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ओ३म् भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं का भल बुद्धि पावै। जामण मरण भव काल जु चूकै, तो आवागवण न आवै। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेल्हत डालूं।
भावार्थ- -हे प्राणी!इन कल्पित भूत , प्रेत, देवी,देवता को छोड़कर भगवान विष्णु की ही सेवा तथा समर्पण करो। जिस प्रकार से सुवृक्ष के मूल में पानी देने से डालियां, पते,फल,फूल सभी प्रफुलित प्रसन्न हो जाते है। उसी प्रकार सभी के मूल रूप परमात्मा विष्णु का जप, स्मरण करने से अन्य सभी प्रकार के देवी देवता स्वतः ही प्रसन्न हो जायेंगे तथा कुमूल रूप भूत-प्रेत जोगणी आदि को कभी मत सींचो। वे तो सदा ही दुष्ट प्रकृति के है इनका फल भी दुखदायी ही होगा। उस भले मूल को सींचने से प्रथम तो भली बुद्धि पैदा होगी उससे विवेक द्वारा हम सदा ही जीवन में शुभ कर्म करेंगे, जिससे संसार का भय, मृत्यु, भय मिट जायेगा और जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिये छूट जायेंगे। इसलिये भले मूल की ही सिंचाई करो। जिस प्रकार से सिंचाई किया हुआ वृक्ष डालियां पते निकालता है तथा फलदायी होता है। उसी प्रकार से तुम्हारा किया हुआ यह शुभ कर्म उतरोतर वृद्धि को प्राप्त होगा।
हरि परि हरि की आंण न मानी, झंख्या झूल्या आलूं। देवां सेवां टेव न जांणी, न बंच्या जम कालूं।
हरि विष्णु परमेश्वर की आशा तो छोड़ दी तथा जगत एवं कल्पित देवों से आशा जोड़ ली है तथा हरि का बताया हुआ शुभ मार्ग और मर्यादा को तोड़ दिया उसे स्वीकार नहीं किया।इस संसार के लोगों की कुसंगति प्राप्त करके आल-बाल, , झूठ-कपट, व्यर्थ की बाणी बोलता रहा। न ही तुमने कभी परम देवों की पूजा-सेवा करने का तरीका विधि-विधान जाना तो फिर यमदूतों की फांसी से कैसे बचेगा। तेरे को तो इस जीवन में ही यमदूतों ने पकड़ रखा है। तूने कभी छूटने का विचार भी तो नहीं किया तो तुझे कौन मुक्ति दिलायेगा।
भूलै प्राणी विष्णु न जंप्यो, मूल न खोज्यो, फिर फिर जोया डालूं। बिन रैणायर हीरे नीरे नग न सीपै, तके न खोला नालूं।
भूले भटके प्राणी! सृष्टि के मूल रूप विष्णु परमात्मा का तो स्मरण भजन जप नहीं किया तथा डाल-पात रूप देवी देवताओं का ही सहारा लिया। ये डाल पते मूल पर ही टिके हुए है। स्वतः ही समर्थ नहीं है। इसलिये कमजोरों का आधार तुम्हें लेकर डूब जायेगा क्योंकि जिस प्रकार से समुद्र के बिना हीरा अन्य जल में मिलता नहीं है। स्वाति नक्षत्र की बूंद प्राप्ति बिना सीपी के मुख में भी मोती नहीं आता तथा छोटे मोटे नदी नालों में भी बहने वाले जल में स्थिरता नहीं होती , जल्दी ही सूख जाते हैं। उसी प्रकार से परमात्मा विष्णु के बिना इन कल्पित देवताओं में भी वह अमूल्य दिव्य ज्योति तथा स्थिरता गांभीर्य कहां है।
