति को बचा सकती है, मृत्यु के मुख से उबार सकती है। विवाह के समय में जब अग्नि देव की चैथी परिक्रमा करते समय अमावस्या के व्रत का फल प्रदान करने से महा-भयानक मृत्यु से वह गुजरी फिर से मरे हुए को बचा लेगी, पुनः जीवित कर देगी। हे ऋषिवर! उस गुजरी के घर पर धन-दौलत, वैभव, विलास आपने अत्यधिक बतलाया है। जिनका कोई आर-पार नहीं है। भला ऐसी दशा में उनका यहां आना कैसे होगा, यह मुझे समझाकर बतलाइये। उस गुजरी के घर पर सदैव धर्म रहता है।वह परोपकारी तथा हरि की दासी है, विष्णु की भक्त है। हे सोमदत! तुम ऐसा विचार करो, इसलिये
तुम्हारा कार्य अवश्य करेगी। इस प्रकार की यति की वार्ता सुनकर सोमदत्त अति प्रसन्न हुआ तथा यति को प्रेमपूर्वक भोजन करवाया। यति ने प्रेम से भोजन करके आशीर्वाद दिया और सभी से आज्ञा लेकर विदा हो गये। विदा होते समय पुनः सभी ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। अनेक प्रकार से प्रेम भरी स्तुति एवं विनती करते हुए क्षमा याचना की। मुनि तो अपनी इच्छानुसार चले गये किन्तु सोमदत्त को इस आकस्मिक घटना पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। माता-पिता कहते हैं कि हे पुत्रो! सुनो, कदली वन को तुरन्त जाओ। हम तो वृद्ध हो गये है, इसलिये हमसे तो चला जाता नहीं है, तुम जाने के योग्य हो। इसलिये तुम्है यह कार्य करना है। माता-पिता की आज्ञा शिरोधार्य करो, तुम्हारा ईश्वर कार्य पूर्ण करेगा। अब तुम अतिशीघ्र कदली वन के लिये प्रस्थान करो। योग्य पुत्र ने माता-पिता की आज्ञा सुनी और कदली वन जाने की इच्छा प्रकट करते हुए शुभ दिन देखकर वहां से चल पड़ा। कुछ दिनों तक लगातार पैदल चलते हुए कदली वन सकुशल पहुंच गया। शुभ आश्रम को आंखों से देखा तो उसके मार्ग की थकान एवं चिन्ता मिट गयी। हृदय में अलौकिक शांति का उदय हुआ। वहां पर अनेक प्रकार के वृक्ष फूल-फलों से लदे हुए देखे, जिनकी गिनती भी नहीं की जा सकती। जैसे आम, अनार, आंवले अत्यधिक मात्रा में थे, जिन्है वहां पर देखा। महुवा, इमली, ताड़, तमाल, कैथ, पाकड़, अमरूद, नींबू इत्यादि फल एवं छायादार वृक्ष एवं बेला लता, तृन घास आदि सभी वनस्पति फूल-फल रही है। मदमस्त भंवरे रस में रसिक होकर गुंजायमान कर रहे हैं। सम्पूर्ण आश्रम में भंवरों की गूंज हो रही है तथा अन्य वट, पीपल आदि विशाल वृक्षों की गिनती कौन कर सकता है। उनकी विशालता एवं ऊंचाई देखकर मन उनकी तरफ ही आकृष्ट हो जाता है। हरे-भरे सघन पत्ते एवं लाल रंग के फल पके हुए थे। निरंतर एवं चारों तरफ सदा ही सुख रहता है, ऐसे बन आश्रम को देखा। वहां पर बहुत मात्रा में विचित्र रंग-बिरंगे पक्षी एवं वन्य जीव हिरण आदि भी देखे। तोता, मैना, कोयल नाना प्रकार के गीत गा रही है। ऐसे गीतों एवं सौन्दर्य को देखते हुए, सुनते हुए वह ब्राह्मण आश्रम में प्रवेश करता है। चकवा, चातक, हंस, चकोर, भंवरे इत्यादि गाने गा रहे और मयूर नाच रहे हैं।