दया

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दया का उल्लेख श्रीगुरु जाम्भोजी ने सबदवाणी में अनेक बार किया है।दया को बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए उसके पालन का उपदेश दिया है।दया धर्म का पालन परमात्म-प्राप्ति का एक सुगम साधन है।दया एक सात्विक वृति है, वह समता की मूल है।दयाभाव ह्रदय की उदारता का धोतक ओर भेदभाव का भेदक है।एक प्रकार से दया शील का ही अंग है।दया से शरीरस्थ आत्मा बिम्ब रूप में स्पष्ठ होने लगती है।जहाँ दया, प्रेम नही वहा सभी कार्य उल्टे है।
जीवदया-पालन एक धार्मिक नियम है। धर्मनियम में क्षमा के साथ दया धारण करना बताया गया है।इस प्रकार दया के दो रूप है-ह्रदय में प्रत्येक प्राणी के प्रति दयाभाव रखना तथा जीवदया पालन करना।
श्री सबदवाणी में दया-
“दया धर्म थापले निज बाल ब्रह्मचारी”
–जो व्यक्ति दया धर्म का पालन करता है जिसका ह्रदय बालक की तरह सरल एव साफ है वही परमात्मा के स्वरूप का अनुभव कर सकता है।
“जा जा दया न मया ता ता विकरम कया”
–जिस व्यक्ति में दया और ममता नही है वह बुरे कर्म ही करता है।
“मुंड मुंडायो मन न मुंडायो”
“मुँह अबखल लोभी”
“अंदर दया नही सुर काने”
“निदरा हंड़े कसोभी”

–हे साधु ! तुमने सन्यासी बनने के लिए अपने सिर का मुंडन कर भेख अवश्य धारण कर लिया है परन्तु तुमने अपने मन का मुंडन नही किया है।इसलिए तुम मन से जोगी बनो तन से नही,तुम लोभ एव स्वार्थवश मुह से झूठा उपदेश ही करते हो।तुम्हारे अंदर न तो दया भाव है और न ही ईश्वर के आदेश को मानते हो तुम नींदा और अशोभनीय कार्य करते हो।
“दया न पालत भीलू”
-भील (शिकारी)दया-पालन नही कर सकते ।
“रै रै पिंडस पिंडु निरघन जीव क्यो खंडू”
-अरे भाई ! जैसा तेरा शरीर है वैसा ही सबका है।
हे निर्दयी ! फिर तुम जीव-हत्या क्यो करता है ?
तुझे अपना शरीर जितना प्यारा है, अन्य जीवधारियों को भी अपना-अपना शरीर उतना ही प्यारा है।जैसे तेरी देह भगवान ने बनाई है वैसे ही अन्य सब जीव धारियों की भी बनाई है फिर जीवो को क्यो मार-काट रहे हो?
यह काम बुरा है, यह मार्ग कुमार्ग है।
“काया भीतर माया आछै माया भीतर दया आछै”
“दया भीतर छाया आछै छाया भीतर बिंब फलू”

— काया में मन और उसके विषय है।(काया का राजा मन है) मन का उदात्त भाव दया है।(प्राणिमात्र के प्रति दया भाव होने पर मन केवल सांसारिक माया और अज्ञान रूप छाया में ही उलझा नही रह सकता,वह शनै: शनै: उनसे विरत और मुक्त होने लगता है) ।
दया भाव मे आत्मतत्व का प्रकाशन होता है।
“दया रूप म्हे आप वखाणा”
“सिघार रूप म्हे आप हती”

–दयालु होकर मैं स्वयं ही जीवन -दान देता हूं और संहारक रूप में मैं मारता हूं।(जगत और जीव की उत्तप्ती-लय का मैं आश्रय स्थल हूं और इनसे परे हूं।
“पाप न पुण्य न सती कुसती”
“ना तदि होती मया न दया”
“आपै आप उपनो स्वंयभू”
“निरह निरजंन कै हुंता धँधुकारु”
“म्हे आपै आप हुवा अपरंपर”
“हे राजेन्दर लेह विचारु”

–तब न तो पाप,पुण्य,सत्यवादी,असत्यवादी पुरुष थे और न ही कृपा,दया(आदि उदात्त भाव)थे।अगोचर स्वंयम्भू अपने आप ही उत्पन्न हुआ है।(सृष्टि-निर्माण के पूर्व)निराकार निरजंन (स्वंयम्भू)था और धुंधलेपन की स्थिति थी।(मैं) अपरंपर अपने आप ही उत्पन्न हुआ हूं।
हे राजेन्द्र इस बात पर विचार करो।
समस्त त्रुटियों के लिए क्षमा याचना👏👏

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Sanjeev Moga
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