गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।
ओ३म् पढ़ कागल वेदूं, शास्त्र शब्दूं, पढ़ सुन रहिया कछू न लहिया। नुगरा उमग्या काठ पखाणों,कागल पोथा ना कुछ थोथा,ना कुछ गाया गीयूं |
भावार्थ- कागज द्वारा निर्मित वेद, शास्त्र और संत-महापुरूषों के शब्दों को आप लोगों ने पढ़ा है तथा प्रतिदिन पढ़ते भी आ रहे हैं तथा कुछ लोग सुनते भी हैं। किन्तु जब तक पढ़ सुनकर भी कुछ प्राप्ति नहीं करोगे तो कुछ भी लाभ नहीं है। जैसे अनपढ़ अज्ञानी थे वैसे ही पढ़-सुनकर रह गये तथा कुछ नुगरे लोग है। जिन्होंने अब तक गुरु की शरण ग्रहण नहीं की है। ऐसे लोगों की उमंग तो लकड़ी एवं पत्थरों की मूर्ति पर ही है। उन्हीं के सामने जाकर मत्था टेकते हैं इसलिये जब तक उन्हें पढ़कर आचरण में नहीं लाओगे तो कागज पोथा कुछ भी ज्ञान नहीं दे सकेगा , वे तो थोथे ही है और न ही कुछ अन्य गायन करने में ही लाभ है अर्थात् केवल गायन-पठन करना व्यर्थ ही है।
किण दिश आवै किण दिश जावै, माई लखे न पीऊ।
न तो जीवात्मा का आगमन-निर्गमन वेद शास्त्र बता सकते और न ही माता-पिता ही बता सकते हैं क्योंकि शब्द शास्त्र एवं माता-पिता तो स्थूल बुद्धि गम्य को ही बता सकते हैं किन्तु यह जीव विज्ञान तो अनुभव तथा दिव्य दृष्टि द्वारा प्राप्य है। जीव के आने व जाने की दिशा को गुरुजी बतलाते हैं।
इण्डे मध्ये पिंड उपन्ना, पिंडा मध्ये बिंब उपन्ना। किण दिश पैठा जीऊं, इंडा मध्ये जीव उपन्ना।
माता-पिता के रजवीर्य से शरीर की उत्पति होती है। उस शरीर रूप पिण्ड से जीव पहले से ही विद्यमान रहता है। किन्तु उस अवस्था में वह अशरीरी जीव अचेत अवस्था में रहता है। माता का सुरक्षित अनुकूल गर्भ स्थान पाकर वह शनैः शनैः सचेत होकर बाह्य शरीर का आवरण पाकर उत्पन्न शीलता को प्राप्त करता है। जिसे शरीर की दिनोंदिन वृद्धि होती है तथा इस शरीर के साथ ही सूक्ष्म शरीर भी अन्तःकरण सहित सचेत हो जाता है। इसलिये अण्डे आदि में या अन्य किसी भी शरीर में जीवात्मा का बाहर से किसी भी दिशा से प्रवेश नहीं होता, वह तो शरीर के अन्दर होता है। जीव होने से ही तो शरीर की प्राप्ति है। प्रथम जीव बाद में शरीर होता है।
सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, पीर ऋषिश्वर रे मसवासी। तीरथ वासी, किण घट पैठा जीऊं।
काजी मुल्ला, पीर, महान ऋषि, मठ या श्मशान में निवास करने वाले, तीर्थ में निवास करने वाले सभी लोग अपने को विद्वान धर्माध्धिकारी कहते हो पुस्तक पढ़ते हो इसलिये आपसे पूछना ठीक ही है कि इस जीव ने किस द्वार से प्रवेश किया।
कंसा शब्दे कंस लुकाई, बाहर गई न रीऊ। क्षिण आवै क्षिण बाहर जावै, रूतकर बरषत सीऊं।
जिस प्रकार से कांसा के बर्तन में थाली आदि पर चोट करने से एक ध्वनि पैदा होती है। यह ध्वनि कहां से पैदा होती है और कहां चली जाती है। वह अन्दर ही सर्वत्र छुपी हुई है। चोट पड़ने पर प्रकट हो जाती है तथा वापिस उसी में ही लीन हो जाती है। उसी प्रकार से यह जीव भी सर्वत्र समाया हुआ है। परन्तु अप्रकट है तथा अन्त समय में फिर ब्रह्म में लीन हो जाता है। जीव के आने व जाने में केवल एक क्षण का समय लगता है। ऋतु आने पर ही वर्षा होती है तथा सर्दी गर्मी भी पड़ती है। इसी प्रकार से जीव का शरीर में प्रवेश या जन्म भी अपने कर्मानुसार यथा समय पर ही होता है।