वहां पर सरोवरों की शोभा भी अत्यधिक देखी, उन सरोवरों में अनेक प्रकार के कमल खिले हुए थे। इस प्रकार से अनेक वनों को देखता हुआ, अनेक नदी-पहाड़ों को पार करता हुआ भयंकर वन को पार कर गया। आगे एक बहुत बड़ा जल से भरा हुआ सरोवर दिखलायी दिया। विप्र ने उस विशाल सरोवर में स्नान किया एवं निर्मल जल पी करके आगे के लिये रवाना हुआ। बहुत दिनों के पश्चात् चलते-चलते गुजरी के आश्रम के निकट आ गया। गुजरी के आश्रम को देखा तो बहुत ही मनभावना-सुहावना लगा। वहां गुजरी के आश्रम में बहुत भीड़ देखी, उस भीड़ को देखकर विप्र के हृदय में आनन्द विशेष हुआ। वहां पर विप्र ने देखा कि ब्राह्मण, साधु, यतिवर, संन्यासी और बड़े-बड़े तपस्वी अवधूत जो संसार से उदासीन रहने वाले थे, वे गुजरी के आश्रम में आ-जा रहे थे, उन लोगों की भीड़भाड़ देखी थी। वहां पर अन्य सभी सन्त पुरूषों के सुन्दर घने आश्रम थे, उन आश्रमों में वैखानस ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी भी अनगिनत थे। ये लोग तपस्या कर रहे थे और ध्यान योग का विचार करते हुए सदा ज्ञान की वार्ता करते हुए समय का सदुपयोग कर रहे थे। ऐसे दिव्य वन में गुजरी रहती है। नियम-धर्म का निर्वाह भली प्रकार से करती है। नित्यप्रति नियम से सदा-व्रत अन्नदान देती है। भगवान के भक्तों की सेवा प्रेम से सर्व हित के लिये सदा करती है। उस विप्र को आगे जाकर सीधा गुजरी से भेंट करने की कोई युक्ति दिखलाई नहीं दी, क्योंकि वहां बहुत ही भीड़-भाड़ देखी। चाकर, बाबर्ची, जल भरने वाले, नौकरानी-नौकर, हल चलाने वाले हाली, गऊ चराने वाले पाली बहुत लोगों की भीड़ देखी। वे नौकर-चाकर सभी गुजरी की आज्ञा पर चलते हैं।उन नौकरों को सेवा का धन बहुत ही मिल रहा है, इसलिए सेवा भी प्रेम से कर रहे हैं। गुजरी अपने भवन में बैठी हुई है, इसलिये उस विप्र का उससे मिलाप नहीं हो पा रहा है। उस विप्र ने अन्नक्षेत्र से सदाव्रत का अन्न ग्रहण किया और ऐकान्त में जाकर भोजन किया। ऐसे नित्यप्रति करते हुए सात दिन व्यतीत हो गये किन्तु किसी भी प्रकार से गुजरी से भेंट नहीं हो सकी। वह विप्र गुजरी तक न जा सका, क्योंकि आगे बहुत भीड़ लगी है। मन से विचार किया उस बुद्धिमान ने कि क्या किया जावे। उसने देखा कि गोबर, खाद, कंकर-पत्थर आदि मार्ग पर बिखरे पड़े है, आने-जाने वाले लोग वहां से होकर जा रहे हैं, उन्है इस विघ्न बाधाओं से कष्ट हो रहा है, नंगे पैर ऊपर से ही जा रहे हैं। उस विप्र ने गुजरी से मिलने की युक्ति सोच निकाली और मार्ग में बिखरी हुई खाद, गोबर आदि को साफ करने लगा और सम्पूर्ण मार्ग गलियां साफ कर दी। मार्ग चैड़े हो गये, लोग निर्विघ्न आने-जाने लगे। वे मार्ग जिनमें गन्दगी बिखरी थी, अब अच्छी प्रकार से सुधार दिये है।सभी जनसमुदाय धन्य-धन्य कह रहे थे।आश्रम के सभी नारी-पुरूष उस ब्राह्मण की बड़ाई कर रहे थे। इस प्रकार से ब्राह्मण की बड़ाई सुनी, तब उसकी महिमा देखने के लिए एक दासी आयी। दासी ने अपनी आंखों से सेवा कार्य करते हुए उस विप्र को देखा और सभी बात जाकर गुजरी से बतलाई। दासी कहने लगी कि एक पुरूष बाहर दूर देश से आया है। वह गलियों की सफाई कर रहा है, सम्पूर्ण मार्ग कंकड़-पत्थरों घास आदि से सिकुड़कर छोटे हो गये थे, उस पुरूष ने साफ करके चैड़े कर दिये है। दासी के वचनों को जब गुजरी ने अपने कानों से सुना और मन में अनुमान किया कि कौन हो सकता है। कल मैं स्वयं अपना आसन बाहर लगाऊंगी और सेवा कार्य करते हुए पुरूष को मैं अपनी आंखों से देखूंगी। उस दिन गुजरी ने आसन बाहर लगाया, उस खाद गोबर बुहारते हुए उस विप्र को देखा।