सबद-29 (इलोल सागर) ओ३म् गुरु के शब्द असंख्य प्रबोधी, खार समंद परीलो। खार समंद परै परै रे, चैखण्ड खारूं, पहला अन्त न पारूं। 

गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।

ओ३म् गुरु के शब्द असंख्य प्रबोधी, खार समंद परीलो। खार समंद परै परै रे, चैखण्ड खारूं, पहला अन्त न पारूं। 
भावार्थ-‘‘स तु सर्वेषां गुरु कालेनानवच्छेदात्‘‘ ‘योग दर्शन‘ वह परम पिता परमात्मा ही सभी का गुरु है तथा काल से परे है। ऐसे सतगुरु के शब्द व्यर्थ नहीं हुआ करते, वे तो असंख्य जनों को प्रबोध-ज्ञान कराने वाले होते हैं। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि इन मेरे शब्दों ने असंख्य जनों को ज्ञानी बनाया है। इस जम्बू दीप भारत खण्ड से बाहर खार समुद्रों से परे भी तथा उनसे भी आगे अनेकानेक देशों में मेरे इन शब्दों की गुंजार पहुंची है। इन चारों खण्ड समुद्रों से पार तो इस समय लोगों को शुद्ध सात्विक बनाया है। अब से पूर्व भी समय-समय पर अनेकों शरीर धारण करके लोगो को चेताया है। जिसकी कोई गिनती भी नहीं है।

अनन्त कोड़ गुरु की दावण बिलंबी, करणी साच तरीलो। सांझे जमो सवेरे थापण, गुरु की नाथ डरीलो। 
सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक अनन्त करोड़ प्राणियों ने गुरु की दावण यानि नियम बद्ध जीवन स्वीकार किया है और सत्य धर्म मय जीवन स्वीकार करके संसार सागर से पार उतर गये। सतगुरु ने उन्हें उद्दण्डता से निवृत करके सांय समय जागरण सत्संग तथा प्रातः काल कलश स्थापना करके हवन-पाहल रूपी नाथ पहनायी। वही धर्म साधक नाथ जीवन को संयमित करती है।वे लोग सदा ही गुरु के नियमों पर तत्पर रहकर पापमय जीवन से डरते है।

भगवी टोपी थलसिर आयो, हेत मिलाण करीलो। अम्बाराय बधाई बाजै, हृदय हरि सिंवरीलो।
वही सतगुरु जो देश देशान्तरों में भ्रमण करके अनन्त करोड़ों को पार उतारने वाले है। यहां सम्भराथल पर भगवीं टोपी पहन कर आये है। यदि कोई अपना हित चाहता है तो मिलाप कर सकता है। जो भी मिलाप करेगा वह निश्चित ही हृदय में हरि विष्णु परमात्मा का स्मरण करता हुआ आनन्दमय लोक को प्राप्त करेगा। जब वह वहां पहुंचेगा तो देवता लोग स्वागत सहित अपने यहां वास देंगे।

कृष्ण मया चैखण्ड कृषाणी, जम्बू दीप चरीलो। जम्बू दीप ऐसो चर आयो, इसकन्दर चेतायो। मान्यो शील हकीकत जाग्यो, हक की रोजी धायों।
परमात्मा श्री कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया का ही यह दृश्य अदृश्य जगत रूप है। एक बीज रूपी माया का यह जगत रूप पसारा है। किन्तु इसके कृषक स्वयं परमात्मा है। श्री देवजी कहते है कि इस विशाल सृष्टि के अन्दर भ्रमण करते हुऐ भी मैं यहां विशेष रूप में ही विचरण करता हूं।तथा इसमें विचरण करते हुऐ दिल्ली के बादशाह सिकन्दर को चेताया है।उसे अधर्म मार्ग से निवृत करके शील व हक की कमाई करने का उपदेश दिया है। वह बादशाह होते हुए भी यह स्वीकार किया है। अब वह हक की कमाई करके ही अपना जीवन निर्वाह करता है।

ऊनथ नाथ कुपह का पोहमा आण्या, पोह का धुर पहुंचाया।
जो लोग अति उदण्ड थे उनको तो सज्जन बनाया तथा जो लोग कुमार्ग पर चलते थे उनको सुमार्ग में प्रवृत करवाया तथा जो लोग सुमार्ग में चलते थे अपनी क्रिया कर्म में पक्के थे उनको परम पद की प्राप्ति करवा दी, यही मेरा परम कत्र्तव्य है, यह मैने ठीक से सम्पूर्ण किया है और आगे भी करूंगा।

