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प्रसंग-21 दोहा'
नाथ एक विश्नोई भयो, करै भण्डारै सेव। टोघड़ी सोधण टीले गयो, जोगी भुक्त करैव। जोगी आया भुक्त ले, विश्नोई लेवे नांहि। जोगी इण विध बोलियो, हमारी भुक्त में औगुण काहि। घर छोड़या तै नाथ का, हम सूं कीवी भ्रान्त। गेडी ले जोगी उठयो, स्याह मूंढ़े की कांत। और जोगी झालियो, छिमा करो तुम वीर। इसकै मारै क्या हुवै, बुझेंगे गुरु पीर। जोगी सब भेला हुवा, चाल्या जम्भ द्वार। दवागर उन मेल्हियो, आय र करो जुहार। पग चालो तुम देवजी, कह्यो दुवागर जाय। बालै लखमण साम्हा, चलकै लागो पाय। क्या इजमत है गुरु कहै, बाले लछमण मांहि। तब जोगी ऐसे कहै, तृधा रूप रहाहि। बाल तरण वृद्ध हुवै, ऐसै धारै देह। तब विश्नोई ऐसे कह्यो, ऐहे वेश्वा ग्रेह।
एक नाथ पंथ का साधु जाम्भोजी के सम्पर्क में आकर विश्नोई हो गया। उसे गो सेवा में नियुक्त कर दिया था। एक समय एक बछिया खो गयी। उसे खोजने के लिये वह दूर चला गया था। रात्रि हो चुकी थी। वही पर पास में ही लक्ष्मण नाथ की मण्डली डेरा डाले हुऐ थी। जब वह विश्नोई उनके पास जाकर ठहर गया तो योगियों ने उसे भूखा समझकर भिक्षा का अवशिष्ट भोजन दिया तो उस बिश्नोई ने भोजन नहीं लिया। योगी कहने लगे कि इसमें क्या अवगुण है। तूं भोजन ग्रहण क्यों नहीं करता, तब विश्नोई ने कहा कि अब मैने संस्कार रहित जनों द्वारा बनाया हुआ भोजन करना छोड़ दिया है। तब उसमें से एक साधु लट्ठी लेकर मारने के लिये दौड़ा और कहने लगा
कि प्रथम तो तुमने नाथ पन्थ का घर छोड़ दिया और अब हमसे भ्रान्ति करता है। उसी समय ही दूसरे साध्धुओं ने उसे पकड़ लिया और कहा कि इसके मारने से क्या होगा? हम सभी अभी चलते हैं इसके गुरु पीर को देखते हैं। जिसने भी इस नाथ को विश्नोई बनाया है उसकी खबर लेंगे। इस प्रकार से सभी एकत्रित होकर वहां से रवाना हुए। लक्ष्मण नाथ ने तो मण्डली सहित दूर ही डेरा लगा दिया और अपने एक दूत को भेजा और कहा-कि उस जम्भदेव से जाकर कहो कि लक्ष्मणनाथ यहां आया हुआ है, उनके सामने पैदल चलकर क्षमा याचना करो। तुम्हारे कर्मों की गलती की वो क्षमा कर सकते हैं तब जम्भेश्वर जी ने उस दूत से कहा कि लक्ष्मण नाथ में क्या विशेषता है जो मैं उनसे माफी मांगूं। तब दूत ने कहा कि वे अपार शक्ति वाले सिद्ध है। दिन में चाहे तो बाल, , वृद्ध, , युवा तीन रूप ध्धारण कर लेते है। तब समीप में बैठे हुऐ विश्नोइयों ने कहा ऐसा नाटक तो वैश्या दिखाया करती है। उस दूत के प्रति श्री देवजी ने इस प्रकार से कहा-
ओ३म् लक्ष्मण लक्ष्मण न कर आयसां, म्हारे साधां पड़ै बिराऊं। लक्ष्मण सो जिन लंका लीवी, रावण मार्यो ऐसो कियो संग्रामूं।
भावार्थ- हे आयस्! तूं बार बार लक्ष्मण लक्ष्मण मत कह, ऐसा कहने से हमारे जो श्रोता साधु-भक्त जन है, उन्हें संदेह पैदा होता है। लक्ष्मण ऐसा कहने से ये लोग राम का भाई लक्ष्मण भी समझ सकते है।यह लक्ष्मण नाथ तो एक साधारण व्यक्ति ही है, वह राम का भाई लक्ष्मण कदापि नहीं हो सकता। उस राम के भाई लक्ष्मण ने तो महाबलशाली रावण को मारा था तथा अन्य राक्षस मेघनादादि को मारकर लंका पर विजय हासिल की थी। लक्ष्मण तो ऐसा योद्धा था जिसने लंका में ऐसा भयंकर युद्ध किया था। वह लक्ष्मण साधारण व्यक्ति लक्ष्मण नाथ नहीं हो सकता।
लक्ष्मण तीन भवन का राजा, तेरे एक न गाऊं। लक्ष्मण के तो लख चैरासी जीया जूणी, तेरे एक न जीऊं।
वह श्री राम का भाई लक्ष्मण तो मृत्यु लोक, स्वर्ग लोक एवं वैकुण्ठ लोक इन तीनों भवनों के राजा है किन्तु हे आयस्! तेरे लक्ष्मण के पास तो एक गांव भी नहीं है। तुम्हारा लक्ष्मण नाथ तो स्वयं भिक्षुक है तथा श्री राम के भाई लक्ष्मण के तो चैरासी लाख जीवों का समूह उनका अपना परिवार है वे सब के स्वामी है। किन्तु तुम्हारा तो अपना कोई जीव भी साथी नहीं है अर्थात् तुम्हारा लक्ष्मणनाथ किसी का भी स्वामी नहीं है।
लक्ष्मण तो गुणवंतो जोगी, तेरे बाद विराऊं। लक्ष्मण का तो लक्षण नांही, शीस किसी विध नाऊं।
श्री राम का अनुज लक्ष्मण तो महान गुणवान योगी था किन्तु तुम्हारे लक्ष्मणनाथ के अन्दर तो अब तक वाद-विवाद संशय वासना बैठी हुई है। इसलिये तुम्हारे इस लक्ष्मणनाथ में तो एक भी लक्षण अच्छा नहीं है। तो फिर सिर क्यों झुकाऊं तथा क्यों ही उनके सामने जाऊं। यदि वास्तव में होता तो अवश्य ही जाता।
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