सबद-22 : ओ३म् लो लो रे राजिंदर रायों, बाजै बाव सुवायो। आभै अमी झुरायो, कालर करसण कियो, नैपै कछू न कीयो।

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“प्रसंग-दोहा”
वरसंग आय अरज करी, सतगुरु सुणियें बात। 
तब ईश्वर कृपा करी, पीढ़ी उधरे सात।
म्हारै एक पुत्र भयो, झाली बाण कुबाण।
माटी का मृघा रचै, तानै मारै ताण।
बरसिंग की नारी कहै, देव कहो कुण जीव।
अपराध छिमा सतगुरु करो, कहो सत कहैं पीव।
धाड़ेती गऊ ले चले, इक थोरी चढ़ियो बार।
रूतस में प्रभू मैं भई, दृष्ट पड़यों किरतार।
तब सतगुरु प्रसन्न भये, दुभध्या तजे न दोय।
सत बात तुमने कही, सहजै मुक्ति होय।
जांगलू धाम निवासी बरसिंग जी बणिहाल(बैनीवाल) ने सम्भराथल पर आकर जम्भेश्वर जी से प्रार्थना करते हुए कहा-हे देव! आपने तो पहले कहा था कि तुम्हारे पुत्र-पौत्र सहित तुम्हारा सात पीढ़ियों का उद्धार होगा किन्तु हमारे घर में एक पुत्र ने जन्म लिया है अब बड़ा होकर मिट्टी के मृग बनाकर उन्हें बाणों द्वारा मारता है।इससे पता चलता है कि यह कोई कुजीव है किन्तु हमारे यहां पर आगमन क्यों हुआ? इससे तो लगता है कि आपकी बाणी सत्य होने में संदेह है। वरसिंग की धर्मपत्नी कहने लगी-यह जीव कौन है। यदि मेरा कोई अपराध है तो क्षमा करें। वरसिंग की नारी ने सत्य बात बताते हुऐ कहा-एक बार डाकू लोग गऊवों को ले जा रहे थे, तब पीछे से छुड़ाने के लिये बाहर चढ़ी थी। उनमें एक थोरी जाति का शिकारी भी उनके साथ था। उस समय मैं भी ऋतुवंती अवस्था में होते हुऐ भी उनके साथ थी उनकी सेवा में जल पिलाने के लिये मुझे भी जाना पड़ा था। हो सकता है उस शिकारी की दृष्टि मेरे उपर पड़ी हो, ऐसा कोई दृष्टि दोष हो सकता है तो मालूम नहीं किन्तु प्रत्यक्ष दोष तो नहीं हो सकता। इस सत्य को सुनकर श्री देवजी ने कहा-जो भी हो, अब इनके पूर्व जन्म के संस्कार निवृत करके नये अच्छे संस्कार जमाओ,निश्चित ही इसका सुधार होगा। यह सद्मार्ग का अनुयायी बनेगा तथा मुक्ति को प्राप्त करेगा। श्री देवजी ने जीव और देह का विज्ञान इस सबद द्वारा बताया है।

√√ सबद-22 √√
ओ३म् लो लो रे राजिंदर रायों, बाजै बाव सुवायो। आभै अमी झुरायो, कालर करसण कियो, नैपै कछू न कीयो।
भावार्थ- इस सबद के द्वारा गुरु जम्भेश्वर जी ने कहा मानव स्वर्ग सुख भोग लेने के बाद जब वापिस मृत्यु लोक में आता है तो वापिस आगमन का तरीका प्रथम बतलाया है। गीता में कहा है-ते तं भुक्त्वा स्वर्ग लोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्यु लोकं विशन्ति‘‘ भुक्त्वा स्वर्ग लोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्यु लोकं विशन्ति‘‘ इसी विषय को छान्दोग्य उपनिषद् में भी इस प्रकार से वर्णित किया है। जब वह जीव वापिस आता है तब अचेत अवस्था को प्राप्त होकर सर्वप्रथम अन्तरिक्ष में आता है। वहां से फिर परमात्मा की इच्छा से समुद्र से उठे हुए लहलोर – लो लो रे यानि देवराज इन्द्र स्वरूप बादलों में आता है। वही बादल रूप जल जो वाष्प रूप में रहता है, आकाश में विचरण करता है। उसी समय मानसूनी हवाएं अर्थात् सुवायु चलती है तो बादलों को धकेल कर इधर ले आती है वर्षा का आना या न आना सुवायु पर ही निर्भर करता है। प्रभु की इच्छा से चली सुवायु आकाश में बादलों का गहरा डंबर कर देती है। वही बादल ऊसर भूमि पर बरस जाता है, तो वहां पर कुछ भी नहीं होता। बरसा हुआ जल वापिस सूर्य किरणों द्वारा उड़कर बादल बन जाता है। अर्थात् उस जल में रहने वाला सूक्ष्म जीव जल के साथ ही तद्रूप होकर विचरण करता है।

