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ओ३म् जां जां दया न माया, तां तां बिकरम काया।
भावार्थ- जिस जिस व्यक्ति में दया भाव तथा प्रेम भाव नहीं है, उस व्यक्ति के शरीर द्वारा कभी भी शुभ कर्म तो नहीं हो सकते। सदा ही मानवता के विरूद्ध कर्म ही होंगे। इसलिये दया तथा प्रेम भाव ही शुभ कर्मों का मूल है।
जां जां आव न वैसूं, तां तां सुरग न जैसूं।
जहां जहां पर आये हुऐ अतिथि को आदर – सत्कार नहीं है अर्थात् ‘‘आओ, , बैठो, , पीयो पाणी ये तीन बात मोल नहीं आणी‘‘ इस प्रकार से नहीं होता है, वहां पर उस घर में कभी स्वर्ग जैसा सुख नहीं हो सकता। क्योंकि अतिथि अग्नि स्वरूप होता है। अग्नि जल से ठण्डी होती है। अतिथि सत्कार से ठण्डा होता है नहीं तो अग्नि रूप अतिथि स्वकीय अग्नि को वहीं छोड़कर चला जाता है वह घर सदा ही जलता रहता है।
जां जां जीव न ज्योति, तां तां मोख न मुक्ति।
जिस विद्वान या भक्त ने प्रत्येक जीव में उस पामात्मा की ज्योति का दर्शन नहीं किया है जिसका अब तक द्वेत भाव जनित राग, द्वेष आदि निवृत नहीं हुऐ है तब तक उसकी मोक्ष या मुक्ति कदापि नहीं हो सकती। ‘‘ऋते ज्ञानात् न मुक्ति‘‘ ज्ञान विना मुक्ति संभव नहीं है।
जां जां दया न धर्मूं, तां तां बिकरम कर्मूं।
जहां पर जिस देश काल या व्यक्ति में दया भाव जनित धर्म नहीं है वहां सदा ही धर्म विरूद्ध पापमय ही कर्म होंगे। दयाभाव, नम्रता, शीलता, धार्मिकता ये मानव के भूषण है। ये धारण करने से मानवता निखर करके सामने आती है।
जां जां पाले न शीलूं, तां तां कर्म कुचीलूं।
जिस मानव ने शीलव्रत का पालन नहीं किया अर्थात् सभी के साथ सुख दुख में सहानुभूति रखते हुऐ नम्रता का व्यवहार नहीं किया तो वहां पर उस व्यक्ति में सदा ही कुचिलता ही रहेगी। वह कभी भी सज्जनता से सत्य व्यवहार नहीं करेगा, , सदा ही कुटिलता का ही व्यवहार करेगा।
जां जां खोज्या न मूलूं, तां तां प्रत्यक्ष थूलूं।
जिस साधक जन ने उस मूल स्वरूप परमात्मा की खोज नहीं की किन्तु अपने को साधक भक्त-सिद्ध कहता है तो समझो कि उसने प्रत्यक्ष रूप प्रतिमा आदि पर मत्था टेककर समय व्यर्थ ही गंवा दिया। खोज तो सर्वत्र समाहित की ही होती है न कि प्रत्यक्ष स्थूल पदार्थों की।
जां जां भेद्या न भेदूं, तो सुरगे किसी उमेदूं।
अध्ययनशील जिस पुरूष ने भी सत्य असत्य का सम्यग् प्रकारेण निर्णय नहीं किया, , ग्राह्य एवं त्याज्य का ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो उसे स्वर्ग सुख की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये। जगत में कर्तव्य कर्म करने चाहिये और अकर्तव्य कर्म त्यागने चाहिये। तभी स्वर्ग सुख प्राप्त होता है।
जां जां घमण्डै स घमण्डूं, ताकै ताव न छायो, सूतै सांस नशायो।
जो अज्ञानी व्यक्ति स्वकीय अभिमान द्वारा ही सभी को दबाना चाहता है। अपने को ही सर्वोपरि समझता है। उस व्यक्ति का ताव यानि तेज सभी उपर नहीं छा जाता। यानि सभी को बल से नहीं जीता जा सकता। यदि किसी के हृदय में अपनी झलक छोड़ना है तो वह बल अभिमान से नहीं, किन्तु प्रेम सज्जनता से ही संभव है। ऐसे अभिमानी पुरूष का श्वांस तो निन्द्रा के वशीभूत होने पर ही निकल जायेगा। अपने अभिमान से तो अपने प्रिय श्वांसों को भी वश में नहीं कर सकता तो अन्य प्राणियों को तो वश में करना दूर की बात है।
साभार – जंभसागर
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