दासी को भेजकर उसे अपने पास बुलाया और स्वकीय आसन छोड़ कर गुजरी ने शीश झुका कर प्रणाम किया। उस ब्राह्मण श्रेष्ठ ने तब आशीर्वाद दिया, गुजरी ने शिरोधार्य किया। हे भूदेव! आप क्यों गोबर खाद बुहार रहे हैं, इसका कारण आप हमें बतलाइये। ब्राह्मण कहने लगा कि मैं दूर देश से चलकर आया हूं, आज आपका दर्शन प्राप्त कर सका हूं। मैं काशी नगरी का वासी हूं। यहां पर मैं तुम्हारे पास ही आया हूं। मुझे यहां पर आये हुए दस दिन व्यतीत हो गये। आप ही न मिले तो मेरे हृदय में चिन्ता बढ़ने लगी, आपसे मिलन कैसे होगा। इसी उपाय से मिलन हो सकता था, इसलिये मैने यह उपाय किया है। तब गुजरी कहने लगी कि मुझे आप इस बात का उत्तर दीजिये कि तुम्हारा क्या कार्य है, जो मैं कर सकूं। इस बात का मुझे भेद बतलाइये। ब्राह्मण कहने लगा कि एक यति हमारे घर पर आया। मेरे माता-पिता ने प्रणाम किया। जब मेरी बहन ने दण्डवत प्रणाम किया, तब श्री यति ने कहा। हे सोमदत! यह जो तुम्हारी पुत्री है, यह विवाह के समय विधवा हो जायेगी अर्थात् विवाह के समय इसका पति मर जायेगा। जब मेरे पिताजी ने बचने का कोई उपाय पूछा तब यति ने बतलाया। घोसराय गुजरी यदि यहां पर आ जावे तो वह इसके पति के प्राण बचा सकती है। एक अमावस्या के व्रत का फल यदि अर्पण कर दे तो इसका पति बच सकता है, इस प्रकार से जीवन रक्षा हो सकती है। इस उपाय के बिना पति मर जायेगा, अन्य कोई उपाय भी नहीं है जिससे प्राणों की रक्षा की जा सके। ऐसा वचन कह करके यति चला गया। तब से मेरे माता-पिता के हृदय में दुःख हो गया है। मेरे माता-पिता अति वृद्ध हो गये है, उनसे कठिन मार्गों में चला नहीं जाता, इसलिये मुझे आज्ञा दी है। इसलिए मेरा यहां पर आना हुआ है। कृपा करके आप हमारे घर पधारिये, आपसे ही हमारा कार्य सिद्ध होगा। हरि के भक्त सदैव परोपकारी होते है। यह आशा कार्य हमारा आप अवश्य ही पूर्ण करें। मैं अपने घर का सम्पूर्ण कार्य छोड़कर तुम्हारा कार्य अवश्य ही करूंगी, क्योंकि द्विज जनों की महिमा तो स्वयं भगवान ने ही अपने मुख से वर्णन करी है। आपकी सेवा से ही हमारी भलाई होगी। आपने तो हमारी गलियां साफ की है, हमारे ऊपर एहसान चढ़ाया है। हम लोग आपके ऋणी हो चुके है। तुम्हारा कार्य मैं पूर्ण करके आऊं, तभी यह कर्ज उतरेगा। मैं निरपराधी हो सकूंगी। इस समय तो तुम अपने घर चले जाओ, वहां जाकर ज्योतिषियों से पूछकर मुहूर्त निकलवाओ।सगाई करके कागज लिख दीजियेगा, लगन वार आदि देख कर दिन निश्चित कर दीजिये, इस कार्य में अधिक विलम्ब देरी न हो। जब तुम्हारा कार्य प्रारम्भ हो जायेगा, तभी मैं तुम्हारे घर पर आऊंगी। वहां आ करके इस प्रकार से तुम्हारा कार्य सिद्ध करूंगी। ब्राह्मण को
नवांछित भोजन करवाया, दक्षिणा देकर वहां से विदा किया। जब तुम्हारा कार्य प्रारम्भ हो जायेगा, तभी मैं तुम्हारे घर पर आऊंगी। वहां आ करके इस प्रकार से तुम्हारा कार्य सिद्ध करूंगी। ब्राह्मण को मनवांछित भोजन करवाया, दक्षिणा देकर वहां से विदा किया। कई दिनों के पश्चात् वह विप्र पुनः अपने घर पहुंचा और माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। पिछला सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। कुछ दिन तो आनन्द में व्यतीत हो गये। सोमदत की पुत्री विवाह योग्य हो चुकी थी। माता-पिता ने तब यह विचार किया कि कन्या अब विवाह योग्य हो चुकी है। अपने ही जैसा संध्यावंदन, पूजा-पाठ, यज्ञ, गायत्री, शुद्ध क्रिया वाला ब्राह्मण देखकर कन्या का विवाह किया जावे। ब्रह्मदत का पुत्र रूप तथा गुणों का खजाना है, जिसका नाम शिवदत है। उसी शिवदत से कन्या की सगाई कर दी गई। बराबरी के सम्बन्धी मिलने