मोरे धरती ध्यान वनस्पति वासों, ओजूं मण्डल छायों। गीन्दूं मेर पगाणै परबत, मनसा सोड़ तुलायो। 
गुरु जाम्भोजी अपने भ्रमण की व्यापकता को दर्शाते है कि मेरे इस सर्वत्र व्यापक रूप में यह धारण शक्ति सम्पन्ना धरती ही ध्यान है। किसी वस्तु विशेष को निरंतर चित में रखने को ही ध्यान कहते है तथा धरती ही निरंतर सभी जड़-चेतन प्राणियों को धारण करती है। इसलिये मेरा ध्यान तो धरती की तरह अडिग है अर्थात् धरती रूप ही है।जिस प्रकार इस धरती से ही भोजन प्राप्त करके वनस्पति धरती के आधार पर खड़े है और कण-कण में विद्यमान है। उसी प्रकार से श्री देवजी कहते हैं कि मैं भी ध्यान रूप से अडिग होकर वनस्पति रूप में सर्वत्र व्यापक हूं तथा वनस्पति की तरह परोपकारी भी हूं। सत्य सनातन रूप से सम्पूर्ण मण्डल में छाया हुआ हूं। उसी सत्य के बल पर यह मण्डल टिका हुआ है। सुमेरू पर्वत ही मेरा तकिया है तथा अन्य सभी छोटे-मोटे पहाड़ पैरों के नीचे ही रहने वाले छोटे गद्दे है अर्थात् जब मेरा शयन होता है तो वह भी इस पार से लेकर उस पार तक सम्पूर्ण सृष्टि को नीचे दबाकर ही होता है। मनसा-इच्छा ही मेरी सोड़ है। उसी सोड़ को ओढ़कर जब मैं सोता हूं तो इन जीवों को कर्म करने की पूरी छूट मिल जाती है। उस समय यह संसार अनेकानेक वासनाओं से परस्पर तुल जाता है। अनेक व्यक्तियों की परस्पर वासनाएँ संघर्ष पैदा करती है।स्नेह पैदा करती है, वासना पूर्ति के लिये मानव कार्य रत होता है। जिससे इस संसार की उतरोतर वृद्धि होती है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि अनेक लोक भी परमात्मा की इच्छा से ही एक-दूसरों के आकर्षण से तृप्त हुऐ है इसलिये अपने अपने स्थान में स्थित है।ऐ जुग चार छतीसा और छतीसां, आश्रा बहै अंधारी, म्हे तो खड़ा बिहायो। 
सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग ये चार युग बीत गये तथा इसी प्रकार से चार युग नौ बार इससे पहले बीत चुके है तथा इनसे पूर्व भी नौ बार ये चार युग बीत चुके, अर्थात् दो बार छतीस युग बीत चुके है ये सभी मेरे परमात्मा के आश्रय से ही व्यतीत हुआ है। उससे पूर्व तो अन्ध्धकार ही था। सूर्य आदि की उत्पति भी नहीं हुई थी। तब तो चेतन ब्रह्म रूप में ही स्थित था। यह मैने व्यतीत होते हुऐ देखा है तो फिर मेरे भ्रमण के बारे में क्या पूछते हो।

तेतीसां की बरग बहां म्हे, बारा काजै आयो। बारा थाप घणा न ठाहर मतांतो डीले डीले कोड़ रचायो,म्हे ऊंचै मण्डल का रायों|
सतयुग में प्रहलाद भक्त के समय में तेतीस करोड़ देव-मानवों का उद्धार करने के लिये भी मैने ही नृसिंह रूप धारण किया था। उसको दैत्यों के त्रास से मुक्ति दिलवाई थी। सतयुग में तो केवल पांच करोड़, त्रेता में सात, द्वापर में नौ करोड़ का ही उद्धार हो सका, अब कलयुग में उनसे बचे हुऐ बारह कोटि जीवों का कल्याण करने के लिये यहां पर मेरा आगमन हुआ है। इन बारह कोटि जीवों का उद्धार करके ज्यादा दिन नहीं ठहरूंगा। यहां पर आने का मुख्य प्रयोजन प्रहलाद पंथी जीवों का उद्धार करना ही है। यदि मैं चाहूं तो प्रत्येक शरीर धारी जीवात्मा में परमात्मा के प्रति तथा शुभ कार्य के प्रति कोड-प्रेम भाव पैदा कर सकता हूं। कुछ लोग तो अब तक मुक्ति प्राप्ति की योग्यता भी नहीं रखते। हम तो सर्वोच्च मण्डल ब्रह्मलोक के राजा है। असंभव को भी संभव कर देते है।

