

ओ३म् सप्त पताले भुंय अंतर अंतर राखिलो, म्हे अटला अटलूं।
भावार्थ- इस शरीर के अन्दर ही सप्त पाताल है जिसे योग की भाषा में मूलाधार चक्र जो गुदा के पास है इनसे प्रारम्भ होकर इससे उपर उठने पर नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र है इससे आगे हृदय के पास मणिपूर चक्र, कण्ठ के पास अनाहत चक्र, भूमण्डल में विशुद्ध चक्र तथा उससे उपर आज्ञा चक्र है। इन छः पाताल यानि नीचे के चक्रों को भेदन करता हुआ सातवें सहस्रार ब्रह्मर्ध्र में प्राण स्थित हो जाते है तब योगी की समाधी लग जाती है। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैने तो अपने प्राणों को इन सात चक्रों के अन्दर ही रख लिया है। प्राणों का धर्म है भूख-प्यास लगना। वे प्राण तो समाध्धिस्थ होकर सहस्रार-ब्रह्मरध्ध्र से झरते हुऐ अमृत का पान करते हैं। फिर मुझे आवश्यकता अन्न की नहीं है। इसलिये मैं स्थिर होकर यहां बैठा हुआ हूं। यह पृथ्वी जल का बना हुआ शरीर अवश्यमेव जल और अन्न की मांग करेगा। किन्तु प्राणों को जीत करके समाधी में स्थित हो जाने पर तो फिर शरीर से उपर उठकर यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को जो अलाह, अडाल, अयोनी, स्वयंभू के रूप में ही स्थित हो जाती है। यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है।
काया भीतर माया आछै, माया भीतर दया आछै। दया भीतर छाया जिहिं कै, छाया भीतर बिंब फलूं।
क्योंकि इस पंच भौतिक शरीर के भीतर ही माया है अर्थात् माया प्रकृति शरीर के कण कण में समायी हुई है क्योंकि माया से ही यह शरीर निर्मित है। उसी शरीर रूपी माया के अन्दर हृदय है। वही इसी शरीर के अन्दर ही है। उसी हृदय में भी माया की छाया में ढ़का हुआ वह परमपिता परमात्मा का प्रतिबिम्ब रूप आत्मा स्थित है वही फल रूप है। उसी फल की प्राप्ति के लिये प्रथम तो ज्ञान द्वारा माया का छेदन होगा तो उसकी छाया भी निवृत्त हो जायेगी फिर आत्म साक्षात्कार होगा।
पूरक पूर पूर ले पोंण, भूख नहीं अन्न जीमत कोंण।
यही आत्म साक्षात्कार और माया का भेदन मैने प्राणायाम द्वारा किया है। पूरक, रेचक , कुम्भक इन्हीं विधि से प्राणों को अधीन किया है। अब मुझे भूख ही नहीं लगती तो फिर बताओ भूख के बिना क्या अन्न खाया जाता है।