सबद-23 ओ३म् साल्हिया हुवा मरण भय भागा, गाफिल मरणै घणा डरै

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‘प्रसंग-8 दोहा’
विष्णु भक्त गुंणावती, रहे जूं तेली जात। विश्नोई

धर्म आचरै, जम्भेश्वर किया पात। एक मृघा और तेल पे,

आठ सै एक हजार। खड़े सकल वानै चढ़ै, वह्या करारी

धार। थलसिर हरखे देवजी, साथरियां बूझे बात। भाग
खुलै किस जीव के, कहिये दीना नाथ।
गुणावती नगरी निवासी तेली जाति के कुछ
व्यक्ति थे। वे तिलों से तेल निकालने का कार्य करने
वाले तथा भगवान विष्णु के उपासक थे। उन्हें सुजीव
समझकर श्री देवजी ने पाहल देकर पवित्र किया और
विश्नोई पन्थ में सम्मिलित किया था। एक समय उन
पर विपत्ति आयी कि शिकारियों ने वन्य जीवों
का संहार करते हुए हिरण आदि जीवों को मार
डाला था। उन्हें मृत पशुओं को पकाने के लिये उन
विष्णु भक्त विश्नोइयों से तेल मांगा था।
विश्नोइयों ने उनके कार्य का विरोध करते हुए उन्हें
तेल नहीं दिया। जीव हत्या के इस प्रकार के अनूठे
विरोध को वे लोग (राजकर्मचारी) सहन नहीं कर
सके और एक हजार आठ सौ व्यक्तियों को चोट
पहुंचायी थी। वे विष्णु के सच्चे भक्त उनकी तीक्ष्ण
तरवार की धारा से कुछ भी भयभीत नहीं हुए और
सभी मरने के लिये तैयार थे। इस प्रकार की धर्म में
अडिगता देखकर उन राज पुरूषों का हृदय पसीज गया
था और वे पीछे हट गये थे। इस घटना को सम्भराथल पर
विराजमान श्री गुरु जम्भेश्वर जी ने देखा और हर्षित
होते हुए शरीर में उमंग की लहर से प्रकम्पन्न जैसा
भाव पैदा हुआ। उस रोमांचित दृश्य को देखकर संत
साथरियों ने पूछा कि हे देव! आपकी इस विशेष
प्रसन्नता का क्या कारण है। आज कौनसे जीवों के
भाग खुले है क्योंकि ऐसी विचित्र क्रिया
अप्रयोजन कभी भी नहीं हुआ करती। गुरु जम्भेश्वर
जी ने इस घटना का वर्णन करते हुऐ उनके प्रति यह
सबद सुनाया-
√√ सबद-23 √√
ओ३म् साल्हिया हुवा मरण भय भागा, गाफिल मरणै
घणा डरै।
भावार्थ- ये धर्मवीर पुरूष पवित्र हो चुके हैं। काम,
क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेषादि कूड़ा-करकट
निकालकर साल्हिया हुए है। अब इन्हें मृत्यु से कुछ भी
भय नहीं है। अन्य छोटे-बड़े खतरों से तो डर का सवाल
ही कहां उठता है। इनके विपरीत जो अल्हिया जन है
जिनके अन्दर अब तक मोह मायादि बिमारी
विद्यमान है, वे गाफिल है ऐसे अज्ञानी लोग मृत्यु से
बहुत ही डरते हैं। वे लोग कभी भी धर्म रक्षार्थ
प्राणों की बलि नहीं दे सकते है। साल्हिया जन ही
यह कार्य कर सकते हैं।
सतगुरु मिलियो सतपन्थ बतायो, भ्रान्त चुकाई, मरणे
बहु उपकार करे।
क्योंकि इन धर्मवीर पुरूषों को सतगुरु मिला है, ,
सतपन्थ बताया है और भ्रान्ति मिटा दी है। इसलिये
भ्रमज्ञान रहित ये ज्ञानी जन बड़े आनन्द के सहित
मरने के लिये तैयार है। ऐसे लोग अपने प्राणों का
बलिदान देकर समाज देश तथा धर्म का बहुत ही
उपकार कर जाते हैं। उनकी मृत्यु सफल है क्योंकि आने
वाली पीढ़ी तथा वर्तमान दोनों ही उनसे शिक्षा
ग्रहण करते हैं।
रतन काया सोभंति लाभै, पार गिराये जीव तिरै,
पार गिराये सनेही करणी।
धर्म की रक्षा करते हुऐ प्राण छूट भी जाये तो भी
व्यर्थ में नहीं जाता, उसे इस शरीर के छूटने के बाद आगे
स्वर्ग में जाने के लिये दिव्य रत्न सदृश काया मिलती
