

ओ३म् खरतर झोली खरतर कंथा, कांध सहै दुख भारूं। जोग तणी थे खबर नहीं पाई, कांय तज्या घर बारूं
भिक्षा मांगने की झोली और ओढ़ने की गूदड़ी ये खरतर ही होनी चाहिये अर्थात् यदि तुम्हें भिक्षा के लिये झोली रखना है तो ऐसी शुद्ध पवित्र रखो जिसमें सत्य रूपी भिक्षा ग्रहण की जा सके। ऐसी उतम भिक्षा ही तुम्हें आनन्द देने वाली होगी और यदि ओढ़ने के लिये गूदड़ी कन्धे पर रखनी है तो प्रकृति पर विजय करके अपने को सुरक्षित कर लीजिये यही कंथा होगी। प्रकृति यानि आकाश, वायु, तेज, जल, धरणी से समझौता कर लेने पर ये ही गुदड़ी रूप आवरण का कार्य करेंगे। यही वास्तव में झोली और कंथा है जो योगी को धारण करनी चाहिये। इनसे अतिरिक्त वस्त्र की बनी हुई झोली और कंथा से तो कंधे को भार ही मारना है। सदा पास में रखने योग्य तो यह वस्त्र निर्मित स्थूल झोली कंथा नहीं है। हे लोहा पांगल! तथा अन्य मण्डली के लोगों तुमने योग की खबर तो जानी नहीं अर्थात् योग का मार्ग तो जाना नहीं तो फिर घरबार, स्त्री को क्यो छोड़ दिया।
ले सूई धागा सीवण लागा, करड़ कसीदी मेखलियों। जड़ जटा धारी लंघै न पारी, बाद विवाद बे करणों।
सूई धागा ले करके वस्त्र की सिलाई करने लगे तथा सिलाई करते करते अनेकों प्रकार का कसीदा निकालकर एक मेखलिया जो काख में दबाकर रखा जाता है जिसमें सुलफा गांजा आदि रखा जाता है बना दिया है। सूई द्वारा धागों से उलझन पैदा कर दी है किन्तु तुम्हें तो जगत, माया , जीव, ईश्वर की उलझन को सुलझाना था। किन्तु उल्टा कार्य करते हुए समय का दुरूपयोग ही किया है। केवल जटाएं बढ़ा कर जोगी, तपस्वी कहलाने से तो पार नहीं उतर सकता , जब तक व्यर्थ का वाद विवाद तर्क-वितर्क करते हुऐ कुकर्म में ही प्रवृत्त रहेगा।
थे वीर जपो बेताल धियावो, कांय न खोजो तत कणों।
आप लोग भूत, प्रेत, भेरू , बेताल आदि का जप ध्यान करते हो तथा अपने को योगी सिद्ध कहते हो, किन्तु उस परमात्मा तत्व को क्यों नहीं खोजते? तत्व प्राप्ति बिना अपने को योगी कहना यह तो पाखण्ड है, जो पाप का मूल है।
थे वीर जपो बेताल धियावो, कांय न खोजो तत कणों।
आप लोग भूत, प्रेत, भेरू , बेताल आदि का जप ध्यान करते हो तथा अपने को योगी सिद्ध कहते हो, किन्तु उस परमात्मा तत्व को क्यों नहीं खोजते? तत्व प्राप्ति बिना अपने को योगी कहना यह तो पाखण्ड है, जो पाप का मूल है।
आयसां डंडत डंडूं मुंडत मूंडूं, मुंडत माया मोह किसो। भरमी वादी वादे भूला, कांय न पाली जीव दयों।
हे आयस्! आपने हाथ में डंडा ले लिया है इससे तो हाथ को दण्ड मिला है किन्तु चंचल मन को तो दण्डित नहीं किया। इस सिर को तो मुंडवा लिया किन्तु मन को तो मुण्डित नहीं किया। यदि मन को मुंडित करते तो फिर मोह-माया में नहीं फंसते। आप लोग मोह-माया में फंसे हुए होने से भ्रम से भ्रमित होकर वाद विवाद करते हो, जिससे तुम्हारी श्रद्धा समाप्त हो गयी है। इसलिये जीवों पर दया भाव भी नहीं रहा। निर्दयी होकर जीवों का संहार करना प्रारम्भ कर दिया है योगी होकर फिर ऐसा क्यों और यदि ऐसा ही करना है तो फिर योगी कैसे हो सकते हो।
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