से अति प्रसन्न हुए। विवाह करने का दिन, महीना विचार करके ज्ञानी ब्राह्मणों से लगन निकलवाया। मास, दिन, लगन निश्चित करके गुजरी को ज्ञानीजनों से पत्र लिखवाया। सिद्ध श्री गुजरी जोग! आपके आने से ही यह रोग कटेगा। आप तो परोपकारी करूणा के खजाना हो, कदली वन आश्रम में निवास करने वाले हो। दोषों से रहित होकर हरि गुणगान भजन करते है, कृपा करके हमारे घर पर पधारो। हम दीन लोगों को वरदान दीजिये।कागज देखकर विलंब देरी न कीजिये, अतिशीघ्र आ जाइये। कागज लिखकर काशी के पत्र वाहक को दे दिया तथा कदली वन के लिये रवाना कर दिया। वायु वेग की भांति शीघ्र गति से पत्र वाहक को दौड़ाया। पत्र अतिशीघ्र ही जाकर गुजरी को दे दिया। मुख से समाचार वर्णित करके सुनाया। प्रातः काल ही जाना है, ऐसे कार्य में ढ़ील नहीं करनी है। पत्र वाहक द्विज को भोजन करवाया तथा स्वकीय कुटुम्ब को सम्पूर्ण कथा समझायी। उनकी शंकाओं का समाधान किया। पुत्री, पुत्र, नाती, जवाई, पोता, पोती, दासी, दास, सेवक, सेविका, हाली, पाली इत्यादि कुटुम्बी जनों की कोई गिनती ही नहीं थी। सभी को अपने-अपने कार्य में लगा दिया। सभी को सादर उनका अपना-अपना कार्य समझाया। उन सभी में एक बड़े पुत्र की बहू समझदार थी। सबही प्रकार से लायक समझकर विशेष रूप से उन्है बतलाया कार्य समझाया। बड़ी बहू सुघड़, सुलक्षणा, गुणमयी थी। उसे बुलाकर यह सीख दी कि हे बहू! इनमें तुम ही शीलवान, सरल स्वभाव, सद्गुणों से युक्त हो, इसलिये तुम्है यह विशेष शिक्षा दे रही हूं। हे बहू! मैं काशी जा रही हूं, छः महीने में लौटकर वापिस आऊंगी।घर की रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।साधु, विप्र को भोजन देना, अतिथि का सत्कार करना तुम्हारा घर का परम धर्म है। तुम देवर-देवरानी, दास-दासियां इन सब को धैर्य बंधाना। यदि मेरे पीछे कोई घर में भयानक घटना घट जावे तो धैर्य रखना, डरना मत। वह विघ्न मैं ही हटा दूंगी। हरि कृपा तुम्हारे ऊपर रहेगी, इसलिये अल्पमात्र भी डरना नहीं। बहू ने अपनी सास की बात को प्रमाण मान करके स्वीकार किया और कहा कि आप शुभ समय देखकर यहां से प्रस्थान कीजिये। आप अतिशीघ्र वापिस घर पर आ जाइये, हम आपकी प्रतीक्षा में है। कहीं हम लोगों को भूल मत जाना। गुजरी ने सम्पूर्ण गांव के लोगों को आश्वासन दिया। कम से कम साठ सेवकों को साथ में लिया। शुद्ध पवित्र संतोषी जो केवल दो घर से ही भिक्षा लेकर जीवन निर्वाह करते है, ऐसे सन्तों ने साथ में प्रस्थान किया तथा साथ में अन्य भी बहुत सारे लोगों को साथ में लिया तथा वहां से गुजरी ने प्रस्थान किया। बीच में अनेक नदी पहाड़ों को पार किया। इस प्रकार से कई दिनों के बाद वह गुजरी अपने सेवकों, सन्तों सहित काशी में पहुंची। गुजरी ने अपना डेरा काशी नगरी से बाहर गंगा किनारे ही रखा। अपने प्रियजनों से गुजरी ने कहा कि मैं तो ब्राह्मण सोमदत के घर पर जा रही हूं, आप लोग अपना अपना निश्चित कार्य करें। सोमदत के घर पर विवाह का कार्यक्रम चल रहा है। गीत गाये जा रहे हैं, उत्सव मनाये जा रहे हैं, ब्राह्मण लोग वेद-मंत्रों की ध्वनि कर रहे हैं। वहीं पर वह गुजरी आकर छिपकर खड़ी हो गयी। गुजरी उत्सव देख रही है और आनन्द से मग्न हो रही है। ऐसा उछाह