है। उस नवीन काया रूपी सूक्ष्म शरीर द्वारा स्वर्ग में
सुखों को भोगता हुआ वह जीवन मुक्ति को प्राप्त
हो जाता है। वहां तक पहुंचने के लिये जीवात्मा को
ऐसा ही परोपकारार्थ कार्य करना पड़ता है तथा
परोपकारी कार्य भी तभी हो सकता है। जब सभी
जीवों पर स्नेह भाव हो। इसलिये स्नेही करणी होनी
चाहिये।
जंपो विष्णु न दोय दिल करणी, जंपो विष्णु न निंदा
करणी।
स्नेही करणी के लिये एकाग्र मन प्रेम भाव से विष्णु
का स्मरण करो, वही तुम्हारे हृदय में प्रेम भाव
जगायेगा। प्रेम-स्नेह की बाधक परायी निंदा करते
हुए समय को व्यर्थ में कभी नष्ट मत करो। जितना
समय परनिंदा में लगाते हो उतना समय उस परम दयालु
समदर्शी परमेश्वर विष्णु के ध्यान भजन स्मरण में
व्यतीत करो। इसी में ही तुम्हारा कल्याण है।
मांडो कांध विष्णु के सरणै,अतरा बोल करोजे साचा
तो पार गिराय गुरु की वाचा|
विष्णु परमात्मा की संगति ग्रहण करके धर्म तथा
जीव रक्षार्थ अपने शरीर को उन हत्यारों के आगे
स्थिर कर दो। यदि तुमने सच्चाई में ही विष्णु की
शरण ग्रहण की है तो तुम्हारा वे शिकारी कुछ भी
नहीं बिगाड़ सकते और वे हत्यारे नहीं हटते है, आप पर
हथियार चला देते है तो भी कोई हानि नहीं है,
निश्चित ही तुम्हें विष्णु परमात्मा का सानिध्य
प्राप्त होगा। यदि इतने बताये हुऐ गुरु के वचनों पर
सत्यता से चलते हो तो यह सद्गुरु का वचन है कि
निश्चित ही तुम लोग संसार सागर से पार उतर
जाओगे।
वणां ठवणां चवरां भवणां, ताहि परेरै रतन काया छै,
लाभै किसे विचारे
स्वर्ग में गन्ध्धर्वों द्वारा गायन, अप्सराओं द्वारा
नृत्य, आलिशान भवनों में चंवर ढ़ुलाना आदि
अस्थायी सुखों से भी परे अन्य लोक है। जहां पर
दिव्य रतन सदृश काया प्राप्त करके पहुंचा जा सकता
है। किन्तु कौनसे विचारों द्वारा उस परमात्मा को
प्राप्त कर सकते है आगे बतलाते है।
जे नविये नवणी, खविये खवणी, जरिये जरणी। करिये
करणी, तो सीख हुवां घर जाइये
यदि इस संसार में नमन करने योग्य व्यक्ति से नमन
करते हुऐ अर्थात् निरभिमानी होते हुए , क्षमा करने
योग्य जगह पर क्षमा शील होते हुए, जरणा करने
योग्य स्थान में जरणा करते हुए और कर्तव्य कर्मों को
करते हुए अपना जीवन यापन करो तो आप लोगों को
यह सीख है कि अपने घर वापिस जाओ। जिस घर से
आप लोग अलग हुए हैं और इस गोवलवास में आ पहुंचे है
श्री देवजी कहते है कि यह मेरी अन्तिम विदाई है अब
आप अपने कर्तव्यों का पालन करके वापिस अपने मूल
स्थान रूप परमतत्व में लीन हो जाओ।
रतन काया सांचे की ढ़ोली, गुरु प्रसादे, केवल ज्ञाने
धर्म आचारे शीले संजमें, सतगुरु तुठे पाइये।
उस परम तत्व की प्राप्ति के लिये जिस रतन काया
की आवश्यकता पड़ती है वह काया सद्गुरु की अपार
कृपा से, कैवल्य ज्ञान,धर्म सम्बन्ध्धी आचार-विचार,
, शील तथा इन्द्रियों के संयम रूपी ढ़ांचे में ढ़लती है।
इसलिये रतन काया की प्राप्ति के लिये इन नियमों
को अपनाना होगा। इतना होने पर भी उस दिव्य
रतन काया को वहां तक पहुंचाने में प्रमुख कारण
सत्गुरु की प्रसन्नता ही होती है।
साभार – जंभसागर

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Sanjeev Moga
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