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इस बिश्नोई पँन्थ का इतिहास बडा़ गौरवशाली रहा है जहाँ पर अपने धर्म के ख़ातिर गुरुदेव के वचनो के लिये अपना बलिदान दे दिया “गुरु के वचने निव खिव चालो “ओर आज हम है जो अनेक व्यसनो से घिरे पडे़ है
वृक्ष-रक्षा हेतु आत्म-बलिदान की एक महत्वपूर्ण घटना मेङता परगने के पोलावास गाँव में वि.सं. 1700 की (हस्त नखत तीज दिन, होली मंगलवार) हस्त-नश्त्र में होली के तीसरे दिन, मंगलवार चैत्र वदी तीज को घटित हुई थी। श्री बूचोजी ऐचरा बिश्नोई मेंङता पट्टी के पोलावास गाँव के निवासी थे। इस गाँव की अधिकांश आबादी बिश्नोईयों की थी। पोलावास गाँव के पास ही वृक्षों का घना वन था। यह वन बिश्नोईयों के वृक्ष-प्रेम का प्रतीक था। खेजङियों का यह वन वृन्दावन के समान सुन्दर एवं आकर्षक था, जिसे बिश्नोईयों ने अपने परिश्रम एवं प्रेम से पाला था। उस समय रैन एवं राजौद में राव दूदा के वंशज रहते थे। इन्होने पोलावास गाँव में होली के लिए वृक्ष काट लिए। समाचार पाकर वृक्ष प्रेमी बिश्नोई बहुत बङी संख्या में पोलावास गाँव पहुँच गए। और खेजङी वृक्षों की रक्षा एवं समाज कल्याण हेतु अहिंसात्मक रुप बलिदान देने का निर्णय लिया। अपने आत्म निर्णय के अनुसार ही बूचो जी ऐचरा ने रत्नसिंह से कहा कि या तो वृक्ष काटने का यह जघन्य कार्य बन्द करो या हिम्मत हो तो मेरे शरीर पर तलवार चलाओ। मैं अपने जीवित रहते हुए तुम्हें खेजङी नहीं काटने दूंगा। इस पर दुष्टात्मा रत्नसिंह ने बिना सोचे-समझे बूचोजी पर तलवार चला दी।मानव जाति के रक्षक बूचोजी ऐचरा वृक्षों की रक्षा करते हुए हस्त-नश्त्र में होली के तीसरे दिन, मंगलवार को गये और बिश्नोई जाति के इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ जोङ गये। बूचोजी ऐचरा का यह त्याग वृक्ष-प्रेमियों के लिए सदैव एक प्रेरणा रहेगा।
बूचोजी के इस बलिदान का वर्णन वील्होजी के शिष्य केसौजी गोदारा ने अपनी साखी में किया है। इस बलिदान के कारण । बूचोजी की प्रशंसा करते हुए कवि ने लिखा है :
बूचो बारा कोडि़ में, कियो बैकुंठे वास।
इलमाही इण ऐचरे, जुगलियो जस वास।। 1।।
मेड़ताटी का मानवीं, परगट पोला वास।
जिण नगरी बिश्नोई वसै, रूखां तणीं निवास।। 2।।
सरवर नीर सुहावणां, तरू रहिया धर छाय।
बन बिगतालै राखीयो, मंझ मेड़ताटी मांहि।। 3।।
राखे विश्नोई खेजड़ी, जे चाले गुरू राह।
राव रखावे तो रहै, का पाले पातशाह।। 4।।
जहां दीठा तहां कही, बन रा बन जो उणिहार।
ब्रह्म गऊ गुरू खेजड़ी, अे तुलसी ततसार।। 5।।
रैहण नै राजोद में,दूदे तणी औलाद।
नुगरो गुरू मांनै नहीं, बिरछ बढावे कर बाद।। 6।।
बाढ बिरछ होली कीवी, फिर फिर दीठा गौढ।
आई खबर जमात मां, खोज गया राजोद।। 7।।
चिटी मेल्ही चोखले, चोगावां मिलया आय।
नरसो नृसिंघदास रो, संक नै मानै काय।। 8।।
करमचंद ने कालो चडय़ो, दुर्जन लियो सराप।
मेड़तीया सूं मेड़तो, उतरियो इण पाप।। 9।।
बुध हीणां ब्राह्मण बाणियां, पति बारो परधान।
सिरधन आवे सिर साटे, सिर साटे सन्मान। ।10।।
सिर साटे लाभै स्वर्ग, जे सिर दीन्हों जाय।
उत तागाळा तम किया, बूचे बीड़ो लियो उठाय।।11।
न्यात जमाते परगटयो, दरगे अरू दरबार।
सीख करे परवार सूं, मांडयो कंध करार।। 12।।
कंध करारा मांडियो, रतना तेग संवार।
तीन हुकम बूचै किया, तन बूही तरवार।। 13।।
काया कंवल जुंवो हुवो, स्वर्ग गयो शुचियार।
अषी अवचल ऐचरो, साख रही संसार।। 14।।
झीणां कंठा झबकती, पदमल करे पियार।
हस्त नक्षत्र तीज दिन, होली मंगलवार।। 15।।
जम्भेश्वर जहाँ ओलखियो,लंघिया भवजल पार।
सुकरत कर स्वर्गे गयो, केशोजी कहे विचार।।16।।✒ प्रकाश बुडी़या
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