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जाम्भोजी का जन्म सन् 1451 ई० में नागौर जिले के पीपासर नामक गाँव में हुआ था। ये जाति से पंवार राजपूत थे। इनके पिता का नाम लोहाट जी और माता का नाम हंसा देवी ( केशर ) था । ये अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे। अत: माता – पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे।जाम्भोजी बाल्यावस्था से मौन धारण किये हुए थे ।तत्पश्चात् उनका साक्षात्कार गुरु से हुआ। उन्होंने सात वर्ष की आयु से लेकर 27 वर्ष की आयु तक गाय चराने का काम किया। माता-पिता की स्वर्गवास के बाद जाम्भोजी ने अपना घर त्याग कर पवित्र समराथल धोरा (बीकानेर) आप पधारे थे / यहाँ आप ने 34 वर्ष की आयु में कार्तिक वादी आठामं (जन्मस्थ्मीं )सन् 1485 (वि सवंत १५४२) के दिन समराथल धोरे पर पवित्र पाहल बनाकर विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की तथा 51 वर्ष तक वहीं पर सत्संग एवं विष्णु नाम में अपना समय गुजारते रहे।तथा देश विदेशों में धर्म का पर्चार किया. इसका परमान गुरुशब्द शं.29 में उल्लेख किया है
“गुरु के शब्द असंख्य परबोधी ,खारसमंद परिलो,,
खारसमंद परे प्रेरे चोखंड खारु,पहला अंत न पारुं,,
अनंत करोड़ गुरु की दावन विलम्बी,करनी साच तिरोलो ,,//
उन्होंने उस युग कीसाम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं अंधविश्वासों का विरोध करते हुए कहा था कि –
”सुण रे काजी, सुण रे मुल्लां, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरणी छाली रोसी, किणरी गाडर गाई।।
धवणा धूजै पहाड़ पूजै, वे फरमान खुदाई।
गुरु चेले के पाए लागे, देखोलो अन्याई।।”
वे सामाजिक दशा को सुधारना चाहते थे, ताकि अन्धविश्वास एवं नैतिक पतन के वातावरण को रोका जा सके और आत्मबोध द्वारा कल्याण का मार्ग अपनाया जा सके। संसार के मि होने पर भी उन्होंने समन्वय की प्रवृत्ति पर बल दिया। दान की अपेक्षा उन्होंने ‘ शील स्नान ‘ को उत्तम बताया। उन्होंने पाखण्ड को अधर्म बताया । उन्होंने पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। ईश्वर के बारे में उन्होंने कहा-
”तिल मां तेल पोह मां वास,पांच पंत मां लियो परकाश ।”
जाम्भोजी ने गुरु के बारे में कहा था -”पाहण प्रीती फिटा करि प्राणी, गुरु विणि मुकति न आई।”
भक्ति पर बल देते हुए कहा था -”भुला प्राणी विसन जपोरे,मरण विसारों केहूं।”
जाम्भोजी ने जाति भेद का विरोध करते हुए कहा था कि – “उत्तम कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति उत्तम नहीं बन सकता, इसके लिए तो उत्तम करनी होनी चाहिए।
उन्होंने कहा “तांहके मूले छोति न होई।दिल-दिल आप खुदायबंद जागै,सब दिल जाग्यो लोई।”
तीर्थ यात्रा के बारे में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था :”अड़सठि तीरथ हिरदै भीतर, बाहरी लोकाचारु।”
मुसलमानों के बांग देने की परम्परा के बारे में उन्होंने कहा था -”दिल साबिति हज काबो नेड़ौ, क्या उलवंग पुकारो।”
जाम्भोजी १५२६ ई० में तालवा नामक ग्राम में परलोक सिधार गए। ओर उनको वहां समाधी दी गयी उस दिन से उस जगह का नाम मुक्तिधाम मुकाम पड़ गया . उनकी स्मृति में विश्नोई भक्त फान्गुन मास की त्रियोदशी को वहाँ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ओर पर्ती वर्ष आसोज व फाल्गुन महीने की अमावस्या को मेला भरता है जहाँ देश के हर कोने से विश्नोई शर्धालू आते है .जाम्भोजी की शिक्षाएँ, सबदवाणी एवं उनका नैतिक जीवन मध्य युगीन धर्म सुधारक प्रवृत्ति के प्रमुख अंग हैं।
विश्नोई सम्प्रदाय.जाम्भोजी द्वारा प्रवर्तित इस सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए उनतीस नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है
“उणतीस धर्म की आंकड़ी, हृदय धरियो जोय। जाम्भोजी जी कृपा करी नाम विश्नोई होय ।”
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