अन्यत्र कहां देखने को मिलता है, कदली वन में तो कदापि नहीं। होम, जाप वहां पर श्रेष्ठ ब्राह्मण कर रहे है, निर्मल वेदवाणी का उच्चारण कर रहे है। यह विचित्र खेल गुजरी छुप कर देख रही है। इस बात का पता किसी को भी नहीं है कि गुजरी यहां आ चुकी है। दुल्हा- दुल्हन अग्नि की परिक्रमा कर रहे है। उस समय वृद्ध सोमदत ब्राह्मण एवं ब्राह्मणी मन में चिन्ता कर रहे है कि न जाने अब क्या होगा, गूजरी आयी क्यों नहीं? इस प्रकार से दुल्हा तीन परिक्रमा तो कर चुका था। चैथे फेरे में मलीन हो गया, मुख शरीर की कांति उड़ गयी, ब्राह्मण जामात गिरने लगा। ऐसी दशा देखकर सभी के दिल में दुःख पैदा हो गया। मंगलगान में अचानक विघ्न उपस्थित हो गया। प्राण कंठ में आ गये, मृत्यु निकट आयी देखकर गुजरी ने खड़ी होकर इस प्रकार से कहा-अरे हे ब्राह्मण पुत्र! मेरी बात सुन भाई, जो तेरे को यह अति दुःख आया है। एक अमावस्या के व्रत का यह फल प्राप्त करो। इसी फल के आधार पर मैं तुम्है जीवन दान देती हूं। यदि यह अमावस्या के व्रत का फल सच्चा है तो इस ब्राह्मण बालक की आयु में वृद्धि होवे, यह मेरा वचन है। जब गुजरी ने इस प्रकार के वचन कहे, तब द्विज की आंखें खुल गयी और सचेत होकर उठकर बैठ गया। सभी के मन में आया हुआ दुःख शोक मिट गया। सकल सभा ने इस आश्चर्य को देखा और सभी लोगों ने अमावस्या के प्रभाव को एवं जामाता ब्राह्मण को भी धन्य- धन्य कहने लगे। पुनः मंगल गान, उत्सव आनन्द होने लगा। सोमदत की इच्छा पूर्ण हुई। उस समय सोमदत इस प्रकार से कहने लगा- आपने हमारे दीनों पर बड़ी कृपा की है। हे गुजरी देवी! तुम्हारे जैसे इस संसार में थोड़े ही लोग है, अधिक नहीं है। अपने घर का कार्य छोड़कर हमारी भलाई के लिये दूर देश से चल कर यहां आयी हो और हमारा मनोरथ पूर्ण किया। मैं कहां तक तुम्हारी बड़ाई करूं, जिनका दर्शन करने से ही पाप कट जाते हैं। जो व्यक्ति विष्णु की भक्ति हृदय में धारण करता है, उनसे ऐसा कौन सा कार्य जगत में होगा, जो पूर्ण न हो सके। तब गुजरी ने इस प्रकार की सुन्दर वाणी कही। जो साधु संगति वाली, नीति बचन वाली एवं सुपंथ से छनी हुई थी अर्थात् साधु सन्तों द्वारा निर्णित की हुई थी। यह कार्य तो तुम्हारी निस्वार्थ सेवा से ही सिद्ध हुआ है। हमने यह निश्चय कर लिया है।हे भूदेव! जो मानव वेद विद ब्राह्मणों की सेवा करे तो वह इस संसार सागर से पार उतर जाता है। ऐसा कहते हुए एकत्रित हुए वहां ब्राह्मणों को रसोई दी अर्थात् भोजन दिया और स्वयं गुजरी ने अपने स्थान के लिये रवाना होने की इच्छा प्रकट की। उनके पश्चात् ब्राह्मण दुल्हा कहने लगा। सर्वसम्मत यह बात उसने कही-हे देवी! आपने मेरे पर बहुत बड़ा उपकार किया है।आपने ही मुझे जीवन प्रदान किया। जीवनदान से बढ़कर और कोई दान नहीं है। अभी-अभी आप दूर देश से चलकर आये हैं। सवारी के साधन हाथी, घोड़ा, बैल आदि थक गये हैं। इसलिये एक कृपा यह भी कीजिये कि पांच सात दिनों तक यहीं विश्राम कीजिये। रूक जाइये यही प्रार्थना है। ऐसी सुन्दर मनोहर वाणी को सुनकर गुजरी कहने लगी-यहां रहने से हमारा कार्य नहीं बनेगा, बिगड़ जायेगा इसलिये अवश्य ही जाना है। उन लोगों ने बहुत प्रकार से मनुहार की, मनाने की कोशिश की, किन्तु गुजरी ने एक बात भी नहीं मानी और कहने लगी-घर में बड़ा भारी कार्य है। वह मुझे स्वयं ही जाकर करना होगा। सोमदत