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ओ३म् आयो हंकारो जीवड़ो बुलायो, कह जीवड़ा के करण कमायो। थर हर कंपै जीवड़ो डोलै, उत माई पीव न कोई बोलै।
भावार्थ-मृत्युकाल रूपी हंकारो जब आता है तो इस जीव को शरीर से बाहर बुला लेता है। आगे स्वर्ग या नरक रूपी न्यायालय में पेश किया जाता है, वहां पर न्यायाधीश यमराज या धर्मराज उसे पूछते हैं कि जीवड़ा तूं सच्ची बात बतला दे कि संसार में रहकर तुमने क्या कर्म किये? वैसे तो कर्मों की सूचि पहले ही उनके पास पहुंच जाती है। किन्तु जीव के द्वारा भी उनके हिसाब-किताब को पेश करवाया जाता है। वहां शुभ कर्म कर्ता जीव तो धर्मराज के सामने अपने जीवन की कहानी आनन्द सहित बखान करता है किन्तु पापी जीव तो यमराज का भयंकर रूप देखकर पाप कर्मों का हिसाब देता हुआ थर थर कांपने लगता है। वहां पर उसे डर से छुटकारा दिलाने के लिये न तो माता बोलती है और न ही पिता ही छुटकारा दिला सकता है क्योंकि वे तो पीछे ही रह जाते है।
सुकरत साथ सगाई चालै, स्वामी पवणा पाणी नवण करंतो। चंदे सूरे शीस निवंतो, विष्णु सूरां पोह पूछ लहन्तो।
अन्तिम समय में भी गवाह के रूप में साथ रहने वाले परमपिता परमेश्वर सबके स्वामी पवन देवता चन्द्र देवता आदि ही है। जीवन यापन करते हुए तुमने इनको कभी नमन नहीं किया। क्योंकि जो देता है वही देवता है ये तो सभी हर क्षण हमें अपनी ऊर्जा शक्ति देते ही रहते हैं। जिससे हमारा जीवन चलता रहता है। इनके विना तो जीवन जीने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसलिये ये सभी जीवन दाता देव नमन करने योग्य है। संसार में जीवन निर्वाह करने के लिये कर्म करते हुऐ भी यमदूतों से छूटने के लिये विष्णु लोक की प्राप्ति का मार्ग किसी सद्गुरु से पूछना चाहिये था। यह भी इस अभागे जीव ने नहीं किया।
इहिं खोटे जनमन्तर स्वामी, अहनिश तेरो नाम जपंतो।
हे जीव! जब तूं अनेकानेक दुखदायी छोटी-मोटी जीया योनियों में भटक रहा था कि हे प्रभो! आप मुझे इस नरकीय जीवन से जल्दी छुटकारा दिला दीजिये। मैं मनुष्य जीवन धारण करके दिन-रात तुम्हारा ही स्मरण करूंगा कभी नहीं भूलूंगा।
निगम कमाई मांगी मांग, सुरपति साथ सुरासूं रंग। सुरपति साथ सुरां सूं मेलो, निज पोह खोज ध्याइये।
इस संसार के न्यायाध्धीशों को तो कोई चतुर व्यक्ति धोखा दे सकता है। किन्तु वहां पर मृत्यु उपरांत देवराज इन्द्र तथा उनकी परिषद् के समूह के सामने झूठ कपट पूर्ण व्यवहार नहीं चल सकता। इह लोक में तो हो सकता है राजा प्रजा अन्यायकारी हो किन्तु परलोक में तो अन्याय होना संभव नहीं है। जो भी व्यक्ति न्याय द्वारा शुद्ध पवित्र धार्मिक सिद्ध हो जायेगा उसे तो देवताओं के साथ ही स्थान प्राप्त होगा उन्हीं के रंग में, सुख शान्ति में सम्मिलित हो जायेगा। इसलिये यह जीवन रहते हुए ही स्वकीय सद्मार्ग जो स्वर्ग तक पहुंचा दे उसकी खोज करके, उस पर अति शीघ्रता से चलें। यही जीवन का सार है। यमदूत से छूटने का परम उपाय है।
भोम भली कृषाण भी भला, बूठो है जहां बाहिये। करषण करो सनेही खेती, तिसियां साख निपाइये।
यह जीवन कृषि की तरह फलदायी है।जिस प्रकार से किसान बीज बोने से पूर्व खेती को सुधारता है तथा स्वयं तो सचेत रहता है, समय पर खेती के लिये तैयार रहता है वर्षा होने पर तुरंत जोताई करके बीज बो देता है। फिर उसमें परिश्रम करके कम वर्षा के बावजूद ही खेती को निपजा देता है। उससे फल प्राप्त कर लेता है। ठीक उसी प्रकार से ही यह शरीर ही खेत है। यह जीवात्मा ही किसान है। ये दोनों ही अति पवित्र अन्तःकरण वाले होंगे कि जहां कहीं भी वर्षा रूपी ज्ञान चर्चा होगी वहीं पर जाकर निरंतर अभ्यास करेगा तभी यह परिश्रम की खेती का आनन्द रूप फल प्राप्त होगा।