अइया उतम खेती, को को इमृत रायो, को को दाख दिखायो। को को ईख उपायो, को को नींब निंबोली, को को ढ़ाक ढ़कोली। को को तूषण तूंबण बेली, को को आक अकायो, को को कछू कमायो। 
वे ही जल की बूंदें यदि उतम उपजाऊ तैयार खेती पर पड़ती है तो बीज निपजा देती है। इसमें जल का कोई दोष नहीं है। जैसा बीज होगा फल भी तो वैसा ही होगा, यदि वह जल दाख में गिरेगा तो अमृतमय दाख पैदा कर देगा और ईख में गिरेगा तो भी गुड़ पैदा कर देगा और वही जल यदि नीम के पेड़ पर बरसेगा तो निंबोली पैदा कर देगा। ढ़ाक पर ढ़कोली तूंबे की बेल पर वर्षा से तूंबा पैदा होगा और आक पर वर्षा से विषमय आक हो जायेगा। जैसा बीज होगा वैसा ही फल होगा। यहां जल रूपी माता-पिता का रज-वीर्य है तथा बीज रूपी जीव है। माता-पिता का दावा तो केवल शरीर तक ही सीमित है क्योंकि माता-पिता तो केवल शरीर को ही पैदा करते है। जीव को पैदा करने का सामथ्र्य नहीं है। माता-पिता के शरीर से उनके बच्चे के शरीर की सादृश्यता है न कि जीव से। जीव अपने पूर्व जन्मों के संस्कार साथ लेकर जन्मता है। इसलिये सुपुत्र या कुपुत्र का जन्म होना माता-पिता के वश की बात नहीं है। सज्जन पुरूष के यहां सुजीव ही भेजना यह ईश्वर का ही कार्य है। जिस प्रकार से जल से सिंचित होकर बीज पेड़ का रूप धारण कर लेता है। ठीक उसी प्रकार से सिंचित हुआ बीज रूपी जीव शरीर को धारण कर लेता है और वृद्धि को प्राप्त होता है।

ताका मूल कुमूलूं, डाल कुडालूं, ताका पात कुपातूं। ताका फल बीज कूबीजूं, तो नीरे दोष किसा
नीम, आक, तूंबा आदि इतने कड़वे विषैलै क्यों होते है? जल तो दाख, नींब दोनों में एक जैसा ही वर्षा है। उतर देते हैं-कि उनका मूल ही कुमूल है अर्थात् बीज रूप ही जिनका कड़वाहट से भरा है। तो वैसा ही फल होगा। डाल, पते, फूल, फल, बीज सभी वैसे ही होंगे इसमें जल का क्या दोष है बीज का ही दोष है।इसी प्रकार स्वयं जीव ही दुष्टता से परिपूर्ण है तो उसका विस्तार रूप शरीर तथा कार्य भी वैसा ही होगा।इसमें माता-पिता का क्या दोष है।

क्यूं क्यू भऐ भाग ऊणां, क्यूं क्यूं कर्म बिहूणां, को को चिड़ी चमेड़ी। को को उल्लू आयो, ताकै ज्ञान न ज्योति, मोक्ष न मुक्ति। यांके कर्म इसायो, तो नीरे दोष किसायों। 
कुछ कुछ लोग भाग्य विहीन होते है तथा कुछ कुछ लोग शुभ कर्मों से रहित होते है। जो छोटी छोटी चैरासी लाख योनियों में भटकते हैं। उन जीवों को वही दुखदायी शरीर प्राप्त होते है। कभी चिडि़या कभी चमेड़ी उल्लू आदि जिनको न तो कभी ज्ञान की ज्योति थी और न ही कभी हो सकती तथा विना ज्ञान के तो ये प्राणी मोक्ष या मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। इनके कर्म ही ऐसे है तो फिर जल का क्या दोष है अर्थात् स्वयं जीव ही कुकर्मी है तो फिर जल रूपी शरीर का क्या दोष है। इसलिये हे बरसिंग!इस बालक के सम्बन्ध्ध में इतना दुखी नहीं होना। यह पूर्व जन्म का शिकारी है। किसी कारणवश या दृष्टि दोष के कारण यहां पर आ गया। अब इसे अच्छे संस्कारों से शुद्ध करो। यही जीव जैसे दुष्ट हुआ था वैसे ही सज्जन भी हो जायेगा। इस समय तुम्हारा यही कत्र्तव्य है। इसलिये माता-पिता ही प्रथम गुरु होते हैं। इस बालक का शरीर तुम्हारा होने से इसमें रहने वाला जीव भी इस समय तुम्हारा सम्बन्ध्धी हो चुका है। इसलिये तुम्हारी बात अवश्य ही स्वीकार करेगा। तुम्हारे द्वारा प्रदत इस शरीर में रहनेवाला जीवात्मा भी इस शरीर में रहकर तुम्हारे संस्कारों से पवित्र हो जायेगा।

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Sanjeev Moga
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