की पुत्री एवं जमाई को वस्त्र मंगवा करके उढ़ाए। उन्है पुत्र-पुत्री के समान स्वीकार किया। पुनः सभी से आज्ञा लेकर कदली वन को प्रस्थान किया। पांच आदमी अन्य भी वहां के साथ लिये तथा सोमदत का पुत्र भी विदाई देने के लिये साथ में ही चला। वहां से चलते चलते एक गांव देखा, उसी के निकट पवित्र सरोवर दिखाई दिया। तालाब के बीच में बहुत ही कमल खिल रहे है। सुन्दर भंवरे इससे मस्त होकर दिशाओं को गुंजायमान कर रहे है। वहां तालाब पर चातक, चकवा, सारस, हंस, बगुला, बतख, आरंड, कुलंस इत्यादि जलीय पक्षी कलरव कर रहे हैं। अनेकों जलचर वहां पर कोलाहल की ध्वनि कर रहे हैं।सभी बैर रहित होकर सभी के मन को प्रसन्न करते हुए अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हैं। सघन गहरी छाया वृक्षों की शोभायमान हो रही है। तीन प्रकार की शुद्ध निर्मल शीतल सुगन्धित वायु चल रही है। उसी सरवर की पाल पर गुजरी ने डेरा लगाया। स्नान करने के लिये एक विप्र वहां पर आया। उसको गुजरी ने अपने पास बुलाया, प्रणाम किया तथा तिथि वार उससे पूछा। तब ब्राह्मण ने इस प्रकार से कहा। आज सिद्ध योग, वार रविवार, तिथि चवदस, यह तुम मानो। कल ही सोमवती अमावस्या का योग है। इसका फल भी बड़ा विचित्र है। जिस प्रकारसे वर्षा ऋतु में धन धान्य तृण आदि बढ़ते है, उसी प्रकार से अमावस्या में भी दिया हुआ दान व्रत बढ़ता हैं। जो व्यक्ति इस पवित्र दिन में दान पुण्य करता है, उसको अनन्त गुणा फल मिलता है। गुजरी कहने लगी-इस बात को तो सभी जानते हैं। अमावस्या का फल क्या होता है, यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। प्रातः काल अमावस्या का व्रत यहीं इसी स्थान में ही करेंगे। तुम्हारी कृपा से हम संसार सागर से पार उतरेंगे। हे विप्र! प्रातः काल पुनः वापिस आना। ऐसा सुनते हुए द्विज घर को चला गया। गुजरी के घर पर जो घटना घटित हुई, उसकी कथा प्रेम से श्रवण करें। गुजरी का बड़ा पुत्र रात्रि में अपने घर पर सोया हुआ था। बड़े पुत्र की त्रिया स्यानी समझदार गुणों से युक्त थी। प्रातः काल जब अपने पति की सेवा में पहुंची और अपने पति को जगाने लगी, तब भी जागृत न हो सका। तब उसने मन में विचार किया कि यहां तो बात ही कुछ अन्य है। अपनी सास की कही हुई बात का स्मरण किया। सेझ संवारन के लिये पति के घर में जब पहुंची तो अचानक अपने पति को मरा हुआ देखकर चमक गयी और व्याकुल हो गयी कि यह क्या हुआ। अपने पति को देखकर व्याकुल हो गयी। पुनः अपने सासु के वचनों को स्मरण किया। सासु ने चलते समय कहा था कि कोई विघ्न आयेगा। मन में ऐसा विचार करके धैर्य को धारण किया। ‘‘विघ्न अवश्य होगा, डरना नहीं‘‘ यह सासु ने कहा था। इसलिये यह बात किसी से भी कहनी नहीं है। जिस घर में पति सोया हुआ था, उसे वस्त्र ओढ़ा दिया और किवाड़ बंद कर दिये। मन में धैर्य धारण किया उस सौभाग्यवती महिला ने और सूर्योदय होते ही अपने गृहकार्य में लीन हो गयी।