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दोहा‘‘ अज्ञानी हम अन्ध भये, नहिं जानत दिन रैण। कृपा करो यदि पूर्ण गुरु, खुल जाये दिव्य नैण। तत विवेक ज्ञाता बने, रहे शांत प्रभु चित। रवि स्वयं ही रमण करे, या कछु और उगात।
ऊपर के शब्द को श्रवण करके फिर उन्हीं जमाती लोगों ने प्रार्थना की और कहने लगे – हे प्रभु! आप तो अन्तर्यामी सर्व समर्थ हैं किन्तु हम तो सांसारिक अज्ञानी जीव हैं। हमें तो सत्य असत्य का कुछ भी विवेक नहीं है और न ही शुभ कर्मों या अशुभ कर्मों का ही ज्ञान है। हम तो अन्धे के समान हैं। यदि आप हम पर कृपा करो तो हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करो तो हमारा चित शांत हो सकता है तथा शांत चित से ही हम आपकी दिव्य ज्योति का दर्शन कर सके हैं। हे प्रभु! हमें यह शंका सदा ही सताती रहती है कि यह प्रगट सूर्य देव नित्य प्रति समय से उदित हो जाता है तथा पूरे दिन रमण करता हुआ सांयकाल में फिर अस्त हो जाता है। इसके पीछे कोई और शक्ति कार्य कर रही है या स्वयं ही गति, प्रकाश तथा गर्मी देने में समर्थ है। तब जम्भेश्वर जी ने सबद सुनाया।
√√ सबद-54 √√ ओ३म् अरण विवाणे रै रिव भांणे, देव दिवाणें, विष्णु पुराणें। बिंबा बांणे सूर उगाणें, विष्णु विवाणे कृष्ण पुराणे।
भावार्थ- यहां पर प्रथम तो सूर्योदय का सुन्दर वर्णन है। जैसे आपने देखा ही होगा सूर्योदय से पूर्व ही आकाश में पूर्व की ओर लालिमा छा जाती है तथा ज्योंहि सूर्य प्रगट होता है तो सूर्य की किरणें प्रथम जमीन ऊपर नहीं पड़ती किन्तु वनस्पति, पेड़, पौधों पर टिकती है वही अरणी ही सूर्यदेव का विमान है। जिनके ऊपर चढ़कर सर्वप्रथम प्रकाशित होता है। सूर्य स्वयं देवता है, क्योंकि वह देता है। हम से लेता कुछ भी नहीं है। सभी देवता भगवान विष्णु के कार्यकत्र्ता सेवक हैं तथा सभी को अलग अलग कार्य एवं पद सौंपा है। यह सूर्यदेव परमात्मा विष्णु का दीवान है। दीवान यानि संदेश वाहक का यही कार्य होता है कि वह देश देशान्तर में जाकर खबर पहुंचा दे। इसलिये सूर्यदेव रोज हमें खबर देने के लिये प्रकाशमय होकर आता है और जगा देता है। स्वयं सूर्य अपनी ज्योति से प्रकाशित नहीं है। उसमें ज्योति तो अनादि पुराण सर्वेश्वर विष्णु की ही है उसी बिम्ब रूप विष्णु का यह प्रतिबिम्ब रूप यह सूर्य नित्य प्रति उदित होता है अपने कार्य हेतु परमात्मा विष्णु ने सूर्य को ज्योति प्रदान की है।वह जब चाहे तब वापिस भी ले सकते हैं तथा स्वयं विष्णु ही विवाण रूप में सूर्य का परम आधार है। प्राचीन काल में जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी, तब सूर्य भी प्रकाशमय नहीं था। तब तो इस संसार में अन्धकार ही छाया हुआ था। उस दयालु देव ने प्रथम सूर्य को ही प्रकाशित किया फिर जगत की रचना की थी।
कांय झंख्यो तै आल पिराणी, सुर नर तणों सबेरूं। इंडो फूटो बेला बरती, ताछै हुई बेर अबेरूं।
हे प्राणी! इस संसार में परमात्मा द्वारा भेजा गया यह दीवान रूपी सूर्य जब उदित होता है तो उस समय ब्रह्ममूहुर्त में उठकर तेरे को उस दयालु परमात्मा विष्णु को धन्यवाद देते हुए, कृतज्ञता प्रगट करते हुए उनके प्रतिनिधि रूप सूर्य को नमन प्रणाम करना चाहिये था। किन्तु तूं तो सोता रहा और यदि जग भी गया तो आल-बाल, झूठ-कपट, निंदा भरे वचन बोलने लगा। दिन से रात्रि, रात्रि से दिन के रूप में समय व्यतीत हो गया। इस ब्रह्माण्ड में कभी दिन का आवरण छाया रहता है और कभी रात्रि का। वह अण्डे की तरह उपर का आवरण सदा ही बना रहता है। किन्तु कभी कभी सूर्यदेव रात्रि का आवरण भंग करके दिन का आवरण चढ़ा देता है और दिन का आवरण समाप्त होता है तो रात्रि का आवरण छा जाता है। इसी प्रकार से वेला व्यतीत होती है।
मेरे परे सो जोयण बिंबा लोयण, पुरूष भलो निज बाणी। बांकी म्हारी एका जोती, मनसा सास विवांणी।
गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हम जैसे अवतारी पुरूषों से परे भी निराकार पुरूष परमात्मा जो ज्योति स्वरूप से सदा सर्वदा रहता है। जिसके सूर्य चन्द्र आदि ही नेत्र है। इनसे वो सदा सर्वदा ब्रह्माण्ड को देखता है तथा उनकी वाणी भी दिव्य अनहद नाद ओंकार ही है। उन ज्योति स्वरूप ब्रह्म और हमारी एक ही ज्योति है त तथा सम्बन्ध भी सदा ही जुड़ा हुआ रहता है। उस सम्बन्ध को हम मन और श्वांस रूपी विवाण से जोड़ते है। प्राण वायु तथा मन की गति अतिशीघ्र होती है उनसे हम सदा सर्वदा निरंतर सम्बन्ध स्थापित करा सकते है।
को आचारी आचारे लेणा, संजमें शीले सहज पतीना। तिहि आचारी नै चीन्हत कौण, जांकी सहजै चूकै आवागौण।
कुछ लोग तो उपर्युक्त निराकार ब्रह्म से ज्ञान योग द्वारा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं तथा कुछ लोग सगुण साकार शरीर धारी आचार विचारवान को ही चाहते हैं तथा सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उनके लिये श्री देवजी कहते हैं-कि मैं यहां पर शुद्ध आचार विचारवान, संयमी, शील व्रत धारी सहज विश्वासी यहां पर स्थित हूं यदि कोई मेरे से सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं तो उन्हीं नियमों को जीवन में अपनाकर मेरे पास आओ। मुझ आचारवान को पहचानों तो तुम्हारा आवागवण सहज ही में मिट जायेगा। इस प्रकार से साकार निराकार ये दोनों ही रूपों के द्वारा मानव गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर सकता है। उनमें सगुण साकार रूप सहज है।
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