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ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं।
भावार्थ- अरे गोंसाई! जैसा तुम्हारा यह पंचभौतिक पिण्ड अर्थात् शरीर है वैसा ही अन्य सभी जीवों का शरीर है। कोई ठुमरा, माला तिलक से शरीर में परिवर्तन आने वाला नहीं है। हे निरघृण! तूने इस पार्थिव दुर्गन्धमय शरीर को ही संवारा इसी को ही महता दी है तथा इसमें रहने
वाले जीव को खण्डित कर दिया है। इसकी अवहेलना कर दी है। इसलिये तेरा जीवन खण्डित होकर टुकड़े टुकड़े हो चुका है। तुमने स्वयं ही अपनी हत्या कर डाली है।
घडिये से घमण्डूं, अइयां पन्थ कु पन्थूं, जइयां गुरु न चीन्हों। तइयां सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
तुमने परम तत्त्व की खोज तो नहीं की परन्तु कच्चे घड़े सदृश इस शरीर पर ही अभिमान किया। यह सद्पन्थ नहीं कुपन्थ है। इस मार्ग से तो तुम मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकोगे। यदि गन्तव्य धाम को पहुंचना है तो गुरु के बताये हुऐ मार्ग का अनुसरण करो। उस परम तत्त्व की खोज करो यही मूल है कुछ लोग तो स्वयं को ही सिद्ध बताकर भी स्थूल ही बोलते हैं।
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