चलन चलंते वास वसंतै, जीव जीवंते सास फुरंतै। काया निवंती कांयरे प्राणी विष्णु न घाती भालूं।
जब तक शरीर स्वस्थ है, कार्य करने में समर्थ है, तब तक चलते-फिरते, उठतै-बैठते जीवन सम्बन्धी अन्य कार्य करते हुए तथा श्वांस चलते हुए श्वांसो ही श्वांस तेने परमात्मा का स्मरण नहीं किया। इस शरीर को अहंकार रहित करके किसी के आगे झुकाया तक नहीं। तो हे प्राणी! तुमने परमात्मा विष्णु से सम्बन्ध नहीं जोड़ा। ऐसी कौनसी विपत्ति तेरे उपर आ पड़ी थी। जिससे तुमने संसार से तो मेल कर लिया था किन्तु परमपिता परमात्मा से नहीं कर सका।
घड़ी घटन्तर पहर पटन्तर रात दिनंतर,मास पखंतर,क्षिण ओल्हखा कालूं। मीठा झूठा मोह बिटंबण, मकर समाया जालूं।
यह समय घड़ी, पहर, रात,दिन, पक्ष महिना, वर्ष, उतरायन, दक्षिणायन करते हुए व्यतीत हो जाता है। इन खंडों में बंटा हुआ समय मालूम पड़ता है। किन्तु काल का कोई बंटवारा नहीं होता है। वह जब चाहे तब आपके जीवन का अन्त कर सकता है। यह संसार उपर से देखने से तो मीठा प्रिय किन्तु झूठा है। यह अपने मोह जाल में इस प्रकार से फंसाता है जैसे झींवर मच्छली को जाल में फंसा लेता है। मछली तो मीठे आटे की गोली खाने के लोभ में आकर जाल में फंस जाती है। फिर छटपटाते हुए प्राणों को गंवा बैठती है। उसी प्रकार मानव भी संसार सुख के लिये पहले तो फंस जाता है और फिर छटपटाता है किन्तु निकल नहीं पाता है। उस मोह माया के जाल को काट नहीं सकता। वैसे ही अमूल्य जीवन को नष्ट कर देता है।
कबही को बांइदो बाजत लोई, घडि़या मस्तक तालूं। जीवां जूणी पड़ै परासा, ज्यूं झींवर मच्छी मच्छा जालूं।
कभी ऐसा भयंकर वायु का झोंका आयेगा जो इस शरीर को तोड़-मरोड़ करके इस जीव को ले जायेगा। जिस प्रकार से असावधानी के कारण सिर पर रखा हुआ घड़ा हवा के झौंके से नीचे ताल पर गिर कर फूट जाता है। इसलिये तुम्हारा शरीर भी कच्चे घड़े के समान ही है। शरीर से निकले हुए जीव के गले में यमदूत फांसी डालेगा और चैरासी लाख योनियों में भटकायेगा। जिस प्रकार झींवर मच्छली को मारने के लिये जाल डाल देता है और उन्हें पाश में जकड़ लेता है तो उसकी मृत्यु निश्चित ही है।
पहले जीवड़ो चेत्यो नांही, अब ऊंडी पड़ी पहारूं। जीव र पिंड बिछोड़ो होयसी, ता दिन थाक रहे सिर मारूं।
समय रहते हुए यह जीव सचेत नहीं हुआ और अब समय व्यतीत हो चुका है। वापिस वही समय बहुत दूर चला गया है। बीता हुआ समय वापिस लौटकर नहीं आयेगा। इस वृद्धावस्था में शरीर रक्षा के अनेकों उपाय करने पर भी इस जीव और शरीर का अलगाव तो निश्चित होगा। उन दिनों जब मृत्यु आयेगी तो सभी उपायों से थककर सिर कूट करके ही रह जायेगा। कोई भी रक्षा का उपाय नहीं जुटा पायेगा। एक मूल रूप विष्णु परमात्मा ही अन्तिम समय में रक्षक है। इसलिये वन्दनीय , पूजनीय है।
साभार – जंभसागर
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