उधर गुजरी ने सूर्योदय से पूर्व ही ब्रह्म मुहुर्त में स्नान किया तथा सम्पूर्ण गांव के विप्रों को अपने पास में बुलवाया। जो विप्र स्नान करने के लिये आये थे, उनसे गुजरी ने इस प्रकार से कहा कि तुम्हारे गांव में जितने भी विद्वान ब्राह्मण है, उन्है अति शीघ्र बुलाकर ले आओ। मैं सभी को मनवांछित भोजन दूंगी। जीवन एवं जन्म का लाभ प्राप्त करूंगी। इसी स्थान पर अमावस का व्रत सभी करें तथा व्रत समापन पर स्वकीय इच्छानुसार भोजन करें, मुझे आशीर्वाद दें। सन्दूक खोल कर जब रूपये दिये और कहा कि इनसे भोजन की सामग्री मंगवायी जाय। द्विजों ने ऐसी बात सुन कर प्रमाण रूप से स्वीकार करके अपने-अपने घर को चले गये। सभी ग्राम के निवासी द्विजजन वहां पर पधारे। नर- नारी, तरूण, वृध एवं बालक आदि का आगमन हुआ। मैदा, घृत और दाल मंगवाकर सरवर की पाल पर रसोई बनवाई। सभी ने सरवर में स्नान किया। पुनः गीता, गायत्री, विष्णु सहस्त्रनाम आदि का पाठ सस्वर किया। पाठ पूर्ण हो जाने पर सबही ब्राह्मण अपना नाम, स्थान, कुल का परिचय देते हुए गुजरी के सामने भोजन करने लगे। सर्वप्रथम उन विद्वानों को भोजन करवाया, उनसे प्रार्थना करते हुए दण्डवत प्रणाम किया। तत्पश्चात् बालक, वृद्ध, नर-नारी जितने भी आये हुए थे, उन्होंने प्रेमपूर्वक भोजन किया। सभी विद्वान गुणीजनों को दण्डवत प्रणाम किया तथा उन मुनिजनों ने गुजरी को शुभ आशीर्वाद प्रदान किया। इस प्रकार से विधि विधान से अमावस्या का व्रत गुजरी ने किया तथा यथा आवश्यकता अनुसार मुनिजनों को दान भी दिया। समय व्यतीत हो जाने पर मुनि विद्वान लोग अपने अपने घर को चले गये, तब पीछे स्वयं गुजरी एवं उनके सेवकों ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। अमावस्या व्रत का समापन किया। सभी लोगों से आज्ञा लेकर गुजरी अपने सेवकों सहित कदली वन को रवाना हो गई। यहां मार्ग में सरवर तीर पर जो गुजरी ने व्रत किया था, उसी पुण्य के प्रभाव से गुजरी का मृत पुत्र पुनः जीवित हो गया। अपने पति के पास गुजरी की पुत्र वधू बैठी हुई मन में धैर्य धारण किया और हिम्मत से भगवान का स्मरण करते हुए अपने पति को जीवित हुए देखा। सचेत होकर गुजरी का बड़ा पुत्र उठकर बैठ गया और अपनी पत्नी से कहने लगा कि आज मुझे नींद बहुत ज्यादा आ गयी। ऐसी वार्ता सुनकरत्रिया का संशय मिट गया एवं बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उसकी पत्नी ने भी हां में हां मिलाते हुए कहा-ऐसा ही हुआ है।तुम्हारी नींद एवं सोना तो बड़ा ही विचित्र है।पति वहां से उठकर अपने कार्य में लग गया तथा पत्नी भी अपने गृहकार्य में लग गयी, चित लगाकर घर का कार्य करने लगी कुछ दिन व्यतीत होने पर गुजरी ने वापिस कदली वन में प्रवेश किया।सभी बहुओं ने आकर सासु के चरणों में प्रणाम किया।गुजरी ने सभी को आशीर्वाद दिया कि सौभाग्यवती होवो। पुत्र-पौत्रादिक माता से आकर प्रेम से मिले, दुश्चिंता मिट गयी सभी आनन्द में प्रफुल्लित हो गये। सभी से मिलन होने के पश्चात् बड़े पुत्र की वधु ने सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया, तब उसकी सास गुजरी कहने लगी कि मैं तो यह पहले ही जानती थी कि यह होना ही है। इसी कारण से मैंने वन में व्रत किया था। द्विजों को भोजन दान भी दिया था, उसी पुण्य के प्रताप से यह विघ्न चला गया। ऐसी वार्ता सुनकर पुत्र अतिशय विस्मय आश्चर्य को प्राप्त हो गया। सम्पूर्ण वार्ता घटनाओं को उस सोमदत के पुत्र ने अपनी आंखों से देखा था। कदली वन में रंगरेलियां, खुशियां ही खुशियां मनायी जा रही है। गुजरी ने भी सम्पूर्ण घर का कार्यभार पुत्रवधू को सौंप दिया। बारंबार पुत्रवधू की महिमा करते हुए गुजरी गृह के कार्यों से निवृत्त हो गयी। सोमदत के पुत्र ने जब वापिस अपने देश