सोवन लंक मन्दोदर काजै, जोय जोय भेद विभिषण दीयो।
जिस प्रकार से विभीषण ने सोने की लंका एवं मन्दोदरी के लिये वहां का सम्पूर्ण भेद रामजी को दे दिया था। उसी प्रकार से हे मनोहर! मैने भी तेरे को यह जीव विज्ञान का सम्पूर्ण गोपनीय भेद दे दिया है। विभीषण के भेद को पाकर रामजी ने विजय प्राप्त कर ली थी। अब तूं भी इस भेद को समझकर ज्ञान प्राप्त कर ले, तेरे लिये यही विजय का कार्य होगा।
तेल लियो खल चोपै जोगी, तिहिं को मोल थोड़े रो कियो। तिलों में से तेल निकल जाता है तो पीछे बची हुई खली पशुओं के ही योग्य होती है। उस खली का मूल्य कम हो जाता है। उसी प्रकार से इस शरीर रूपी तिलों से जब जीवात्मा रूपी तेल निकल जाता है तो पीछे खली के समान व्यर्थ का मृत शरीर ही रह जाता है। इसलिये केवल शरीर को ही अति महत्त्व देना कोई बुद्धिमानी नहीं है। महत्वपूर्ण तो स्वकीय चेतनात्मा ही है।
ज्ञाने ध्याने नादे वेदे जे नर लेणा, तत भी तांही लीयो।
जीवात्मा का ज्ञान तथा स्वरूप की प्राप्ति तो सतगुरु द्वारा व्यवहारिक एवं पारमार्थिक शास्त्रीय ज्ञान श्रवण, नाद ध्वनि, वेद पाठन से ही हो सकती है और जो इन साधनों को अपनाता है वह तत्व को जानता है। या जाना जा सकता है। अन्यथा तो स्थूल संसार को ही जीवात्मा मानकर भटकता है।
करण दधीच सिंवर बलराजा, हुई का फल लीयो।
कर्ण, दधीच, राजा शिवि तथा बलि राजा ये सभी महान दानी थे। उन्होंने अपने शरीर तक दान में दे दिया था। किन्तु ये लोग भी अपने दान कर्म का जितना फल, यश, स्वर्ग आदि होता है, उतना ही मिला-प्राप्त किया। ये लोग भी दान के प्रभाव से परम तत्व को प्राप्त नहीं कर सके अर्थात् दान का फल स्वर्ग ही होता है न कि मुक्ति। आवागमन से छूटने का उपाय परम तत्त्व ही हो सकता है।
तारा दे रोहितास हरिचन्द, काया दशबन्ध दीयो।
इन्हीं दान वीरों की परम श्रृंखला में अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र उनकी पत्नि तारा , एवं सुपुत्र रोहिताश ने भी धर्म सत्य की रक्षार्थ अपना सभी कुछ दान में देकर अपनी काया को भी दान में दे दिया। किन्तु निष्काम भाव से दिया हुआ हरिश्चन्द्र का दान फलीभूत हुआ जिससे अपने आप सहित स्वकीय प्रजा जो सात करोड़ थी उनका भी उद्धार किया। यह उद्धार तो ज्ञान, धन एवं स्वकीय काया समर्पण भाव से ही संभव हुआ।
विष्णु अजंप्या जनम अकारथ,आके डोडे खींपे फलीयो,काफर विवरजत रूहीयूं |
उस परम तत्व की प्राप्ति के लिये विष्णु का जप , स्मरण, ध्यान ही परम कारण है। जो व्यक्ति परमात्मा-स्वामी विष्णु का जप नहीं करता, तत्वान्वेषण नहीं करता, उनका जन्म व्यर्थ ही है। जिस प्रकार से आक के डोडिया तथा खींप वृक्ष की फलियां ये दोनों ही पौधे राजस्थान की मरूभूमि में विशेष कर होते है। उनका फल किसी कार्य में नहीं आता। जो यह परम तत्व का मार्ग नहीं अपनाता है नास्तिक है। ऐसे नास्तिक लोग खाली ही रह जायेंगे।
