सबद-17 : ओ३म् मोरै सहजे सुन्दर लोतर बाणी, ऐसो भयो मन ज्ञानी।

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‘दोहा‘‘
जाट परच पाऐ लग्यो, हृदय आई शांत। सतगुरु साहब एक है, गई हृदय की भ्रान्त। प्रसंग दोहा विश्नोईयां ने आयके, इक बूझण लागो जाट। जाम्भोजी के अस्त्री है, ओके म्हासूं घाट। विश्नोई यूं बोलियां, नहीं लुगाई कोई। निराहारी निराकार है, पुरू पुरूष परमात्म सोई। झगड़त झगड़त उठ चल्या, जम्भ तंणै दरबार। जायरूं पूछै देव ने, इसका कहो विचार। जम्भेश्वर इण विधि कह्यो, थे जु लुगाई जान। विश्नोई ऐसे कह्यो, दीठी सुणी न कान। सबद सुणायों देवजी, ऐसे कह्यो विचार। यह सुन्दर मेरे रहे, परख लेहु आचार।
किसी समय विश्नोइयों की जमात भ्रमणार्थ गई हुई थी। उस समय एक अजाराम सियाग बनिया गांव का रहने वाला बड़ा विवादी था। उससे भेंट हो गयी। परस्पर गुरु जम्भेश्वर जी के बारे में चर्चा चली, तब वह कहने लगे कि जाम्भोजी भी हमारी तरह गृहस्थी है, वो स्त्री भी रखते है मैने सुना है। तब बिश्नोई कहने लगे उनके कोई स्त्री नहीं है। वे तो निराहारी निराकार माया रहित ईश्वरीय रूप है। इस प्रकार के विवाद को सुलझाने के लिये वे सभी सम्भराथल पर पहुंचे। वहां पर अपने शिष्य मण्डली सहित जम्भेश्वरजी विराजमान थे। विश्नोइयों ने आकर पूछा – तब जम्भेश्वर जी ने कहा कि मैं स्त्री अवश्य ही रखता हूं। उस समय विश्नोइयों ने कहा-हमने तो कभी आंखों से नहीं देखी और न ही कभी कानों से सुनी है। श्री देवजी ने कहा वह स्त्री ही ऐसी है जिसे आप न तो कानों से सुन सकते और न ही आंखों से देख ही सकते। आप लोग सुनों मैं कैसी स्त्री रखता हूं।

√√ सबद-17 √√
ओ३म् मोरै सहजे सुन्दर लोतर बाणी, ऐसो भयो मन ज्ञानी।

भावार्थ- मेरी यह स्वभाव से ही उच्चरित होने वाली सुन्दर प्रिय वाणी ही स्त्री है। इस प्रिय वाणी से मेरा मन ऐसा ज्ञानी हो चुका है,जिससे अब सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है,अब मुझे किसी सांसारिक स्त्री की आवश्यकता नहीं है। ऐसी दिव्य स्त्री मेरे पास हर समय रहती है। यदि आपको चाहिये तो ले जा सकते हो।

तइयां सासूं तइयां मांसूं, रक्तूं रूहीयूं, खीरूं नीरूं, ज्यूं कर देखूं। ज्ञान अंदेसूं, भूला प्राणी कहे सो करणों।
तब किसी का भी मन ज्ञानी हो जाता है तो फिर नारी-पुरूष में भेदभाव मिट जाता है। क्योंकि जो श्वांस एक नारी में चलता है वही पुरूष में भी जो मांस स्त्री में है वही पुरूष में ही है|
जो रक्त स्त्री में प्रवाहित होता है वह रक्त पुरूष में भी तथा जो जीवात्मा स्त्री में है वही पुरूष में भी है। तो फिर भेदभाव कैसा? जिस प्रकार से हंस दूध्ध व पानी को अलग-अलग कर देता है दूध्ध ग्रहण कर लेता है और जल त्याग देता है उसी प्रकार से मानव को भी विवेकशील होना चाहिये। सार वस्तु का ग्रहण और असार वस्तु का परित्याग। यही ज्ञान का संदेश है। हे भूले हुए प्राणी! मनमुखी कार्य छोड़ कर सद्गुरु शास्त्र, सज्जन पुरूष कहे वैसा ही करना, क्योंकि तुम तो भूल चुके हो स्वयं तो तुझे कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक नहीं है।

अइ अमाणों तत समाणों, अइया लो म्हे पुरूष न लेणा नारी।
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्दर वह सूक्ष्म रूप परब्रह्म समाया हुआ है। इसलिये हे सात्विक लोगों! न तो हम पुरूष रूप है और न ही हम स्त्री रूप है। वह परम तत्व कोई स्त्री या पुरूष रूप में नहीं होता। वह तो सामान्य रूप से दोनों ही है। इसलिये हमारे जैसे पुरूषों के यहां स्त्री-पुरूषों में कदापि भेदभाव नहीं है। न तो हम स्त्री से घृणा से परित्याग करते हैं और न ही पुरूष को उतमता से अपनाते भी हैं।
सोदत सागर सो सुभ्यागत, भवन भवन भिखियारी। भीखी लो भिखियारी लो, जे आदि परम तत्व लाधों।
सन्यास लेने के पश्चात् भी सभी को स्त्री-पुरूष का भेदभाव नहीं मिटता। किन्तु वीर पुरूष तो वही होता है जो उस परम तत्व की खोज करता है। वह खोज भी बड़े ध्धैर्य एवं लग्न के साथ बहुत समय तक करता है वही सुभ्यागत है, ऐसे सुभ्यागत साध्धु की सेवा करने से गृहस्थ को अड़सठ तीर्थों का फल मिलता है। वही सुभ्यागत अभ्यास करते करते उस परम तत्व की प्राप्ति कर लेता है। तो फिर भिक्षा मांगने का अध्धिकारी हो जाता है। वह चाहे कहीं भी रहे किसी भी अवस्था में रहे भिक्षा मांगकर उदर पूर्ति कर ले,उन्हें किसी प्रकार का मान सम्मान या अपमान नहीं रहता, यही दशा युक्त भिक्षुक होता है।

जांकै बाद विराम विरासों सांसो, तानै कौन कहसी साल्हिया साधों।
जिस साध्धु के अब तक व्यर्थ का वाद-विवाद अन्दर बैठा हुआ है अर्थात् तर्क-वितर्क रूपी कैंची जिसके पास है जो काटना ही जानता है और जोड़ना नहीं जानता तथा सच्ची बात को भी नष्ट करना जानता है अपने ज्ञानाभिमान के कारण ग्रहण शक्ति नहीं है और प्रत्येक बात मे तथा ईश्वर के अस्तित्व में अब तक संशय है उसे साल्हिया सुलझा हुआ साध्धु कौन कहेगा, , अर्थात् समझदार पुरूष तो कदापि नहीं कह सकते। मूर्खों की तो भगवान ही जाने।
साभार : जंभसागर

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Sanjeev Moga
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