सबद-46 ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो।

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ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो। जिहिं जोगी की सेवा कीजै, तूठों भव जल पार लंघावै।

भावार्थ- जिस योगी के मन मुद्रा है , शरीर ही गुदड़ी है और धूणी धूकाना रूप अग्नि को शरीर में स्थिर कर लिया है अर्थात् नाथ लोग कानों में मुद्रा डालते है जो गोल होती है यदि किसी का मन भी बाह्य विषयों से निवृत्त होकर केवल ब्रह्माकार हो जाये अर्थात् ब्रह्म के बाहर भीतर लय के रूप में स्थित रहे तो उसके लिये वही मुद्रा है तथा मुद्रा का अर्थ भी यही है। आत्मा की रक्षा के लिये शरीर रूपी गुदड़ी जिसने धारण कर ली है और परमात्मा की ज्योति रूपी अग्नि को जिसने अन्दर धारण कर लिया है, सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करता है ऐसे महान गुरु योगी में अपार शक्ति होती है। वह शिष्य को पार उतारने में सक्षम है।

 

नाथ कहावै मर मर जावै, से क्यों नाथ कहावै। नान्ही मोटी जीवां जूणी, निरजत सिरजत फिर फिर पूठा आवै।

तुम अपने को नाथ कहलाते हो फिर भी बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हो तो फिर अपने को नाथ कभी नहीं कहना चाहिये क्योंकि नाथ का अर्थ तो स्वामी, मालिक, परमात्मा, ईश्वर होता है। आप लोग अपने को ईश्वर की बराबरी में रखकर भी छोटी मोटी जीवों की योनियों में बार बार आवागमन करते हो तो ऐसा नाम रखने से भी क्या लाभ है तथा लोगों को भ्रमित क्यों करते हो।

 

हम ही रावल हम ही जोगी, हम राजा के रायों। जो ज्यूं आवै सो त्यूं थरपां, सांचा सूं सत भायों।

हे लोहापांगल! मैं ही रावल हूं, मैं ही योगी हूं तथा मैं ही राजाओं का राजा भी हूं इसलिये मेरे यहां सभी वर्गों के लोग आते है। जो भी जिस विचार भावना, कार्य , शंका को लेकर आता है, मैं उसी को उसकी भाषा में, शैली, काल अनुसार वैसा ही ज्ञान , उपदेश, धन , दौलत, सुख शांति प्रदान करता हूं। मैं ही राजाओं का भी राजा हूं। योगियों का भी शिरोमणि योगी हूं। मेरे पास सभी कुछ विद्यमान है तथा मुक्त हाथों से वितरण भी करता हूं। किन्तु जो सच्चे लोग है वे मुझे अति प्रिय है। उन्हें मैं सांसारिक सुख शांति के अतिरिक्त मोक्ष भी देता हूं जो दूसरों के लिये अति दुर्लभ है।

 

पाप न छिपां पुण्य न हारा, करां न करतब लावां बारूं। जीव तड़े को रिजक न मेटूं, मूवां परहथ सारूं।

मानव पूर्व जन्मों के कर्मों को लेकर इस संसार में आता है तथा अपने कर्मों का फल ही यहां पर भोगता है। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि मेरे पास बहुत लोग आते हैं किन्तु मैं उनके न तो पाप को छिपाता हूं और न ही पुण्य का हरण करता हूं अर्थात् उन्हें पाप-पुण्य कर्मो के फल भोगने की पूरी स्वतंत्रता है। उनके अपने निजी जीवन में दखल देना नहीं चाहता। उन्हें अपने कर्मों के फल का भुगतान पूरा करवा देता हूं। मैं ऐसा कर्तव्य करना नहीं चाहता जिससे उनके कर्म फल शेष रह जाये और वापिस जन्म-मरण के चक्र में आना पड़े। इसलिये मेरे द्वारा ज्ञान ग्रहण दशा में भी यदि दुख आता है तो उन्हें रोकना ठीक नहीं है। आयेगा तो चला जायेगा यदि ठहरेगा तो बार-बार विपत्ति पैदा करेगा। इसीलिये जीव के लिये जैसा विधान हो चुका है उसको मैं नहीं मिटाता। जीवन काल में तो यह अवसर स्वयं जीव के हाथ में है परन्तु मृत्यु के पश्चात् तो यह जीव दूसरे के हाथ चला जायेगा। फिर कुछ भी नहीं कर सकेगा।

 

दौरे भिस्त बिचालै ऊभा, मिलिया काम सवारूं।

इस संसार में जीवन धारण करने वाले लोग स्वर्ग और नरक के बीच में खड़े हुए हैं चाहे तो स्वर्ग की और प्रस्थान कर सकते है और यदि चाहे तो नरक की तरफ भी जा सकते है। किन्तु मनमुखी तो नीचे की ओर ही जायेगा यह निश्चित ही है और जो मेरे से आकर मिलेगा उसका कार्य तो मैं सिद्ध कर दूंगा अर्थात् स्वर्ग या मोक्ष की ओर प्रस्थान करवा दूंगा

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Sanjeev Moga
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