लुण चुण लीयो मुरातब कीयो, कण काजै खड़ गाहिये। कण तुस झेड़ो होय नवेड़ो, गुरु मुख पवन उड़ाइये। पवणां डोलै तुस उड़ेला, कण ले अर्थ लगाइये।
जब फसल पककर तैयार हो जाती है तो चुन चुन करके एकत्रित की जाती है। फिर डूर यानि भूसा के अन्दर से अन्न निकालने के लिये गाहन-गाहटा किया जाता है। बाद में पवन देवता के वेग से थोथा घास उड़ा दिया जाता है। तो पीछे कण रूप अन्न ही शेष रह जाता है। जो भोजन बन करके भूख की निवृत्ति करता है। उसी प्रकार से किसान सदृश साधक को भी साधना द्वारा साध्य तैयार हो जाये तब उसे इधर-उधर जहां से भी ज्ञान प्राप्त हो सके वहीं से करना चाहिये। जब अधिक ज्ञान की सामग्री एकत्रित हो जाती है तब अपने जीवनोपयोगी सामग्री का प्रयोग कर लेना चाहिये। सत्य असत्य के विवेक के लिये गुरु मुख से निकले हुए शब्द ही वायु है, जो कण और तुस के झगड़े को नवेड़ा-निर्णय कर देता है। जब गुरु मुख से विवेक होगा तो व्यर्थ की असत् बातें उड़ जायेगी।कण रूपी तत्व ज्ञान ही शेष रह जायेगा। उसी कण तत्त्व को अपने जीवन में अपनाओगे तो जीवन आनन्दमय अवस्था को प्राप्त हो जायेगा।
यूं क्यूं भलो जे आप न फरिये, अवरां अफर फराइये। यूं क्यूं भलो जे आप न डरिये, अवरां अडर डराइये।
इसमें भलाई कैसे हो सकती है जो आप स्वयं तो करता नहीं है अर्थात् फल प्राप्ति पर्यन्त कर्म करता नही औरों को ही फरमाता है तथा स्वयं तो पाप कर्मों से परमात्मा से डरता नहीं है और दूसरों को ही डराता है। भयजनक कथाओं से भयभीत करता है।
यूं क्यूं भलो जे आप न जरिये, अवरां अजर जराइये। यूं क्यूं भलो जे आप न मरिये, अवरां मारण धाइये।
ऐसे भला कैसे हो सकता है जो स्वयं तो जरणा रखता नहीं है तथा दूसरों को जरणा रखने का उपदेश देता है तथा स्वयं तो मरना चाहता नहीं है किन्तु दूसरों को मारने के लिये दौड़ पड़ता है।
पहलै किरिया आप कमाइये, तो औरां न फरमाइये। जो कुछ कीजै मरणै पहले, मत भल कहि मर जाइयै।
क्योंकि किसी दूसरों को कहने से पहले वही कार्य स्वयं करके दिखाइये फिर दूसरों के प्रति कहिये। जब तक स्वयं अपने जीवन में शुभ कर्मों को नहीं अपनाओगे तब तक आप दूसरों को कहने के अधिकारी नहीं है। यदि आप कहते हैं तो उसका कोई महत्त्व नहीं हुआ करता। यदि कुछ करना है तो मृत्यु से पूर्व ही कर लीजिये। बाद में करेंगे, फिर करेंगे इस भूल में ही समाप्त नहीं हो जाना।
शौच स्नान करो क्यूं नाही, जिवड़ा काजै न्हाइये। शौच स्नान कियो जिन नाही, होय भैंतूला बहाइये।
इसी शरीर व जीवात्मा की पवित्रता के लिये शौच यानि बाह्य आन्तरिक मल त्याग के बाद जल मृतिका से पवित्रता तथा स्नान क्यों नहीं किया। यह तो तुझे इस जीव की भलाई के लिये करना चाहिये था। जिस व्यक्ति ने शौच स्नान नहीं किया उसे भूत-प्रेत की अपवित्र योनि प्राप्त होगी जो भैंतूला वायु की गांठ विशेष होकर दुखी जीवन व्यतीत करते हुऐ विचरण करना पड़ेगा।
शील विवरजित जीव दुहेलो, यमपुरी ये सताइये। रतन काया मुख सुवर बरगो, अबखल झंखे पाइये।
शील से रहित यह जीव इह लोक में दुखी होता हुआ यम की पूरी नरक में दुख रूप दण्ड से दंडित किया जायेगा। तेरी यह काया रतन सदृश थी, इस मुख से अमृतमय सत्य प्रिय हित कर वचन बोलना चाहिये था किन्तु अबखल झूठ, निंदा व्यर्थ का बकवास ही बोला तो तेरा यह मुख सूवर के मुख जैसा ही है और आगामी जीवन में भी होने की पूरी सम्भावना है।