सेतूं भातूं बहु रंग लेणा, सब रंग लेणा रूहीयूं। नाना रे बहुरंग न राचै, काली ऊन कुजीऊं।
सफेद वस्त्र पर तो अनेक भांति के सभी प्रकार के रंग चढ़ जाते है तथा काली ऊन के तो कोई भी रंग नहीं चढ़ सकता है। उसी प्रकार से ही जिसका अन्तःकरण अब तक पवित्र तथा निर्दोष शुभ्र है। उसको तो आप जो चाहो वैसा ही ज्ञान दे सकते हो क्योंकि ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता उसमें है। अब तक दोष रूपी कालिमा नहीं चढ़ी है और जिस व्यक्ति का हृदय कलुषित हो गया है अनेकानेक दुर्गुणों से अन्तःकरण को कलुषित कर लिया है वह काली ऊन की तरह है उसे कभी भी अच्छे संस्कारों से शुद्ध पवित्र नहीं किया जा सकता। जब तक स्वयं वह अपने को बदलने के लिये प्रयत्नशील न हो जाये।
पाहे लाख मजीठी राता, मोल न जिहिं का रूहीयो।
मजीठ रंग से रंजित किये विना लाख का कोई मूल्य नहीं है। जब लाख रंग जाती है तो उसकी चुड़ियां आदि बनती है। जिससे श्रृंगार होता है तथा उसकी कीमत बढ़ जाती है। उसी प्रकार से मानव में जब तक अपठितता, असंस्कारितता अज्ञानी मूर्ख है तब तक उसकी कोई कीमत नहीं है। यही पुरूष विद्वान गुणी हो जाता है तो उसका मूल्य और इज्जत बढ़ जाती है।
कबही वो ग्रह ऊथरी आवै, शैतानी साथै लीयो। ठोठ गुरु वृषलीपति नारी, जद बंकै जद बीरूं।
कभी कभी दुष्ट आदमी भी सचेत हो जाता है। कोई ज्ञान किरण उदित हो जाने से परम तत्व की प्राप्ति के लिये घर से बाहर निकल पड़ता है किन्तु शैतानी-दुष्टता को साथ लेकर ही निकलता है। उसे पीछे छोड़कर नहीं जाता। ज्ञानी गुरु की खोज में भटकता है तो उसे ज्ञानी या पाखण्डी का विवेक तो होता नहीं है और किसी ठोठ गुरु के हाथों चढ़ जाता है। वह गुरु स्वयं ठोठ है तथा झूठ , कपट, नारी प्राप्ति की वासना में लिप्त है। इधर शिष्य भी तो शैतानी लेकर आया है। दोनों में बांकापन है। न तो सीधा शील स्वभाव वाला गुरु है और न ही शिष्य ही है। जब शिष्य अपनी मरोड़ जताता है तो ठोठ गुरु उससे समझौता कर लेता है उस शिष्य को दुर्गुणों से मुक्त नहीं कर सकता।
अमृत का फल एक मन रहिबा, मेवा मिष्ट सुभायो।
स्वाभाविक मेवा सदृश मीठा अमृत का जो फल है। वह फल एकाग्र मन से अर्थात् चित वृति निरोध रूपी योग से प्राप्त किया जा सकता है किन्तु ऐसे ठोठ गुरुओं के पास शैतान शिष्य को वह कहां मिलेगा|
अशुद्ध पुरूष वृषलीपति नारी, बिन परचै पार गिराय न जाई। देखत अन्धा सुणता बहरा, तासों कछु न बसाई।
अपवित्रता से युक्त, झूठ कपटता से पूर्ण, नारी प्राप्ति की वासना से लिप्त, ऐसा पुरूष कभी भी सतगुरु के उपदेश कृपा विना सुधर नहीं सकता तथा विना सुधार किये कभी सुख शांति को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् इह लोक तथा परलोक दोनों ही बिगाड़ लेता है। ऐसा व्यक्ति देखता हुआ भी नहीं देखता अन्धा है। सुनता हुआ भी नहीं सुनता बहरा है। उसका जीना तो केवल आयु पूरी करनी है। वास्तविक जीवन से तो बहुत दूर है।
साभार -जंभसागर
गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।