भावार्थ- हे अवध्धूं! जो तुम्हें नित्य प्रति जलाने वाला काम, क्रोध, मोह, राग-द्वेष आदि ये तुम्हारे अब तक जले नहीं है। समाप्त नहीं हुए है। अब इनको तूं जला कर भस्म कर दे। तब तुम्हारा अन्तःकरण पवित्र होगा। अमरा राखले अर्थात् दया, प्रेम , करूणा, नम्रता, शील आदि सद्गुणों को धारण कर ले। इनको सदा ही अमर रख ले। कभी भी इनसे विछोह न हो। इतना रखने के पश्चात् योगी की मुख्य अमूल्य वस्तु है ब्रह्मचर्य की रक्षा करना वह भी यत्न करके अर्थात् ऊध्र्वरत ब्रह्मचारी हो जा। ब्रह्मचर्य सदा ही नीचे की ओर बहता है, यह तो इसका स्वभाव है तथा इनका स्थान भी नीचे ही है। इसे सहस्रार ऊध्ध्र्व की ओर चढ़ाने का प्रयत्न करें। इस ऊर्जा शक्ति का अपव्यय रोककर इसे परमात्मा के दर्शन में सहायक बना अथवा ये तुम्हारी वृतियां है ये सदा ही नीचे विषयों की तरफ भटकती है इन्हें इन विषयों से ऊपर उठाकर परमात्मा की तरफ स्थिर करेगा तो सद्गुरु परमात्मा का दर्शन स्वतः ही हो जायेगा। योगी के लिये तो परमात्मा का दर्शन करना ही प्रथम कर्तव्य है।