सवामण सोनो करणै पाखो, किण पर वाह चलाइये। एक गऊ ग्वाला ऋषि मांगी, करण पखों किण सुरह सुबच्छ दुहाइये।
सवा मण सोने का दान कर्ण नित्य प्रति करता था। कर्ण के अतिरिक्त कौन ऐसा होगा जिसे वाह वाह दी जाय। कर्ण ने ग्वालों से ऋषि की प्रार्थना पर अच्छी दुधारू छोटे बच्छे वाली गाय उनको तुरंत प्रदान की थी। कर्ण के विना ऐसा दानवीर कौन हो सका था तथा-
करण पखों किन कंचन दीन्हों, राजा कवन कहाइये। रिण ऋद्धे स्वामी करण पाखों, कुण हीरा डसन पुलाइये।
दानवीर कर्ण के अतिरिक्त इतना कंचन किसने दिया और इस पृथ्वी पर शूरवीर राजा भी कौन कहलाया। कर्ण ने दान रूपी ऋण सदा ही दिया फिर भी रिद्धि-सिद्धि का स्वामी कर्ण के समान और कौन हुआ। कर्ण ने ही तो युद्ध भूमि में घायलावस्था में ही कृष्ण अर्जुन के मांगने पर हीरे स्वर्ण जडि़त दांतों को तोड़कर समर्पित किया था। कर्ण के विना ऐसा कौन कर सकता था।
किहिं निस धर्म हुवै धुर पुरो, सुर की सभा समाइये। जे नविये नवणी, खविये खवणी, जरिये जरणी। करिये करणी, तो सीख हुयां घर जाइये।
कर्ण महादानी तो था किन्तु एकदेशीय धर्म का पालन करने वाला था। केवल दान ही सम्पूर्ण धर्म नहीं है। सम्पूर्णता के लिये तो अन्य आवश्यक कर्म भी अपनाने होते है। जो व्यक्ति नम्रता, योग्य स्थान में नमन करते हुऐ, क्षमा स्थान में क्षमाशील होते हुऐ, जरणीय दोषों की जरणा रखते हुऐ ही पूर्ण धर्म को अपना सकता है। वही देव सभा में सुशोभित होकर वहां स्थायी रूप से रह सकता है। यही अन्तिम विदाई भी दी जाती है। कि तुम अपने घर वापिस जाओ।
अहनिश धर्म हुवै धुर पूरौ, सुर की सभा समाइये।
इस प्रकार से दिन रात प्रति क्षण धर्म पूर्णता से निभाया जा सके तो देवताओं की सभा में सम्मिलित हो सकता है। यदि अध्धूरा रहा तो फिर उस क्षणिक सुख फल को भोग करके वापिस आना पड़ेगा।
किहिं गुण विदरों पार पहुंतो, करणै फेर बसाइये। मन मुख दान जु दीन्हों करणै, आवागवण जु आइयै। गुरु मुख दान जु दीन्हों बिदुरै, सुर की सभा समाइये।
विदुर ने कौनसा गुण धारण किया जिससे पार पहुंच गया और कर्ण ने कौनसा अवगुण धारण किया जिससे वह वापिस जन्म-मरण के चक्कर में आ गया। इसका कारण बतलाते हैं कि गुरु मुखी होकर दान विदुर ने दिया तथा नम्रता-शीलता,निरभिमानता आदि गुण धारण कियें जिससे विदुर तो देव सभा में सुशोभित हुआ, जन्म-मरण के चक्कर से छूट गया तथा कर्ण ने दान तो बहुत ज्यादा दिया किन्तु मनमुखी होकर अभिमान सहित दिया तथा नम्रता शीलता आदि गुणों को धारण नहीं किया। इसलिये आवागवण के चक्कर से छूट नहीं सका।
निज पोह पाखों पार असी पुर, जाणी गीत विवाहे गाइयै। भरमी भूला वाद विवाद, आचार विचार न जाणत स्वाद।
कुछ लोग पार उतरने के लिये सद्मार्ग को तो जानते नहीं तथा इस संसार से पार उतरने की बात को सामान्य ही मानते हैं। जैसे विवाह में गीत गाये जाते हैं। उनका कुछ भी अर्थ, सत्यता , गंभीरता नहीं होती वैसे ही राग मात्र ही होती है। इतना सरल मार्ग दर्शन शास्त्र नहीं है ये शास्त्र तथा धर्म मार्ग विवाह के गीत जैसे नहीं है कुछ भ्रम के अन्दर भूले हुए लोग वाद-विवाद में ही समय व्यतीत कर देते है। वे आचार विचार के स्वाद को नहीं जानते।
कीरत के रंग राता मुरखा मन हट मरे, ते पार गिराये कित उतरै।
आचार-विचार के स्वाद रहित भ्रम में पड़कर वाद-विवाद करने वाले जन वे अपनी ही कीर्ति चाहते हैं। मेरा ही इस संसार में नाम हो, आदर सत्कार हो ऐसे अभिमान रूपी कीर्ति के रंग में रचे हुए महामूर्ख जन इस संसार से पार कैसे उतरेंगे। वे तो अत्यध्धिक गहराई में डूब चुके है
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