चलने की तैयारी की, तब गुजरी ने बहुत द्रव्य देकर ससम्मान उसे विदाई दी। धन खर्चते हुए खाते-पीते वापिस अपने घर लौटकर माता-पिता को प्रणाम किया। सोमदत ने अपने पुत्र से गुजरी का कुशल समाचार पूछा। जैसा समाचार था, वैसा ही सुत ने अपने पिता को कह सुनाया। यह गुजरी बारह अमावस्या का व्रत विधि विधान से करती है। अमावस्या के दिन निम्नलिखित ये कार्य न करें। पराया अन्न ग्रहण न करें, तेल का भोजन न करें और न ही शरीर में लगावें, प्याज, मूली अमावस्या में न खावें। सोवा, बैंगन, गाजर का सेवन अमावस्या में न करें। मद्य-मांस से दूर ही रहै, नजदीक भी न जायें। हरा वृक्ष नहीं काटें, हल नहीं चलायें, खेती का कोई कार्य न करें तथा भ्रमण करने के लिये या वन्य जीवों को सताने वाला कार्य अमावस्या में कभी न करें।हरे वृक्ष की टहनी तोड़ कर दांतुन न करें, मार्ग पर चलकर कहीं अन्य गांव न जावें। अमावस्या को व्रत रख करके सांसारिक भोग विलास आदि कार्य न करें, दही बिलोने का कार्य न करें तथा कपड़े भी न धोयें। चोरी, जारी, मिथ्या वाद-विवाद करना, हिंसा, दंभ, कपट मन की इच्छा पर चलना ये सभी मन में भी न लायें। निर्मल मन हो करके हरि विष्णु के गुणों का गान, भजन कीर्तन करें। अमावस्या के दिन भगवान की कथा एवं हरिजस सुने, हृदय में भगवान का नाम प्रेमपूर्वक उच्चारण करें। इस प्रकार से विधिविधान सहित अमावस्या का व्रत रखें तो नारायण भगवान विष्णु जी का यह कहना है कि मृत्यु को प्राप्त हुआ भी जीवनदान प्राप्त कर सकता है, यही फल है। हजारों गऊवों का दान देने में जितना फल मिलता है, उतना फल अमावस्या का व्रत रखने में प्राप्त हो जाता है। अन्य सभी तीर्थों में स्नान कर आओ, चाहे अमावस्या का व्रत रख लो, दोनों का फल बराबर है। अमावस्या के व्रत की यही बड़ाई है कि मृत्यु हो जाने पर अन्त समय में भगवान विष्णु के परम धाम बैकुण्ठ को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार से सूखी लकड़ी को अग्नि जला देती है, उसी प्रकार से यह व्रत पापों को जला देता है। जो कोई चित लगाकर अमावस्या की इस कथा का प्रेम से श्रवण करता है, उसे दस गऊ दान का फल प्राप्त होता है। भगवान कृष्ण ने यह कथा अर्जुन से कही थी। इस कथा के सुनते ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये। विक्रम संवत् 1851 श्रावण कृष्ण पक्ष सप्तमी शनिवार को यह कथा साधु मयाराम ने मुकाम में सम्पूर्ण की है। उस परमपिता परमात्मा सदगुरूदेव जाम्भेश्वर जी का अद्भुत चरित्र है, जिनका भेद ब्रह्मादिक भी नहीं पहचान कर सकते। ऐसे परमदेव पींपासर में प्रकट हुए हैं। बारह करोड़ जीवों के उद्धार के लिये मैं अल्प बुद्धि उनके भेद को क्या जानूं शुभ स्थान तालवा ग्राम में जहां जम्भेश्वर जी का धाम मुकाम है, उस पवित्र समाधि के निकट बैठकर अमावस्या व्रत कथा महिमा सहित मैं साधु मयाराम वर्णन करके प्रस्तुत करता हूं।
गुरूदेव के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए कहता हूं-मेरे इष्टदेव जम्भगुरू जी को बारंबार नमन है। भगवान विष्णु ही जो लीला हेतु अवतार लेते है। ‘‘इति श्री महाभारते कृष्ण अर्जुन संवादे अमावस महात्म कथा मयाराम विरचितायां समापतोयं। संवत् 1878 रा मिती सुदि 5 मंगलवार लिखते साध हरकिसन जी का शिष्य परसराम।’’
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