समन्द बिरोल्यो वासग नेतो, मेर मथाणी थायों। संसा अर्जुन मारयो कारज सारयो, जद म्हे रहंस दमामा वायो।
समयानुसार हमने और भी अनेक कार्य किये है जैसे-जब देव दानवों ने मिलकर समुद्र को बिलोया था तब हमारी आज्ञा से वासुकी नाग का नेता-रस्सी बनायी थी और सुमेरू पर्वत की मथानी बनायी थी। यह सभी सामान जुटाने पर भी उनका कार्य सिद्ध नहीं हो सका तो कछुवे का रूप धारण करके उनका कार्य सिद्ध किया था। परशुराम का रूप धारण करके मुझे ही दुष्ट संहस्रार्जुन जैसे क्षत्रियों का विनाश करके पृथ्वी के भार को हल्का करना पड़ा था। उस समय मैने ही दुष्ट क्षत्रियों पर ब्राह्मण की विजय का यह रहस्यमय डंका बजाया था।

फैरी सीत लई जद लंका, तद म्हे ऊथे थायो। दशसिर का दश मस्तक छेद्या, बाण भला निरतायो। 
त्रेता युग में जब राम रूप हो करके दशसिर रावण के दशों सिरों को छेदन अच्छे अच्छे नुकीले बाणों द्वारा किया। उस समय दोनो ओर से बाणों का महान नृत्य हुआ था। उन्हीं बाणों द्वारा रावण को मार करके सीता को वापिस लाये तथा लंका को अपने अधीन किया था। उस समय कुछ समय के लिये मुझे लंका में ही रहना पड़ा था।

म्हे खोजी थापण होजी नाही, लह लह खेलत डायों।
हम खोज करने वाले सच्चे पारखी हैं। कहीं भी भूल से गलत निर्णय नहीं लेते हैं। समय समय पर अनेक लोगों को पहले तो उन्हें अत्याचार करने का पूरा मौका देते हैं बाद में खेल के मैदान में आमन्त्रित करके जड़मूल से ही उखाड़ देते हैं। हमारे लिये तो यह एक प्रकार का खेल ही है। दुष्टों का विनाश करते समय भी हम निर्दोष ही बने रहते हैं।

कंसा सुर सूं जूवै रमिया, सहजै नन्द हरायो।
इसी प्रकार द्वापर में भी कंस असुर के साथ मैने वैसा ही खेल किया था। बिना खेल किये आनन्द नहीं आता है। दुनिया वाले उन्हें सच्चा मान लेते हैं। उसी प्रकार से पहले तो मैं नन्द जी के घर पर मक्खन खाकर बड़ा हुआ। गउवें चराई, बंशी बजाई तथा बाद में वृन्दावन गोकुल छोड़कर मथुरा जा बसा फिर वापिस लौटकर देखा तक नहीं। प्रथम तो नन्द जी को अति प्रसन्नता प्रदान की किन्तु बाद में दुखी करके मैने ही हरा दिया।

कूंत कंवारी कर्ण समानों, तिहिं का पोह पोह पड़दा छायो। 
उसी समय जब मैं कृष्ण के रूप में था तब कुमारी कन्या कुन्ती के ऋषि वरदान से सूर्यदेव की परछाया रूप कर्ण जैसा बलवान दानी बालक जन्मा था। किन्तु कुन्ती जिन्हें समाज के भय से स्वीकार नहीं कर सकी थी तब मैने ही हमेशा इस घटना पर पर्दा डालकर रखा था। इस रहस्य का पता कर्ण की मृत्यु पर्यन्त किसी को भी नहीं लग सका था। यह असंभव बात भी संभव करके दिखायी था। अब आगे दूसरा पर्दा बतलाते है।

पाहे लाख मजीठी पाखों, बनफल राता पीझूं पाणी के रंग धायो। तेपण चाखन चाख्या भाख न भाख्या,जोय जोय लियो फल फल केर रसायो।
गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं – कर्ण की घटना को तो पर्दे में छिपा दिया था। किन्तु अब कलयुग में कुछ लोग वैसे ही तरह तरह के वेश बनाकर अपने वास्तविक जीवन पर पर्दा डालना चाहते हैं। जैसे लाख की चूडियां बनने से पूर्व अवस्था में सौन्दर्य मय नहीं होती है किन्तु मजीठ रंग चढ़ जाने पर पूर्व का रूप ढ़क जाता है और लाल वर्ण वाली हो जाती
मरूभूमि में होने वाला जाल वृक्ष का फल भी गर्मी के मौसम में पकता है। पकने से पूर्व वह भी हरे रंग का होता है, पक करके लाल रंग धारण कर लेता है। जाल वही है किन्तु पककर लाल रंग का हो जाता है। उसी प्रकार से मरूभूमि में होने वाला केर का पेड़ उसका फल भी पकने से पूर्व हरे रंग का तथा कड़वा ही होता है वही पककर लाल वर्ण वाला हो जाता है तथा कुछ मीठापन भी आ जाता है। ये सभी उपर से देखने में तो अति सुन्दर मालूम पड़ते हैं किन्तु खाने में इनका असली भेद खुल जाता है उसी प्रकार से बाह्यवेश तो संत, योगी, भक्त का बना लेते हैं दूर से देखने में तो सच्चे योगी ही मालूम पड़ते हैं किन्तु व्यवहार करने पर कोरे ही केरिया, पील, लाख जैसे ही निकल आते है। इसी बात को आगे फिर से कहते हैं।

थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या, न चीन्हों सुर रायो। कण बिन कूकस कांस पीसों, निश्चै सरी न कायों।
इस समय तो केवल बाह्य दिखावे के ही योगी है। योगी कहलाने पर भी आपने योग साधना नहीं की तो फिर बिना साधना के कैसे योगी हो सकते हो। इसलिये न तो तुमने योग किया और न ही भोग ही भोगा तथा न ही परमात्मा विष्णु का स्मरण किया अन्य सांसारिक कार्य करने में ही अपना समय व्यर्थ में गमाया तो समझो, बिना धान अनाज का भूसा -चांचड़ा ही पीसते रहे उससे कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकी। अपने कर्तव्य कर्म की सिद्धि नहीं हो सकेगी, घास से भूख नहीं मिटेगी।

म्हे अवधूं निरपख जोगी, सहज नगर का रायों।
जो ज्यूं आवै सो त्यूं थरपा, साचा सूं सत भायो। 
हम तो अवधूं पक्षपात रहित योगी है। सदा ही स्वकीय सहज अवस्था में ही रहते हैं। हमें संसार की मोह-माया आच्छादित नहीं कर सकती। इस परमावस्था में रहते हुए भी जन-कल्याणार्थ जो कोई भी जैसी भी शंका तथा भावना लेकर आता है उसे उसी प्रकार की ही भाषा में समझाकर दुर्गुणों की निवृति करते हैं और जो वास्तव में सच्चे लोग है वे मुझे बहुत प्रिय है।

मोरै मन ही मुद्रा तन ही कंथा, जोग मारग सहडायों। सात शायर म्हे कुरलै कीयो, ना मैं पीया न रह्या तिसायों। 
मैं आदि अनादि युगों का योगी होते हुऐ भी न तो मेरे कानों में मुद्रा है और न ही शरीर पर कंथा गुदड़ी है। मैने योग मार्ग को सहज ही में स्वीकार कर लिया है। बाह्य दिखावे की आवश्यकता नहीं है। सात चक्रों को मैने भेदन किया है अर्थात् मूलाधार चक्र से ऊर्जा शक्ति का ऊध्ध्र्व गमन प्रारम्भ करके सहस्रार तक पहुंचा हूं। मूलाधार चक्र के चलते समय ही एक एक चक्र का रस मैने चखा है। उसका अल्प मात्रा में ही स्वाद लेकर वहीं नहीं रूका , आगे का और इन सात समुद्रों को तैरकर पार किया है। बीच में आने वाली आनन्द की झलक वैसी थी जैसे कोई प्यासा व्यक्ति जल को होठों पर लगा ले उस समय न तो वह प्यासा ही रहेगा और न ही पूर्णरूपेण जल पी सकेगा। अर्थात् बीच में पड़ने वाले चक्रों में आनन्द तो है परन्तु पूर्ण नहीं, केवल प्यास को मन्द कर सकता है। इसलिये योगी को अन्तिम सप्त सहस्रार में जाकर स्थिर होना चाहिये, वहीं पर ही शाश्वत आनन्द की प्राप्ति होगी।

डाकण शाकण निंद्रा खुध्या, ये म्हारै तांबै कूप छिपायों। 
आशा रूपी डाकणी, तृष्णा रूपी शाकणी और निन्द्रा आलस्य तथा भूख प्यास आदि द्वन्द्वों को तो मैने इसके विपरीत, निराश, संतोष, आलस्य रहित,जागृत, युक्ताहार, विहार आदि से नष्ट प्रायः कर दिया है। सूर्य के सामने अन्धकार छिप जाता है। उसी प्रकार से तृष्णा भी शक्तिशाली निराशा व संतोष के सामने छुप जाती है।

म्हारै मन ही मुद्रा तन ही कंथा, जोग मारग सहलियो। डाकण शाकण निंद्रा खुध्या, ऐ मेरे मूल न थीयों।
इसलिये हमारा मन ही मुद्रा है और तन ही कंथा है। इन्हीं द्वारा मैने योग मार्ग को आत्मसात् कर लिया है। न तो मेरे डाकणी आसा है और न ही शाकणी तृष्णा है तथा भूख- प्यासादि द्वन्द्वों की सर्वथा निवृति हो चुकी है। ये सभी मेरे मूल स्वरूप जीवन में नहीं है
साभार -जंभसागर

गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।

Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
Articles: 799

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *